ऐसा कई बार होता है कि जो असल में खबर होती है, वह खबर नहीं बनती और नाकाबिल खबर बड़ी खबर की तरह उछल कर सामने खड़ी हो जाती है। ताजा मिसाल है- फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी की घोषणाएं। सरकोजी ने हाल ही में कुछ अहम घोषणाएं की हैं। सबसे अहम घोषणा यह है कि फ्रांस के जो युवा इस साल अपना 18वां जन्म दिवस मनाएंगें, उन्हें अपनी पसंद का एक अखबार मुफ्त में दिया जाएगा और उस अखबार की कीमत सरकार चुकाएगी। इसके अलावा देश की अखबारों की बिगड़ती सेहत को चमकाने के लिए एक नौ-सूत्री कार्यक्रम की योजना बना दी गई है जिसके तहत अखबारों को मिलने वाले विज्ञापनों में दोगुना बढ़ोतरी शामिल है। सरकार अब अखबारों और पत्रिकाओं को फिलहाल मिलने वाली 80 लाख यूरो की राशि को बढ़ा कर 7 करोड़ यूरो करने जा रही है। इसके अलावा वह प्रिंट को दिए जाने वाले विज्ञापनों पर 2 करोड़ यूरो अतिरिक्त खर्च करने जा रही है। इन प्रयासों के अलावा प्रिंट पर लगने वाली फीस की कुछ दरों में भी कटौती की जाएगी।

सरकोजी ने यह तमाम घोषणाएं एक ऐसे समय में की हैं जबकि पूरी दुनिया पर मंदी का साया है। इस साये में दूसरे व्यापारिक प्रतिष्ठानों की ही तरह मीडिया की तरफ से भी यह आवाजें गूंजने लगी हैं कि मंदी का उन पर गहरा असर पड़ रहा है। वैसे फ्रांस के संदर्भ में देखा जाए तो उनका यह फैसला उनके आलोचकों को एक बार फिर यह कहने का मौका दे सकता है कि वे मीडिया मालिकों से अपनी करीबियत बढ़ाने के लिए आमादा हैं और इसके जरिए वे उन पर अपना प्रभाव और दबाव-दोनों ही बढ़ाना चाहते हैं। लेकिन आलोचना चाहे जो भी हो, सरकोजी की इन घोषणाओं ने कम से कम फ्रांस में मुरझाने से लगे प्रिंट उद्योग को एक नई गुलाबी तो दे ही दी है।

लेकिन सरकोजी का एक कदम खास तौर पर काबिलेतारीफ है। अपने 18वें साल में प्रवेश कर रहे नवयुवकों को एक साल के लिए अपनी पसंद की किसी अखबार को मुफ्त में पाने की उनकी इस पहल के कई दूरगामी असर होंगे। इस समय जबकि पूरी दुनिया में इस पर चिंतन होने लगा है कि युवा प्रिंट से दूर होता जा रहा है, ऐसी कोशिश उस दूरी को कम करने की कुछ कोशिश यकीनी तौर पर करेगी। साथ ही इससे प्रिंट को भी एक ताकत तो मिलेगी ही। अगले कुछ सालों में जब यह पीढ़ी पूरी तरह से अपने पांवों पर खड़ी होगी, तब इस पीढ़ी का प्रिंट की तरफ सम्मान (या फिर रूझान ही सही) का रवैया अगली पीढ़ी में भी प्रिंट के बदस्तूर टिके रहने को सुनिश्चित कर देगा।

पूरी दुनिया में, खासकर पश्चिमी देशों में अखबार पढ़ने वाले कम से कम 5 प्रतिशत की वार्षिक दर से घट रहे हैं। इस मामले में भारत की बात जरा दूसरी है। भारत का समाचार पत्र उद्योग चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा समाचार पत्र उद्योग है। यहां नव साक्षरों की तादाद अभी भी बढ़ रही है और साथ ही एक बड़े लोकतंत्र के होने की वजह से भी टीवी की तमाम धमाचौकड़ियों के बावजूद प्रिंट का वर्चस्व आज भी हिंदुस्तान में कायम है। यही वजह है कि तमाम मंदियों और धमाकों के बावजूद भारत में आज भी रोज नए अखबार या पत्रिकाओं के प्रसव का दौर चल रहा है। वर्ल्ड प्रेस ट्रेंड(2008) के आंकड़ों के मुताबिक 2004 में भारत में 3,800 पत्रिकाएं छप रही थीं और 2007 में इनकी संख्या उछलकर 6,300 पर जा पहुंची। जाहिर है कि भारत में समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की संख्या बढ़ रही है लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि प्रिंट के लिए यह प्रेम सदाबहार रहेगा। पिछले कुछ सालों में पत्रिकाओं को पढ़ने वालों की संख्या में तेजी से कमी आई है। अकेले भारत में पत्रिकाओं को पढ़ने वालों की तादाद साढ़े सात करोड़ से घट कर छ करोड़ 80 लाख तक आ पहुंची है। कहने को कहा जा सकता है कि टीवी और इंटरनेट की चौबीसों घंटे की मौजूदगी ने पत्रिकाओं को पढ़ने के समय को कम कर दिया है लेकिन इसे इस बदलाव की इकलौती वजह कतई नहीं माना जा सकता और न ही इस सच को स्वीकारने से परहेज होना चाहिए कि नई पीढ़ी का पढ़ने के प्रति रूझान सूख रहा है।

बहरहाल फ्रांस की बात हो रही थी। लगता है कि फ्रांस में जिस बदलाव की तरफ इशारा किया गया है, उससे भारत को भी सबक लेना ही चाहिए। भारत में इस समय हिंदी पत्रिकाओं का बाजार सिमट रहा है। न्यूज और सामयिक विषयों पर गिनी-चुनी पत्रिकाएं ही बाजार में बची हैं और इनमें भी एक प्रमुख पत्रिका हाल ही के दिनों में साप्ताहिक से मासिक कर दी गई और उसके संपादक और कई वरिष्ठ पत्रकार पत्रिका को छो़ड़ कर एक नई अखबार से जा जुड़े। खबर यह है कि यह पत्रिका भी बस अब बंद होने के मुहाने पर खड़ी है। साहित्यिक पत्रिकाओं को तो वैसे भी राम-रहीम भरोसे चलने की आदत रही है। साहित्यिक पत्रिकाएं अब भी 1000 से ज्यादा प्रतियां छपाने का साहस जुटा नहीं पातीं।

समाचार पत्रों का बाजार इस बीच फला-फूला जरूर लेकिन यहां भी अब कंटेट इज दी किंग की बजाय पैसा इज दी किंग का नारा जपा जा रहा है। रिपोर्टर विज्ञापन लाने में जुटते हैं और संपादकीय लिखने के लिए रखे गए लोग इस फिराक में कि समाचार पत्र समूह को कहां से धनलक्ष्मी मिल सकती है और इन सबके बीच मंदी के बहाने कई समाचार पत्रों से लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया तो संदेश यह भी गया कि अब टिके रहने की एक बड़ी शर्त यह होगी कि आप पूंजीपति की पूंजी में मुनाफा करने के काबिल हैं या नहीं। मंदी का जोर भारत में भी है। मंदी वाकई उतनी गहरी है जितना दिख रही है या फिर यह सब बहाना है, यह सोचने की बात है। लेकिन इतना जरूर है कि मंदी के मौसम में कई अखबारों में अच्छे से अच्छे धुरंधर पत्रकारों की छुट्टी कर दी गई है। इसमें गौर करने की बात यह कि पत्रकारों की इस स्थिति पर कहीं कोई सुगबुगाहट भी दिखाई तक नहीं दे रही। कहा यह जा रहा है कि मंदी के चलते प्रिंट उद्योग पेरशानी में है, इसलिए अखबारों के दफ्तरों में जमी अतिरिक्त चर्बी को बाहर किया जाना निहायत जरूरी है।

तो मुद्दा यह है कि जिस पत्रकारिता का काम मिशन था और सामाजिक हितों की रक्षा करना था, वह पूंजीपतियों की कठपुतली बनने लगा है। अब मिशन की जगह कमीशन ने और सामाजिक हितों की जगह स्वांत: सुखाय ने ले ली है। ऐसे में असल पत्रकारिता है कहां?

लेकिन अगर सरकारी स्तर पर भारत में भी प्रिंट मीडिया को पैसे का ग्लूकोज दिया जाए तो शायद स्थिति बदले। यहां यह देखना होगा कि ग्लूकोज की डोज अपनी सीमा न लांघे और न ही मीडिया उसका आदी बन चले। यह भी कि डोज ऐसी न हो कि लेने वाला देने वाले के महिमामंडन को ही पत्रकारिता समझने की भूल कर बैठे।

(यह लेख 5 फरवरी को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

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4 Responses

  1. तो मुद्दा यह है कि जिस पत्रकारिता का काम मिशन था और सामाजिक हितों की रक्षा करना था, वह पूंजीपतियों की कठपुतली बनने लगा है। अब मिशन की जगह कमीशन ने और सामाजिक हितों की जगह स्वांत: सुखाय ने ले ली है। ऐसे में असल पत्रकारिता है कहां?

    बहुत सही कहा आपने……

    फ्रांस की सरकार ने बड़ा ही सराहनीय कार्य किया है(आपका आलेख न पढ़ती तो यह पता भी न चलता,सो आपका बहुत बहुत आभार) और हमारी सरकार को भी प्रिंट मिडिया को बचाने के लिए सकारात्मक कदम उठाने चाहिए….

  2. फ़िर से एक शानदार लेख
    फ्रांस में की गई पहल के बारे में पढ़ के अच्छा लगा om

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