राम और सीता की आरती उतारते दर्शक। वनवास गमन की घटना देखते ही गमगीन होते दर्शक और राम की हर जीत को देखने को बेकरार। खाली सड़कें, लोगों से लदे-फदे टीवी लगे कमरे। यह तस्वीरें उस दौर में आम थीं जब रामायण धारावाहिक दूरदर्शन पर प्रसारित होता था। अब रामायण के लिए पूरे हफ्ते के इंतजार की जरूरत नहीं और न ही शांति की तलाश में रविवार दर रविवार नए आश्रमों की खोज करने की। अब ये सब रिमोट में बंद हैं। भला हो उन चैनलों का जो आध्यात्म को चौबीसों घंटे परोसने लगे हैं। इन्हें देखने वाली जनता के लिए इससे बड़ा सौभाग्य और क्या होगा कि ईश्वर-भजन कभी भी सुनने को मिल जाए!
मीडिया पर पैनी नजर रखने वाले विश्लेषकों के लिए यह शायद हैरानी की बात रही कि जब वे न्यूज मीडिया को राजनीति, अपराध, खेल और व्यापार के बदलते समीकरणों के हिसाब से भरने में लगे थे तो बाजार के दूसरे छोर में अध्यात्म लहर तेजी से बह गई।
अभी 2005 की ही बात है जब एक नामी आध्यात्मिक चैनल ने बाबा रामदेव को अपने चैनल का अमिताभ बच्चन बताया था। जिस दौर में न्यूज मीडिया अपने हथियारों को पैना और खुद को सबसे तेज-स्मार्ट साबित करने में मशगूल रहा, उसी दौर में हौले-हौले एक नए अवतार का जन्म हुआ जिसका नाम था-आध्यात्म। 2005 में ही अमरीका की बेहद प्रतिष्ठित डिजिटल टेलीविजन सर्विस प्रोवाइडर- डायरेक्ट टीवी, इंक ने भारत के एक आध्यात्मिक चैनल को डायरेक्ट टीवी चैनल पर उपलब्ध कराने की बहुत धूमधाम से घोषणा की। इस मौके पर डायरेक्ट टीवी के उपाध्यक्ष का बयान था कि इस तरह के चैनल अमरीका में बसे लेकिन दक्षिण एशिया से किसी भी तरह का सरोकार रखने वाले लोगों को वहां की संस्कृति और समाज से जोड़े रखने के लिए सेतु का काम कर सकते हैं लेकिन तब कौन जानता था कि सात समंदर पार ही नहीं बल्कि पास के गली-मोहल्लों में चौपाल लगाए लोगों से लेकर पेज थ्री की थिरकती बालाओं का भी इन चैनलों पर अपार प्रेम उमड़ आएगा।
आंकड़ों का खेल भी इन चैनलों के ऊपर चढ़ते ग्राफ को साबित करता है। टैम की ताजा रिपोर्ट कहती है कि 2004 की तुलना में 2005 में आध्यात्मिक चैनलों की दर्शक-संख्या में पांच गुना बढ़ोतरी हुई। म्यूजिक चैनलों की तरह आध्यात्मिक चैनलों के दर्शक राष्ट्रीय स्तर पर कम से कम एक प्रतिशत तो हैं ही। जहां तक विज्ञापनों का सवाल है तो अप्रैल 2005 से मार्च 2006 के बीच अकेले आस्था चैनल के विज्ञापनों में ही 75 प्रतिशत तक का इजाफा रिकार्ड हुआ। ज्यादातर आध्यात्मिक चैनलों के प्राइम टाइम(सुबह 4 से 9 बजे) स्लाट के विज्ञापनों की दर भी 200 रूपए प्रति 10 सेकेंड से बढ़ कर 600 रूपए तक आ पहुंची है।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इन्हें देखने वाले पके बालों और झड़े दांतों वाले ही हैं। शोध कहते हैं कि इनके 55 प्रतिशत दर्शकों की उम्र 35 पार है लेकिन बाकी का आयु वर्ग 15 से 24 का ही है। मजे की बात यह कि इन चैनलों को देखते हुए दर्शक बाकी चैनलों की तरह हड़बड़ाहट से भरे नहीं दिखते। मिसाल के तौर पर सबसे लोकप्रिय कार्यक्रमों में से एक राम कथा 4 घंटे लंबा कार्यक्रम है। जाहिर है कि यह अवधि बालीवुड की किसी फिल्म से भी ज्यादा है। इसके बावजूद बड़ी तादाद में एक समर्पित वर्ग टिककर इसे देखता-सराहता है।
संकेत साफ हैं। बाजार का स्वाद, दशा और दिशा बदल रही है। धर्म और आध्यात्म टीआरपी की कतार में दिखने लगे हैं। लोगों की रूचियां बदली हैं और एक ही परिपाटी में पकाए जा रहे समाचारों, कार्यक्रमों और धारावाहिकों से जनता का मन ऊबने लगा है। जाहिर है कि न्यूज और व्यूज से घिरे मीडिया के लिए अध्यात्म की ये नई दुकानें एक अनोखी चुनौती लेकर सामने आई हैं।
अभी कुछ साल पहले तक धर्म और आध्यात्म के बंधे-बंधाए मायने थे। फार्मूला आसान था- भजन-कीर्तन, माथे पर टीका और हाथ में कमंडल। उम्र के आखिरी स्टेशन पर आकर उस परमशक्ति को मन भर याद करने की पुरातनी परंपरा। कम से कम भारतीय युवा पीढ़ी के लिए तो धर्म इसी परिधि के आस-पास की चीज थी। लेकिन अब नई सदी में धर्म के तयशुदा मुहावरे पलट दिए गए हैं। अब धर्म आधुनिक हुआ है और उसके तौर-तरीके भी। 50 साल पहले भारत में जन्मे बुद्दू बक्से ने जब सुबह से लेकर शाम की दिनचर्या ही बदल डाली तो धर्म का भी अछूता रहना मुश्किल तो था ही। जिस तरह खान-पान सिर्फ दाल-चावल तक सीमित नहीं रह गया है, उसी तरह टेलीविजनी धर्म भी अपना अपना दायरा बढ़ा कर आस्था, संस्कार, साधना, जीवन,सत्संग, मिराकल नेट, अहिंसा, गाड टीवी, सुदर्शन चैनल, अम्मा, क्यूटीवी, ईटीसी खालसा जैसे कई नाम लेने लगा है। आध्यात्मिक चैनलों का दावा है कि इस समय ढाई करोड़ से ज्यादा आबादी इन्हें देखती है जो कि इस देश में केबल कनेक्शन वाले घरों का करीब आधा है।
आस्था जैसे चैनल गंगोत्री से लेकर दक्षिण भारत तक धार्मिक यात्राओं को कवर कर रहे हैं तो आस्था अंताक्षरी जैसे कार्यक्रमों पर बात कर रहै है। संस्कार जैसे चैनल दावा कर रहे हैं कि उसकी दर्शक संख्या 1 करोड़ के आंकड़े को कब की पार कवर कर चुकी है। लक्स, ईमामी, अजंता समेत 43 ब्रांड उसके साथ भागेदारी कर रहे हैं। आस्था की किट्टी में 40 गुरूओं का जमावड़ा है। सबके अपने-अपने साज, अपने-अपने राग हैं और इसके चलते चैनल को मजे से रोजाना 18 घंटे की खुराक मिल जाती है जोकि कोई खेल नहीं।
बाहरी प्रवचनों के अलावा अब यह चैनल अब इन-हाउस नए भजनों को बनाने-बजाने को खूब तरजीह देने लगा है। जागरण चैनल खुद को सामाजिक-आध्यात्मिक चैनल साबित करने की होड़ में है। इनके पास अयूर जैसे विज्ञापनदाता भी हैं और मसाले बनाने वाले भी। इनकी सूची में ओशो, श्री सत्यसाईं बाब, मुरारी बापू, गुरू मां और मृदुल कृष्णजी का नाम काफी ऊपर आता है। इनकी रूचि धार्मिक फिल्में दिखाने में भी है। 2003 से चल रहा गाड चैनल ईसाइयों से जुड़े कार्यक्रमों को अहमियत देता है। 2002 में शुरू किया गया मिराकल नेट ट्रनिटी ब्राडकास्टिंग नेटवर्क की उपज है। बेनी हिन और केनेथ कोपलैंड यहां खूब देखे-सुने जाते हैं। इनका मानना है कि सेहत और समृद्धि सभी का अधिकार हैं। बाइबल में विश्ववास रखने वाले यह प्रचारक वर्ड फेथ थियोलाजी में अटूट विश्वास रखते हैं। इनका मानना है कि आंतरिक विश्वास के जरिए ईश्वर से अपनी सभी इच्छाएं पूरी करवाई जा सकती हैं।
ईसाई आध्यात्मिक जरूरत पर आधारित गुड न्यूज टीवी तमिलनाडु में खासा लोकप्रिय है। इसमें बच्चों के लिए भी आध्यात्मिक डोज है। ऐसा नहीं है कि यह चैनल धर्मगुरूओं के दायरे तक ही सीमित बल्कि अब इन चैनलों ने नए तरह के कार्यक्रम भी तैयार करने शुरू कर दिए हैं। यहां धार्मिक एनिमेशन से लेकर ध्याननगाने की विधियां, व्रत का खान-पान, सात्विक भोजन से लेकर शांत जीवन तक पर कार्यक्रम और डाक्यूमेंटरी देखी जा सकती हैं। और तो और यहां फिल्मी सितारों की भी कमी नहीं।
इन चैनलों पर अब कुंभ मेले, गणेश चतुर्थी, नवरात्रे से लेकर गुरूबाणी और गरबे तक तरह-तरह के लाइव टेलीकास्ट की भरमार देखी जा सकती है। गौर की बात यह भी कि इन्हें देखने वाले चैनल की तकनीकी कमियों को आराम से नजरअंदाज कर देते हैं। यहां भक्ति सर्वोपरि रहती है, खामियां नहीं। ईटीवी मराठी जब अष्टविनायक दर्शन कराते हुए दर्शकों के नाम से अभिषेक करवाता है तो दर्शक उसमें झूम उठता है और घंटों बिना रिमोट बदले उनमें लीन रहते हैं।
मामला यहीं नहीं सिमटता। एक टेलीकाम कंपनी मोबाइल फोन पर आध्यात्मिक चैनल शुरू करने जा रही है। इसके जरिए व्यस्त उपभोक्ता मोबाइलपर ही पूजा-अर्चना कर सकेंगें। इसमें हनुमान, गणेश, थिरूपति बालाजी से लेकर राम, लक्ष्मी, सरस्वती, ईसा मसीह, गुरू नानक और साईंबाबा तक सभी के संदेशों का समावेश होगा। इस हैंडसेट में हर भगवान के लिए अलग रंग औऱ अलग तस्वीर का प्रावधान होगा ताकि अपनी पसंद(या अपने काम के) भगवान की गूंज को डाउनलोड किया जा सके। यानी दिनभर भागते-भागते पूजा भी कीजिए और पुण्य भी कमाइए(पैसा कमाने का काम कंपनी पर छोड़ दीजिए। अब हाईटेक शादियों पर भी काम होने लगा है। टीवी पर ही अपनी कुंडली मिलवाइए और नक्षत्रों तक को फुसलाकर शादी करवा लीजिए।सबके पैकेज तैयार हैं।
हर चैनल के पास अपनी तरकीबें हैं। एक चैनल ने एसएमएस के जरिए आशीर्वाद देने का चलन शुरू किया। किसी खास दिन की शुरूआत या शादी की बात करने से पहले आप अपने पसंदीदा गुरू से जानना चाहते हैं कि वह दिन कैसा है तो आप एक खास नंबर पर एसएमएस कीजिए और अपने प्रिय गुरू से फटाफट अपने दिन का रिपोर्ट कार्ड ले लीजिए। कई चैनल यह दावा करते हैं कि ऐसी तकनीकों वाले कार्यक्रमों के लिए उन्हें एक दिन में आम तौर पर 20,000 एसएमएस तक आते हैं। ऐसे कार्यक्रमों की धमक अब अमरीका और यूरोप में भी सुनाई देने लगी है।
जी जागरण ने 2006 में राम वनवास पर जांह जांह राम चरण चलि जांहि एक डाक्यूमेंटी बनाई। 25 वैन रामायण धारावाहिक के राम अरूण गोविल के साथ देश के 11 शहरों में अभियान चला। लोगों से राम से जुड़े सवाल पूछे गए और प्रतियोगिता जीतने वालों के लिए ईनाम में दी गई- राम चरण पादुका जिसके बारे में दावा किया गया कि इसे अयोध्या की माटी से बनाया गया है।
इसी तरह कुछ चैनलों में भजनों और देश भक्ति के गानों की अंताक्षरी भी चलती है। लेकिन साथ ही बदलाव भी होते रहते हैं। अब कुछ चैनल अपने को आर्ट आफ लिविंग से जोड़ रहे हैं तो कुछ अपने को आध्यात्मिक लाईफ स्टाइल चैनल कहलाने की तैयारी कर रहे हैं।
अभी एक दशक पहले ही टेलीविजन पर जब आध्यात्म के प्रयोग की बात उठी थी तो लोगों ने इसे धार्मिक गायन से जोड़ कर एक बोरिंग अवधारणा मान लिया था। लेकिन एकाएक गुरूओं की ऐसी स्मार्ट फौज उपजी कि धर्म का बाजार एकाएक अत्याधुनिक दिखाई देने लगा। अब बहुत से घरों में बुजुर्ग खाली समय में विनोम-अनुलोम करते दिखते थे। पेज थ्री की बालाएं भी योग के नुस्खे आजमाने का कोई अवसर नहीं छोड़तीं। आध्यात्म के इस नए फंडे ने रोजगार के अवसर चौगुने कर दिए हैं। फेंगशुई से लेकर वास्तुशास्त्र, स्टोन, धातुओं और ग्रहों के नौसिखिए विशेषज्ञों की दुकानें भीचमकने लगी हैं।जनता के पास इनकी डिग्रीयां तक देखने का समय नहीं हैं। अंग्रेजी के वर्चस्व वाले बेसिर-पैर के संगीत बेचने वाले म्यूजिक स्टोरों में भी राक की टेप के साथ विराजमान दिखता है- योग का हिंदी और अंग्रेजी में अनुवादित टेप। यानी धर्म अब फास्टफूड की तरह जायका बदलने का साधन बनने लगा है। यह एक ऐसी लालीपाप है जिसे चूसने के फायदे ही फायदे हैं।मजे की बात यह कि अब हाई सोसायटी में भी काफी हद तक योग की बात होने लगी है। स्पा और मसाज सेंटरों की शौकीन किट्टीपार्टीनुमा रबड़-सी घिसी महिलाएं भी अब बाबा लोगों की हिंदी को समझ कर इसे थोड़ा-बहुत अपनाने लगी हैं। यानी इससे हिंदी का भी उद्धार हुआ है।
लेकिन सोचने की बात यह है कि अचानक इसकी लहर चली कैसे और यह बाजार हिट क्यों हुआ? दरअसल मामला है- पैकेजिंग और सही जरूरत पर वार करने का। छरहरी काया के लिए हिंदुस्तानी बाजार में सब कुछ चलता है। दुबलापन दिलाने का दावा करने वाली कई असली-नकली कंपनियों के कारोबार के बीच यह योग महारथी समझ गए हैं कि यह आम भारतीय की सबसे कमजोर नब्ज है। फिर बारी आती है- दिल, दिमाग और खान-पान की चुस्ती की। योग के फारमूले वही रहे लेकिन टारगेट बना- दिल, मोटापी, मधुमेह या फिर रक्तचाप। फिर बाबाओंने अपना मेकओवर किया। वे संस्कृतनिष्ठ, गुस्सैलस नखरेवाले नहीं बल्कि स्मार्ट, अंग्रेजी समझने-बोलनेवाले,टीवी की जरूरत के अनुरूप तेजी से अपनी बात कह देने वाले हंसमुख और मदमस्त पैकेज के रूप में सामने आए तो बस मैदान पर फतह पाते ही गए। फास्टफूड की तरह जिंदगी के सुख भी आसानी से हासिल कर लेने की तरकीबें बताई गईं, खुलकर हंसना सिखाया गया, अपने शरीर से प्रेम के पाठ दोबारा याद कराए गए। सदियों से प्रमाणित योग को आसमान की बुलंदी छूते जरा देर न लगी। गुरू लोग समझ गए कि सास-बहू की चिकचिक से ऊब रही जनता के लिए आध्यात्म एक हिट नुस्खा है।
भारत में आध्यात्मिक चैनलों ने 2001 में कदम रखा। एक तरफ मनोरंजन प्रधान या न्यूज प्रधान चैनलों को शुरू करने में जहां करीब 200 करोड़ रूपए की लागत आती है, आध्यात्मिक चैनल करीब 10 करोड़ की लागत पर ही शुरू किए जा सकते हैं। जाहिर है इन चैनलों को आकार देने में बड़ी पूंजी का निवेश नहीं करना पड़ता। यह एक ऐसी नई दुकान है जो कि टीवी न्यूज चैनलों पर भारी पड़नेलगी है(इसलिए याद कीजिए न्यूज चैनलों पर अबये गुरू खूब दिखाई देते हैं और दिखती है उनसे जुड़ी न्यूज भी लेकिन क्या आप कभी आध्यात्मिक चैनलोंमें न्यूज चैनलवालों का एक अंश भी देख पाते हैं? इससे साबित होता है-न्यूज वालों को इनकी जरूरत हो सकती है लेकिन इन्हें न्यूज वालों की शायद वैसी जरूरत नहीं। ) मिशन और कमीशन के बीच झूलते ये चैनल सामाजिक प्रतिष्ठा बटोरनेके साथ ही तिजोरी भरने में भफरूर सफल रहे हैं। इसलिए ये नए प्रयोगों से डरते नहीं, उन्हें तुरंत लपकते हैं।
लेकिन यहां यह भी दिलचस्प है कि इन चैनलों पर छाने के लिए ज्यादातर धर्मगुरूओं को चैनल को अच्छी-खासी रकम देनी पड़ती है। शुरूआती दौरमें ही चैनल मालिकों ने दलील दी कि हमारे दर्शक धर्म की गूढ़ बातों के बीच में विज्ञापनों की भीड़ देखना पसंद नहीं करेंगें। धर्म में व्यावधान जितना न हो, उतना ही अच्छा। इसलिए विज्ञापनों की एक सीमा होगी। ऐसे में गुरूओं को अपनी फीस ।चुकानी होगी। इसलिए रातोंरात स्टार बने दिखते बहुतसे गुरूओं ने इस स्टारडम की मोटी दक्षिणा भी दी है और इस दक्षिणा में लगातार बढ़ोतरी हो रही है।
लेकिन इन गुरूओं की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं।
तकरीबन हर गुरू के पास अपना जनसंपर्क अधिकारी है, वेबसाइट है और दुनियाभर में सक्रिय भक्त हैं जो उनके कार्यक्रम भी आयोजित करते रहते हैं। लेकिन नए जमाने के स्टार बने रहने के लिए इन्हें 24 x 7 कई पापड़ भी बेलने पड़ते हैं और बेहद तनाव में भी आध्यात्मिक मुस्कान को बिखेरना पड़ता है। सत्संग के अलावा इन्हें कई साइड बिजनेस करने पड़ते हैं। जैसे कि चुनावी सभाओं में पाया जाना, सत्ताधारियों के साथ जैसे-तैसे टीवी पर दिखना, बालीवुड वालों को अपने आश्रम में बुलवाकर मीडिया से ठीक-ठाक तरीके से फोटू खींचवाना वगैरह। लेकिन इस चक्कर में कभी-कभार ये साधुबाबा विवादों में भी घिर जाते हैं जैसे कि कर्नल पुरोहित(एटीएस मामला) का एक धर्मगुरू के आश्रम में आना माथे पर त्यौरियां चढ़ाने का काम करता है। इसी तरह दवाओं में इस्तेमाल होने वाली हड्डियों की कथित मौजूदगी को लेकर एक वामपंथी महिलानेता और एक आध्यात्मिक गुरू में तो जुबानी दंगल तक की नौबत आ जाती है। कुछ आश्रमों में बाल-श्रम को लेकर भी कई सवाल उठते रहे हैं।
इसलिए यह मान लेना कि आध्यात्म की डोज देने वालों की कुटिया में राम-नाम ही सर्वौपरि है, शायद पूरी तरह से सही नहीं होगा। यहां भी तमाम तरह के डर हैं। झूठ-फरेब, दावों की रस्साकशी और गुरूओं की कंपीटीशन है। दूसरे से सफेद दिखने की कोशिश। पीआरएजेंसियां इन्हें नामी-गिरामी होने के हर्बल फार्मूले देती रहती हैं। पूरी कोशिश रहती है कि दूसरे स्टार इनकी छांव में बैठें और वो फोटू टीवी-अखबारों में ढंग से दिखें जरूर। चाहे शिल्पा हों या मल्लिका या हास्य बेचनेवाले कलाकार-गुरू हमेशा चर्चा में रहें, इस काम को मुस्तैदी से करने के लिए पीआर कर्मी दिन-रात जुगत भिड़ाते हैं।
इन सबके बीच चैनल मालिक चाहे दावा करें कि अध्यात्म का बाजार प्रतियोगिता से अछूता है और वह सिर्फ भक्ति भाव से आध्यात्म परोसने का काम कर रहे हैं, हजम नहीं हो सकता। सच यही है कि तिजोरी भरने की जल्दी में वे भी हैं क्योंकि अध्यात्म के कथित बाजार की प्रतियोगिता ही निराली है। शुरूआती दिनों में औसतन 20,000 रूपए से शुरू हुआ यह व्यवसाय अब पहली सीढ़ी पर ही ढाई लाख की मांग करता है।एक चैनल का हाल तो यह है कि वह अभी हाल के दिनों तक चैनल के मुखिया के घर से ही चलता था और मालिक अकेला ही पीएन से लेकर जीएम तक का सारा काम करता था। लिहाजा कई चैनलों में एक-दो कमरे के दफ्तर औऱ सीमित संसाधनों से ही जनता को प्रभु-दर्शन करवा दिया जाता है।
जो भी हो, अध्यात्म वेव उफान पर है। इन चैनलों का टारगेट पूरी दुनिया है। प्रवासी भारतीय इनमें अपनी माटी की महक खोजते हैं। 33 करोड़ देवी-देवताओं के इस देश में बाबा रामदेव, आसाराम बापू, सुखबोधानंद महाराज, श्री श्री रविशंकर और सुधांशु महाराज नए अवतार बन गए हैं। योग की लहर ने हर धर्म और तबके को छूकर राष्ट्रीय एकता में भी योगदान दिया है। इनकी बदौलत न्यूज चैनलों ने भी अब भक्ति भाव के चैनलों को विशेष तवज्जो देनी शुरू कर दी है। वे समझ गए हैं चुनावों-धमाकों-अपराधों के इस देश में बाकी सब भले ही फीका पड़ जाए, अध्यात्म की भूख कभी फीकी नहीं पडे़गी।
(यह लेख 17 दिसंबर, 2008 को अमर उजाला में प्रकाशित हुआ)
7 Responses
aapka yeh blog bahut achchha laga.maine iski sanrachana dekhi, samajhne ki koshish ki.sab kuchh prernadayee aur taza laga. blog ka intro aur uddeshya bahut bebak lage. tan bhar badhai. c p singh
जानकारी परक लेख
शुक्रिया मेम
ज्ञानप्रद लेख
धार्मिक चेनल हो या धारावाहिक इनका क्रेज़ शुरू से ही लोगो में रहा है. बीच में एक दोंर एसा आया जिसमे लगा की शायद धार्मिक बातो से जुड़े कार्यक्रम पीछे जा रहे हैं लेकिन ये बात भी जागरण, साधना और एनी धार्मिक चेनलों की लोकप्रियता ने झूठी साबित कर दी. आपका ये तर्क की लोग इन चेनलों में अपनी मिटटी की महक महसूस करते हैं गलत नहीं है. बहरहाल एक उम्दा लेख के लिए साधुवाद.
देश की जनता धार्मिक है और धार्मिक सीरियलों पर जनमानस का रुझान बढ़ाना स्वाभाविक है . आपके विचारो से सहमत हूँ . टी.वी चेनलो को बस अब टी. आर. पी. बढ़ाने के लिए धार्मिक सीरियलों का सहारा रह गया है .
हर उम्र का स्वाद अलग तो टी.आर.पी तो बढ़नी ही है, पापी जो ज़्यादा हो गये हैं।
बहुत रूची से पढ़ रहा है.. लेकिन लेख था की खत्म ही नहीं हो रहा था.. खैर जितना पढ़ा अच्छा लगा.. काफी शोध करके लिखा है…
पेज को bookmark कर दिया है.. बा्की फिर कभी..