नवंबर का महीना भारत के सबसे पॅापुलर माने जाने वाले टीवी सीरियल क्योंकि सास भी कभी बहू थी की विदाई लेकर आ रहा है। दरअसल 1984 और 2000- ये दोनों साल भारतीय एंटरटेंनमेंट मीडिया के यादगार सालों के रूप में दर्ज रहेंगें। 1984 में दूरदर्शन पर हम लोग का आगाज हुआ और 2000 में स्टार प्लस पर क्योंकि सास भी कभी बहू थी की शुरूआत ।
80 के दशक में घिसटते अंदाज मे चल रहे दूरदर्शन के लिए मनोहर श्याम जोशी का लिखा धारावाहिक हम लोग मील का पत्थर साबित हुआ था क्योंकि कृषि दर्शन सरीखे एक ढर्रे पर चले आ रहे कार्यक्रम देख कर आजिज हो चुकी जनता का इस धारावाहिक के जरिए तकरीबन पहली बार खुद अपने से वास्ता पड़ा था। यह उस दौर का पहला ऐसा धारावाहिक था जो 13 एपिसोडों में समेटने की बजाय 17 महीनों तक चला और इसे भारत की करीब 70 प्रतिशत जनता ने देखा। मतलब यह कि इसके हर एपिसोड को करीब 5 करोड़ लोग देखा करते थे।
आम लोगों के लिए बुना गया यह धारावाहिक जनता से जुड़ा था और बिना नसीहत देते हुए इसने जनहित से जुड़े मुद्दों को बड़े करीने से जनता के सामने रखा। जनसंख्या विस्फोट, शराबखोरी, अशिक्षा, अंधविश्वास, भ्रूण हत्या, बेरोजगारी, अपराध, बाल विवाह जैसे तमाम मु्द्दों को इस धारावाहिक में पिरोया गया था और हर धारावाहिक के अंत में आते थे – खुद अशोक कुमार और तमाम सामाजिक सरोकारों के बाद उनकी आखिरी पंक्ति हुआ करती थी- अब क्या करेंगें हम लोग। बेशक आज के संदर्भों में धारावाहिक की प्रोडक्शन क्वालिटी को चौपट कहा जा सकता है लेकिन यह एक ऐसा कछुआ साबित जरूर हुआ जो धीमा और अनाकर्षक होते हुए भी रेस में जीत गया। इसका एक सबूत यह भी है कि इस धारावाहिक ने टीवी सेट खरीदने वालों की भीड़ ही लगा दी। उन दिनों भारत की आबादी करीब 800 मीलियन थी और टीवी सेट था – महज 10 प्रतिशत आबादी के पास।धारावाहिक के दौरान और उसके बाद भारत में टीवी खरीदने वालों की जैसे बाढ़ ही आ गई।
अब बात बालाजी टेलीफिल्म्स के धारावाहिक क्योंकि सास भी कभी बहू थी की। आठ साल की लंबी पारी खेलने के बाद यह धारावाहिक नवंबर में सिमटने जा रहा है। एकता कपूर के इस धारावाहिक को गुजरात के विरानी परिवार के आस-पास पिरोया गया। हम लोग ने जहां बसेसर राम, भागवंती, लल्लू, बड़की, छुटकी और नन्हे को सुपर स्टार बनाया, वहीं क्योंकि ने तुलसी, मिहिर, सविता और गायत्री को दर्शकों का प्रिय बना दिया। क्योंकि ने भी कई मुद्दों को उठाया- विवाहेतर संबंध, अनचाहे गर्भपात, भटकते युवा और टूटती वर्जनाओं को इस धारावाहिक में बखूबी दिखाया गया लेकिन साथ ही आलोचक यह भी कहते सुने गए कि यह धारावाहिक इन्हें रोकने के बजाय इन्हें अपनाने के लिए प्रेरित करता हुआ ज्यादा दिखा।
फिर हकीकत से परे होने के संकेत भी दिखे। हम लोग के लोग आम थे और दिखते भी आम थे। इसकी नायिका भागंवती घर में जगह की कमी की वजह से रसोई में सोती थी जबकि क्योंकि कारपोरेट परिवार का सीरियल रहा। इसकी नायिकाएं अव्वल तो रसोई में दिखती नहीं थीं और अगर गलती से दिख भी जातीं तो पूरे मेकअप और भारी गहनों के साथ। इस धारावाहिक ने मृत्यु के बाद किरदार को लौटा लाने की परंपरा भी शुरू की जिसके आगे भी अपनाए जाने के आसार हैं। जहां हम लोग भारत का पहला ऐसा धारावाहिक बना जिसे विज्ञापन मिला और जब तक क्योंकि की बारी आई, भारतीय सोप ओपेरा विज्ञापनों की धूम में पूरी तरह से नहाए दिखने लगे।
लेकिन इन दोनों धारावाहिकों में एक तथ्य आम रहा। वह था – संयुक्त परिवार की परंपरा। दोनों ही धारावाहिकों ने भारतीय परिवारों के इस टूट रहे हिस्से पर ही अपने पूरे कथानक को खड़ा किया।
बहरहाल हम लोग की तरह अब क्योंकि के बिस्तर समेटने की बारी है। लेकिन यह साफ है कि क्योंकि की विदाई यह भी साबित करती है कि बिकता वही है, जो जनता चाहती है और जनता के लिए अहम है – परिवार। लेकिन सच यह भी है कि जनता अब सास-बहू की किचकिच से कहीं आगे जाने की तैयारी करने लगी है। इसलिए अब बारी धारावाहिक लेखकों और निर्माताओं के सोचने की है।
4 Responses
आपने बहुत अच्छा िलखा है ।
http://www.ashokvichar.blogspot.com
17 महीनों तक चला और इसे भारत की करीब 70 प्रतिशत जनता ने देखा। मतलब यह कि इसके हर एपिसोड को करीब 5 करोड़ लोग देखा करते थे।
बाकि सब तो अच्छा है पर ये गणित समाज नहीं आई मैडम
‘हमलोग’ सत्तर के दशक के युवा आक्रोश की समाप्ति और परिपक्व रूप से हालातों के विश्लेषण की तरफ़ बढे क़दमों का दस्तावेज था जो ‘नीम का पेड़’ तक चला.
फ़िर मनमोहनी उदारवाद आया, टूटते मूल्य और मध्यवर्ग के कुंठित सपनों को सामने लाने का काम ‘एकता कपूर ब्रांड’ सीरियलों ने किया, इन्होने भारतीय उच्च मध्यवर्गीय महिलाओं में भी वही चरित्रगत कमजोरियां दिखाईं जिनसे आमतौर पर अभी तक पुरुषों को ही ग्रस्त माना जाता था. इन सीरियलों में नारी को ज्यादातर डार्क शेड में दिखाया गया, ईर्ष्या, लालच, दूसरी महिलाओं के पतियों/प्रेमियों पर मर मिटना, साजिश, बदले की भावना, धोखा, बेवफाई वगैरह वगैरह.
यूं तो पूरा आलेख जानकारी ही प्रदान करनेवाला है , पर आपकी आखिरी पंक्ति मुझे बहुत अच्छी लगी कि जनता अब सास-बहू की किचकिच से कहीं आगे जाने की तैयारी करने लगी है। इसलिए अब बारी धारावाहिक लेखकों और निर्माताओं के सोचने की है। उन्हें सोचना ही पडेगा।