खबर है कि उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के एक स्कूल में एक प्रधानाध्यापिका ने अपने स्कूल के बच्चों को एक कमरे में कई घंटों तक बंद करके रखा। वजह थी-उसके पर्स से 200 रूपयों का गायब होना। खबर में बताया गया कि स्कूल यातना के शिविर बन रहे हैं और बच्चों के साथ वहशियाना रवैया अपनाया जाता है।

पढने में यह स्टोरी यही जतलाती है कि देश भर के स्कूल बच्चों को सिवाय यातना के कुछ नहीं देते और मौजूदा टीचर किसी खौफ से कम नहीं। ताली बजाने के लिए यह विषय रोचक, सटीक और स्वादिष्ट लगता है। एक आम पाठक शायद इस बात से सहमत न हो लेकिन इस स्टोरी को पढकर लगा यही कि यह कहानी पूरी तरह एकतरफा थी। वैसे भी एकतरफा खबरें देना मीडिया की आदत बनती जा रही है और साथ ही पोलिटिकली करेक्ट बातें कहना भी। इसकी मिसालें यहां दी जा रही हैं-

हाल ही में दिल्ली के एक बेहद प्रतिष्ठित स्कूल में एक टीचर का काउंस्लर के रूप में चयन हुआ। चयन के कुछ ही दिनों बाद वे स्कूल की चेयरमेन से मिलने गईं और उन्होंने कहा कि एक विशेष क्लास के कुछ बच्चे काफी गैर-अनुशासित हैं और बेहतर होगा कि स्कूल की तरफ से कोई कारर्वाई की जाए ताकि पूरी क्लास का माहौल न बिगड़े। चेयरमैन ने बात को बीच में ही काटा और कहा- इग्नोर दैम( यानी नजरअंदाज कीजिए)।

एक और वाक्या याद आता है।

एक टीवी न्यूज चैनल में इसी तरह यातना के रस से भरपूर स्टोरी आई। जिस वीडियो एडिटर को वह स्टोरी एडिट करने के लिए दी गई, उसने टेप में एक आश्चर्जनक चीज पाई। उसने देखा कि माइक के सामने आने से पहले बच्चा और उसका परिवार मजे से मुस्कुरा रहा है( वे नहीं जानते थे कि उनके शाट्स लिए जा रहे थे) लेकिन जैसे ही बच्चे के सामने माइक आया, वह जार-जार होकर रोने लगा और साथ ही चिल्लाने-से लगे पिता यह कहते हुए कि कल ही उनके बेटे की किस बेरहमी से पिटाई की गई और क्लास में उसे दुत्कारा गया। उसकी गलती सिर्फ इतनी थी कि उसने अपना होम वर्क पूरा नहीं किया था ( और क्लास में वह मोबाइल पर बात कर रहा था) लेकिन न्यूज चैनल में वही सच दिखाया गया जो बच्चे ने माइक के सामने बताया था(क्योंकि चैनल का फायदा इसी में था। ऐसी फुटेज दर्शकों को खींचती जो है)

अब आगे पढ़िए। महीनों बाद यह बात सामने आई कि दरअसल यह एक नाटक था, वह भी इसलिए कि स्कूल में बच्चे की छोटी बहन को एडमीशन नहीं दी जा रही थी। पर इस पर कोई स्टोरी नहीं की गई।

इसी तरह ऐसे कई मामले देखने में आते रहे हैं जहां बच्चों या उनके माता-पिता ने जोरदार तरीके से बच्चे की मेंटल हैरासमेंट के आरोप लगाए हैं। यह मानसिक कष्ट बच्चे की जाति या उसके कपड़ों के ब्रांड किसी पर भी हो सकता है। लेकिन क्या कभी गौर किया गया है कि इस तरह की शिकायतें आम तौर पर बड़े शहरों से ही क्यों आती हैं? ठीक है यह कहा जा सकता है कि यह सब दूसरे शहरों में भी होता होगा लेकिन उनकी रिपोर्ट हो नहीं पाती होगी लेकिन क्या इसका एक कारण यह भी नहीं है कि अर्बन ईलीट इन मामलों में कुछ ज्यादा ही ‘सक्रियता’ दिखाने का आदी हो चुका है।

इसमें कोई शक नहीं कि मीडिया की जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी नाजुक बच्चों की जमात को पैदा कर रही है। रिएलिटी शो में हिस्सा लेने वाला बच्चा कई बार यह सहन नहीं पर पाता कि उसके साथ खड़ा दूसरा लड़का उससे ज्यादा वोट कैसे पा गया। वह पसंद नहीं करता कि वह सेकेंड आए। वह पसंद नहीं करता कि दूसरे की तारीफ की जाए या फिर दूसरे के पास उससे बेहतर ब्रांड की कोई चीज मौजूद हो। इन शोज में जज बच्चों के शैक्षिक रूझानों की बात करते देखे नहीं जाते। एंटरटेंनमेंट मीडिया शायद यह साबित करने की कोशिश करता है कि पढ़ाई जरूरी है ही नहीं लेकिन मीडिया यह नहीं बताता कि जिन बच्चों ने इस चकाचौंध के चक्कर में अपना सब कुछ छोड़ दिया और आकर बस गए मुंबई में, उनका आखिर बना क्या?

दरअसल मामला पॅालीटिकल खबरों को पकाने, दिखाने और उससे सही टारगेट आडयंस को लुभाने का है। मीडिया छोट-छोटे बच्चों के दिमाग में यह तो भर देता है कि उन्हें बात-बेबात टीचर, स्कूल या प्रिंसिपल को ‘सू’ करने (उन पर केस करने) का अधिकार है लेकिन यह बताने की जहमत नहीं उठाना चाहता कि अधिकारों के साथ कुछ कर्तव्य भी चिपके होते हैं।

बेशक टारगेट आडियंस बच्चे हैं। बच्चे के हाथ में लॅालीपॅाप देने के फायदे बेशुमार है। टीचर के हाथ में झुनझुना देकर उसकी तरह भाषण देने का भला क्या फायदा? खुद सोचिए टीवी पर कितने प्रोग्राम टीचर के आसपास बुने हुए दिखाई देते हैं? मीडिया मालिक की तिजोरी को फायदा बच्चे से ही है। इसलिए उनसे कोई भी बुरा बनना नहीं चाहेगा।

यहां दो बाते हैं। पहला, जे के रालिंग का कथन। वे कहती हैं- पत्रकारिता का काम है-सही और आसान में फर्क करना। यही काम मुश्किल है। दूसरा किसी समाज शास्त्री का यह कहना कि रिपोर्टर जितना देखता है,उससे ज्यादा बोलता है, जितना जानता है, उससे ज्यादा लिखता है। और इन दोनों बातों के बीच में इस सच को भी रखा जा सकता है कि अब कोशिश ‘पोलिटिकली अपरूव्ड’ सच को बोलने की होती है। इस अतिवादी रिपोर्टिंग से टीआरपी की आईस-पाईस में फायदा मिल सकता है लेकिन समाज को नहीं।

(यह लेख 19 अक्तूबर, 2008 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

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4 Responses

  1. ऐसा तो ए दिन देखने को मिलता रहता है, मुझे अच्छी तरह याद है जब कनाट प्लेस में ब्लास्ट हुआ था तो एक चैनल के पत्रकार और केमरामेन ने मिलकर एक अपने ही जानकार को प्रत्यक्षदर्शी बनाकर इंटरव्यू लेना शुरू कर दिया… जबकि इंटरव्यू से पहले वो खूब हंस हंस कर आपस में डिसाइड कर रहे थे की क्या-क्या कैसे बोलना है….
    ये समझ नहीं आता की बदलाव होगा की नहीं और होगा तो कैसे होगा…

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