Description:   

 

Authored by Dr. Vartika Nanda, the book navigates the influence of the market on the media – ranging from public relations to advertising. It is a detailed account of the changing face of the Indian media. Nine journalists, including Shweta Singh from Aaj Tak, have contributed chapters to this book. Foreword has been written by Rahul Dev.

 

Book Release:

Released during the International Book Fair at Pragati Maidan in New Delhi in January 2018, the book deals with the complex interface of the world of media and the market. The book stands highly relevant in today’s age of communication that is driven by commercial interests. The book is beneficial for students of mass communication, journalism, advertising and public relations across universities to help gain a nuanced understanding of the intersection of media and the market in the 21st century. 

 

Ingredients

 

This book provides an in-depth explanation and analysis of the functioning of the Indian media under the influence of growing markets and corporatization. It gives a detailed account of various issues pertaining to media that are driven by commercial interests.

 

Relevance

The text stands relevant for students of journalism and media practitioners alike. It is a fine blend of the media industry and academia that has incorporated balanced inputs from media practitioners and academicians.

 

USP: The text deals with significant focal points of the media industry like ethical dilemmas in media, economic pressures in the newsroom, the blurring lines between editorial and advertising, and the role of vernacular press in the overall growth of Indian media. 

 

Purpose: Since Media Law and Ethics is an important part of the journalism course, this book is intended to bring forth the latest changes in media. Also since there are very few books in Hindi, this book has a wider target audience, especially in the north Indian belt. 

Index: अनुक्रम

 

  1. भूमिकाः मीडिया और बाजार                                         राहुल देव
  2. सम्पादकीय : मीडिया खड़ा बाजार में                           वर्तिका नन्दा
  3. पत्रकारिता और पब्लिक रिलेशनः एक दूजे के लिए -दिलीप मंडल
  4. बाजारवाद और मीडिया                                                 – श्वेता सिंह
  5. मीडिया और लोकतंत्र                                                 – सारिका कालरा
  6. बाजार में सिनेमा                                                           – जयसिंह
  7. विज्ञापन, मीडिया और बाजार                                           रेखा सेठी
  8. चौराहे पर खड़ा सोशल मीडिया जयदीप कर्णिक
  9. खबरों के बाजार में न्यूज एजेंसियां                               प्रियभांशु रंजन
  10. मीडिया के बाजार में उबाऊ और बिकाऊ बागेश्री चक्रधर
  11. नये भारत का मीडिया                                                 – प्रियदर्शन

Details of the book :

Title : Media aur Bazar

Author : Vartika Nanda

Publisher : Samayik Books

ISBN : 78-93-80458-96-0

Year : 2007

Price : Rs. 400

Student Review

Media Aur Bazar

Editor: Dr. Vartika Nanda

Year: 2007

Publisher: Samayik Books 



Dr. Vartika Nanda, through being richly persuasive and in possession of unmatched scholarship, brings a riveting and edifying take on topics hitherto pushed into oblivion: how economic pressures and commercialization (of media channels) continue to influence the news that we see today. 

 

BOOK DESCRIPTION

This book provides a comprehensive explanation and analysis of the functioning of  Indian media under the growing  influence of markets and corporations. It gives a detailed account of various issues pertaining to media, that are driven by commercial interests. This book contends that not only in India, but throughout the world, the existence of free press or independent media exists in harmony with the “bazar”. However, the problem arises when these two entities intersect with each other, overstep their jurisdictions and violate prevalent norms in accordance with their respective conveniences.

 

 THE EDITOR’S DILEMMA 

The tragedy, according to the editor of the book is that the market or the  “bazar” has forced modern media channels to constantly change themselves in order to attract advertisements and to stay relevant. In today’s competitive environment, it seems as if the market has a monopoly on the truth. The narrative set by the “bazar” holds much more importance in comparison to the facts that need to be announced. The book consists of numerous hard-hitting quotes that force the reader to cogitate upon the opportunistic intermingling of media and the corporate sector. One such quote, is as follows: FOREWORD— 

 

इससे बड़ा झूठ और क्या होगा

गाँव में सूखा है और ख़बर में पानी है 

 

In this light, the book delineates the pernicious trajectory of invasive commercialisation and its perceivably lingering consequences for ‘independent’ media. At the same time, the book does not in any way suggest a dissociation of media and bazar. It advocates for a principled distance between the two. 



THE BOOK’S UNIQUE SELLING POINT

What adds to the overall appeal and significance of the book, is the collection of writings by 9 other eminent intellectuals in the field of journalism. Only a few have the capability to combine the vision of a journalistic liberation, with the exact knowledge needed for a precise and workable paradigm shift to deconstruct this ongoing submission. 



RELEVANCE AND PURPOSE 

The range and depth as well as the brilliant arguments set forth by the numerous contributors  in this book, make it an essential treatise for students of journalism and media practitioners alike. It is a fine blend of the media industry and academia that has incorporated balanced inputs from media practitioners and academicians. This book is a compendium of profound insights and is an essential read for those interested in understanding the contemporary media situation.

 

-By Nirvanika Singh

Academic Review

मीडिया और बाजार को समझने के लिए एक जरूरी पुस्तक

संपादक:  डॉ.वर्तिका नन्दा

प्रकाशक: सामयिक प्रकाशन

विधा: पत्रकारिता

मीडिया अब मिशन नहीं रहा। देश-समाज के लिए कुछ कर गुजरने का माध्यम भी नहीं बल्कि अब यह बाजार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। मीडिया में करिअर बनाने वालों के लिए इस मीडिया और बाजार के गठजोड़ को समझना जरूरी है। आप इस किताब को पढ़े बिना आज के मीडिया परिदृश्य को नहीं समझ सकते। मीडिया और बाजार के रिश्ते को नहीं जान सकते।

आज जब हर चीज बाजार से जुड़ गई है तो मीडिया कैसे अछूता रह रह सकता है। मीडिया के स्वरूप, उसके चरित्र और उसकी प्रकृति को जानने समझने के लिए एक बेहतर पुस्तक का होना जरूरी है, इसी जरूरत को पूरा करती है यह मीडिया और बाजार किताब। क्योंकि इस स्वरूप, प्रकृति और चरित्र को जितने बारीक और बेबाक तरीके से सामने रखती है यह वैसा कम से कम हिंदी की पुस्तकों में देखने-पढ़ने को नहीं मिलता है। ऐसा इसलिए हो सका है कि इस पुस्तक के लिए लिखने वाले अपने-अपने विषयों और क्षेत्र के पारंगत अनुभवी और दिशा देने वाले लेखक हैं। अलग-अलग विधाओं पर मीडिया के संपूर्ण खाके  को खींचने वाले ये  लेखक उन पहलुओं पर खुलकर बात करते हैं जिन्हें अक्सर दबाया जाता है। या फिर जिन्हें अब तक इतने मुखर तरीके से सामने नहीं लाया गया है।

किताब की भूमिका वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने लिखी है। भूमिका पढ़कर ही आपको किताब के तेवरों का पता चलने लगता है।  वर्तिका नंदा का संपादकीय  मीडिया को सचमुच बाजार में खड़ा कर देता है ! पुस्तक में कुल नौ अध्याय हैं । पहला अध्याय पत्रकारिता और पब्लिक रिलेशन पर है जिसे जाने-माने लेखक-पत्रकार दिलीप मंडल ने लिखा है। पब्लिक रिलेशन के इतिहास और वर्तमान को  केस स्टडीज के माध्यम से बखूबी समझाया गया है जो मीडिया के छात्रों सहित आम पाठकों के लिए भी महत्वपूर्ण है। दूसरा अध्याय मीडिया और बाज़रवाद पर है जिसे टीवी जगत की मशहूर पत्रकार-एंकर श्वेता सिंह ने लिखा है। टीआरपी, विज्ञापनों का मकड़जाल, लागत और कमाई के संतुलन और असंतुलन, नैतिकता और अनैतिकता के सवाल। और अंत में, पाप, पुण्य, पत्रकारिता पर  टिप्पणी करता यह अध्याय एक इनसाइड विमर्श के रूप में एक नया नजरिया प्रस्तुत करता है। मीडिया और लोकतंत्र अध्याय में, सारिका कालरा ने मीडिया का लोकतंत्र, बाजार, मीडिया की लोकतंत्र के प्रति जवाबदेही और नैतिकता पर विस्तृत लेख-जोखा दिया है। न्यू मीडिया को सारिका कालरा ने  परंपरागत मीडिया के लिए एक चुनौती माना है और उसके स्वरूप-चरित्र पर खुलकर लिखा है।

अगला अध्याय ‘बाजार में सिनेमा’ है जिसे संपादक, लेखक-फिल्म समीक्षक जयसिंह ने लिखा है। सिनेमा को कला मानने में  एक ज़माना लग गया। आज ये एक ऐसा  कला माध्यम है जो अन्य कलाओं पर भारी पड़ चुका है। साथ ही, सबसे महंगा माध्यम भी है। जाहिर है इसको बनाने में मोटी रकम लगती है तो उस रकम को वापस पाने अर्थात मुनाफा कमाने के तरीके भी अपनाए जाते हैं। इन्हीं तरीकों और मॉडलों पर इस अध्याय में विस्तृत चर्चा की गई है। सिनेमा मनोरंजन का माध्यम भले ही माना जाता है लेकिन यह समाज पर अन्य मीडिया के मुकाबले अधिक और गहरा प्रभाव डालता है। अन्य परंपरागत मीडिया के मुकाबले सिनेमा का असर स्थायी होता है। अतः बाजार यहाँ एक महत्वपूर्ण भूमिका में नजर आता है। भारतीय  सिनेमा के मीडिया और बाजार से रिश्ते, विदेशों में भारतीय सिनेमा, भारत में विदेशी सिनेमा और क्षेत्रीय सिनेमा के बाजार पर यह महत्वपूर्ण लेख है। ‘विज्ञापन, मीडिया और बाजार’ अध्याय में विज्ञापन जगत का मीडिया और बाजार से क्या रिश्ता है और उसके सामाजिक, आर्थिक पहलू क्या हैं इस पर गंभीर विमर्श है। इसे लिखा है रेखा सेठी ने।  विज्ञापन की दुनिया का आभासी यथार्थ, जेंडर, बच्चे, विज्ञापन और सेलिब्रिटी कैसे इस सशक्त माध्यम के  टूल बनते हैं, इस पर बेबाक टिप्पणी इस अध्याय की विशेषता है।

सोशल मीडिया आज सर्वाधिक सशक्त माध्यम है जिससे आम आदमी भी अछूता नहीं है।  मीडिया विधयार्थियों को इसकी खूबी-खामियों के बारे में जानने का इस अध्याय से अच्छा स्रोत नहीं हो सकता। जयदीप कर्णिक डिजिटल मीडिया जगत में एक स्थापित नाम है। ‘चौराहे पर खड़ा सोशल मीडिया’ अध्याय में जयदीप ने इंटरनेट के रथ पर सवार इस नए मीडिया के विभिन्न स्वरूपों पर खुलकर बात की है और इसके चरित्र, पहुँच, प्रभाव तथा बाजार में इसके कद को बखूबी समझाया है। बाजार का मतलब खरीद और बिक्री से है। तो क्या सोशल मीडिया भी खरीद-बिक्री का एक उत्पाद है या कहें माध्यम है? इसका जवाब तलाशने में यह अध्याय आपकी सहायता करता है।

पत्रकारिता का एक दौर वह भी था जब यह मीडिया न्यूज एजेंसियों पर ही निर्भर था लेकिन अब दौर बदल चुका है फिर भी, न्यूज एजेंसियों को जानने, उनकी महत्ता, पहुँच, स्वामित्व और इससे भी महत्वपूर्ण यह कि इन एजेंसियों के सामने क्या चुनौतियां हैं, उन्हें समझने के लिए प्रियभांशु रंजन का लिखा अध्याय अहम है। बागेश्री चक्रधर का लिखा अगला अध्याय ‘मीडिया के बाजार में उबाऊ और बिकाऊ’ शीर्षक से है। जो दिखता है वो बिकता है और  मांग-आपूर्ति वाले सिद्धांत को मीडिया बाजार ने उलट-पलटकर रख दिया है। अब मीडिया के बाजार में मांग पैदा नहीं की जाती बल्कि माल की आपूर्ति कर दी  जाती है जिसके बाद मांग को घटाया बढ़ाया जाता है। और इसमें मीडिया अपनी विशिष्ट भूमिका निभाता है। उबाऊ को बिकाऊ बनाने के खेल में अब मीडिया भी एक बाजार बन चुका है। इसी को सामने रखता है यह अध्याय। अंतिम अध्याय ‘ नये भारत का मीडिया’ शीर्षक से है जिसे लिखा है प्रिन्ट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अग्रणी प्रियदर्शन ने। जैसा कि नाम से ही विदित होता है। इस अध्याय में उन्होंने नये भारत में मीडिया के उभरते स्वरूप और चरित्र पर खुलकर बात की  है। बात ही नहीं की है बल्कि कई  गंभीर सवाल उठाए हैं और उनके जवाब भी रखे हैं। पत्रकारिता के खासकर हिंदी भाषी छात्रों के लिए नये मीडिया के प्रत्येक पहलू को जानने की दृष्टि से, यह एक महत्वपूर्ण अध्याय है।

कुल मिलकर, वर्तिका नंदा के सम्पादन में, ‘मीडिया और बाजार ‘पुस्तक जनसंचार और पत्रकारिता के सभी माध्यमों पर विशेषज्ञों के स्पष्ट, बेबाक, अर्थपूर्ण और व्यावहारिक दृष्टिकोण का दस्तावेज है।

जयसिंह

(पत्रकारिता एवं मीडिया क्षेत्र में तीन दशक से अधिक का अनुभव। भारतीय सिनेमा का सफरनामा, सिनेमा बीच बाजार, जीरो माइल अलीगढ़ और सजनवा बैरी हो गए हमार: गीतकार शैलेन्द्र- चार पुस्तकें प्रकाशित। प्रमुख हिंदी समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सिनेमा, टेलीविजन और साहित्य पर 1000 से अधिक लेख, साक्षात्कार प्रकाशित। आकाशवाणी से दर्जनभर रेडियो वार्ताओं का प्रसारण। एन. चंद्रा की फिल्म बनने से पहले की दो फिल्म पटकथाओं- ‘हंगामा है क्यों बरपा’ और ‘अब के हम बिछड़े तो’ सहित विभिन्न विधाओं की 100 से अधिक पुस्तकों का संपादन। वर्तमान में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के एक साप्ताहिक समाचार पत्र में संपादक के रूप में कार्यरत। विज्ञान स्नातक, हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर और भारतीय जन संचार संस्थान से पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा। पत्रकारिता की शुरुआत अलीगढ़ से एक क्राइम रिपोर्टर के रूप में। एक लघु फिल्म का निर्माण, लेखन-निर्देशन। भारतीय सूचना सेवा से संबद्ध।)

Press Coverage of Media aur Bazar :

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