जब से दंतेवाड़ा की घटना से सब सहमे हुए हैं,देश का सूचना और प्रसारण मंत्रालय अब आतंकियों के महिमामंडन को लेकर जाग उठा है। हाल ही में मंत्रालय ने देश के सभी टीवी चैनलों को निर्देश दिया कि वे आतंकवादियों और आतंकवादी संगठनों को जरूरत से ज्यादा कवरेज न दें और साथ ही उनसे जुड़ी घटनाओं को अतिरिक्त जिम्मेदारी और संवेदनशीलता के साथ कवर किया जाए। हालांकि यह निर्देश दंतेवाड़ा की घटना के पहले का है लेकिन इस घटना के बाद वह और भी ज्यादा प्रासंगिक हो उठा है।

 

इस निर्देश में आतंकियों के साथ इंटरव्यू दिए जाने पर भी कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा गया है कि ऐसा होने से आंतकियों को अपना राजनीतिक एजेंडा स्थापित करने में मदद मिल सकती है। इस निर्देश में कड़ाई की आवाज को मिलाने के लिए केबल टीवी अधिनियम 1995 के प्रोग्राम कोड का हवाला भी दिया गया है। इसके साथ ही मंत्रालय ने यह सफाई भी दी है कि यह सुझाव राष्ट्रीय हित में और गृह मंत्रालय की सलाह पर दिए गए हैं।

 

यहां दो मुद्दे दिखाई देते हैं। एक तो है आतंक के दैत्यीकरण का और दूसरे उसके अप्रत्यक्ष तौर पर महिमामंडन का। जैसे फिल्मों में पुलिस के देर से आने की छवि पक चुकी है, वैसे ही आतंकवादी के आधुनिक, युवा और तकनीक में पारंगत होने की छवि ने अपनी पक्की जगह बना ली है। आतंकी मीडिया के भरपूर दोहन की कहानी समझ चुका है और हैरानी की बात यह कि कई बार वह संवेदना भी बटोर ले जाता है। कसाब की सुरक्षा पर हो रहा खर्च या उसे फांसी पर लटकाया जाना मानव अधिकार की विभिन्न परिधियों में आकर बहस की वजह बन सकता है।

  

 

लेकिन यहां एक मुद्दा और भी है और वह है खुद पत्रकारों की सुरक्षा का। यह सच किसी से छिपा नहीं है कि दुनियाभर में पत्रकारों को आतंकवाद की एक बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी है। अल्जीरिया,कोलंबिया,स्पेन से लेकर फिलीपींस तक में बहुत से पत्रकारों का अपहरण हुआ है,हत्याएं हुई हैं। वॉल स्ट्रीट जरनल के पत्रकार डेनियल पर्ल की हत्या ने खोजी पत्रकारिता से जुड़े जोखिम को जैसे उधेड़ कर ही रख दिया था। भारत में भी पत्रकार लगातार ऐसे जोखिमों से खेलते रहे हैं चाहे वो कश्मीर के मामले में हो या नक्सलवाद के मामले में। पत्रकारिता से जुड़े जोखिम से निपटने के लिए सरकारी स्तर पर कभी बहुत हंगामा होते नहीं देखा गया।  

 

खैर,बात हो रही थी सूचना और प्रसारण मंत्रालय की जारी हिदायत की। दरअसल पिछले दो-चार साल में मंत्रालय की तरफ से ऐसी हिदायतों को जारी करने का मौसम काफी जोर पकड़ चुका है। मुंबई हमले की लाइव कवरेज के दौरान जब दुनिया भर की नजरें हमारी कवरेज पर थीं, तब भी कवरेज के गैर-जिम्मेदाराना हो जाने की बातें उठी थीं। कहा गया कि टीवी पर अपराध लाइव प्रस्तुतिकरण की वजह से बचाव कार्य में बाधा तो आती ही है, साथ ही सुरक्षा पर सेंध लगाए जाने के आसार भी कई गुणा बढ़ जाते हैं। यह कहा गया कि मीडिया कई बार अपराध और आतंक को किंग साइज इमेज दे देता है जो सिविल सोसाइटी के लिए खतरनाक हो सकता है। यह ठीक वैसे ही है जैसे कि किसी बच्चे को तेज कंप्यूटर गेम खेलने की आदत पड़ जाए और फिर बड़े होने पर वो खुद भी सड़क पर कुछ वैसे ही उच्छृंखल अंदाज में अपनी गाड़ी को दौड़ाने लग जाए और डरे भी न।

 

लेकिन यहां कुछ बातें समझ में नहीं आतीं। भारत में सूचना और प्रसारण से संबंधी तमाम नीतिगत अधिकार सूचना और प्रसारण मंत्रालय के पास हैं और मंत्रालय के गठन से लेकर आज तक कभी भी मंत्रालय के आदेशों में न तो पूरी गंभीरता दिखाई दी और न ही कड़ाई। दूसरे, हिदायतें भी आधी-अधूरी ही दिखाई दीं और तीसरे, कभी भी इस बात का खुलासा ठीक से हुआ नहीं कि हिदायत के ठीक से लागू न होने पर मंत्रालय ने क्या एक्शन लिया।

 

यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आतंकवाद चाहे किसी भी किस्म का हो, खबर बनता ही है। लेकिन उस खबर का आकार क्या हो, इसे तय करने का अधिकार अब एडिटोरियल के हाथों से सरक कर अब अखबार की पूरी व्यवस्था के एख बड़े तंत्र के हाथों में पहुंच गया है।
 

इसके अलावा प्रेस की स्वतंत्रता की परिधि क्या हो, यह भी तय नहीं हो सका है। इसलिए लगता यही है कि समय हिदायतें देने या बंदिशें लगाने का नहीं है बल्कि एक खुले माहौल की जमीन को तैयार करने का है।

 

 

( यह लेख 11 अप्रैल, 2010 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

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3 Responses

  1. इस विषय पर विचार करना अब बहुत जरुरी होने लगा है. फिर सिर्फ पत्रकारों को ही क्यूँ समाज के उन लोगों को भी समझना और समझाना जरुरी है जो देश की मुख्यधारा से अलग अपना वजूद स्थापित करने के लिए सोच भी ऐसा बना लेते हैं जो देश के लिए हितकर नहीं है. इस प्रकरण मैं बहुतेरे शामिल हैं जिन्हें सिर्फ यह समझाना जरुरी है कि अगर उन्हें बोलने दिया जा रहा है तो इसकी वजह भी ये देश ही है. खैर बात आप भी समझती हैं. सोचा, मीडिया कि मुसाफिरी करते हुवे कविता करने वाले कैसे होते हैं. मेरे जैसे या कुछ कवि जैसे…आप की पहली कविता की सहजता ने बंधा और मैं भी याद करने लगा अपने बचपन के दिन जब बिजली जाने के बाद हम शहर के कुछ खास तरह के लोगों कि गिनती करते. संयोग देखिये जैसे ही सात कि संख्या पूरी हो जाती, बिजली आ जाती. हमें लगता ये टोटका है. इसलिए मैं इस कविता कि गहरे में जाये बगैर सतह पर ही रहना चाहता हूँ. दूसरी कविता मुझे खास नहीं लगी. दूसरे शब्दों मैं इसे आपने स्त्री होने के नाते लिखा है, कवयित्री या पत्रकार कि झलक नहीं मिलती. नमस्कार…
    हरीश बी. शर्मा

  2. वर्तिका जी, आपका यह लेख मैनें पढ़ा था। सोच रहा था इस पर कुछ कहूं—मुझे लगता है कि आतंकवादियों के कृत्यों का महिमामंडन ठीक नहीं है। लेकिन साथ ही सवाल यह भी है कि उनके दुष्कृत्यों को जनता तक कैसे पहुंचाया जाय? क्या सिर्फ़ एक छोटी सी न्यूज बनाकर हम जनमानस पर बढ़ रहे आतंकवाद से लड़ने की हिम्मत जुटा सकेंगे?मेरे विचार से इन घटनाओं को कवरेज मिलना चाहिये लेकिन उस समाचर का तेवर हमेशा निन्दात्मक हो न कि उनकी छवि को हीरो बना कर दिखाया जाय। जहां तक पत्रकारों की सुरक्षा की बात है तो इसके लिये भी मंत्रालय को निश्चित रूप से कुछ व्यवस्था करनी ही होगी —अभी मैं प्रदीप सौरभ का उपन्यास मुन्नी मोबाइल पढ़ते हुये स्तब्ध रह गया था–यह जान कर कि उनके साथ गुजरात में क्या क्या किया गया–और उन्हें किस मानसिक यन्त्रणा से गुजरना पड़ा था।

  3. वैसे भी वर्तमान मे मीडिया का परम धर्म टीआरपी हो गया है उन्हें राष्त्र हित गया भाड मे
    प्रणव सक्सेना amitraghat.blogspot.com

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