अंग्रेजी के एक अखबार के पत्रकार ने जब अपने यहां छपने वाली किसी स्टोरी विशेष की विश्वसनीयता पर आपत्ति जताई तो उसे जवाब संपादक से नहीं,बल्कि अखबार के मार्केटिंग हेड की तरफ से मिला। वैसे वह जवाब कम और सख्त हिदायत ज्यादा थी। उक्त महोदय ने जुझारू पत्रकार से कहा कि अखबार एक धंधा है। हम सब यहां पर धंधा करने बैठे हैं, अगरबत्ती जलाने नहीं। इसलिए आप वही लिखिए और वही देखिए जो बिकने लायक हो। अगर आपकी स्टोरी बिकने लायक नहीं होगी तो आप भी अखबार के लायक नहीं होंगे। दूसरी बात, हम भी कई बार आपको स्टोरी बताएंगे। वो स्टोरीज आपको करनी होंगी और याद रखिए, हम नहीं चाहेंगें कि उन स्टोरीज पर काम करते हुए आप अपने दिमाग को भी इस्तेमाल में लाएं।

 

 

यह नए समय की पत्रकारिता की सच्ची तस्वीर है। टैगलाइन चाहे जो भी कहे, अंदरूनी सच यही है कि पत्रकारिता अब पूरा सच नहीं बल्कि काफी हद तक व्यापार है। अखबार व्यापार कर रहा हो, इससे शायद किसी को बड़ी आपत्ति न हो लेकिन अफसोस इस बात पर तो हो सकता हो जब अखबार सिर्फ व्यापार ही बन कर रह जाए। हाल के महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव के तुरंत बाद द हिंदू के ग्रामीण संपादक पी साईंनाथ की खोजपरक रिपोर्ट ने जब यह साबित किया कि कैसे उस समय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण के पक्ष में सरकारी खर्च पर सकारात्मक स्टोरीज छापी गईं, तो राजनीतिक हलकों में इसे लेकर तनाव पैदा हुआ। कई खबरों में अशोक चव्हाण की तुलना सम्राट अशोक तक से की गई थी। यह खबरें उस समय पर छपीं थीं जब कि चुनाव की घोषणा हो चुकी थी और जाहिर तौर पर आचार संहिता लागू हो गई थी। इन खबरों को नियम के मुताबिक कहीं भी एडवरटोरियल के रूप में छापा नहीं गया (ताकि पाठक को इस बात का अहसास तक न हो कि उन्हें खबर के रूप में जो दिया जा रहा है, वह असल में एक प्रायोजित मामला है)। इस तरह जनता के जो पैसे सरकारी खजाने में जमा होते रहते हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा इन दिनों राजनेता अपनी इमेज एंड लुक को चमकाने में खर्च करने लगे हैं, वो भी कुछ इस अंदाज में कि जेब जनता की ढीली हो औप मकसद वे साधें।

 

यह ठीक है कि बाजार में टिके रहने के लिए व्यापार तो करना ही होगा लेकिन व्यापार की भी कुछ शर्तें और मर्यादाएं होती हैं। ऐसा कतई नहीं है कि कोला से कीटनाशक उड़नछू हो गए हैं। वे आज भी उन्हीं बोतलों में मौजूद हैं। इनमें कीटनाशक होने की जो छोटी-मोटी खबरें कुछ साल पहले हुईं थीं, उनका सीधा फायदा यह हुआ कि कई गांवों में किसानों ने कोला को अपने खेतों पर एक कीटनाशक के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया (और इससे खूब लाभान्वित भी हुए) लेकिन मीडिया को क्या हुआ। इन कीटनाशकों को मीडिया ने क्यों हजम किया। क्या मीडिया इस बात  आश्वस्त हो गया कि कोला स्वास्थ्यवर्धक है, हानिकारक नहीं। यहां मीडिया की चुप्पी की वजह तर्क और प्रमाण पर आधारित परिणाम नहीं था, बल्कि सिक्कों की खनक और मुंह से टपकती लार थी। स्वाद और ठंडे के नाम पर कीटनाशक देने वाली ये कंपनियां चैनलों और अखबारों को बने रहने के लिए मोटी रकम देती हैं। कुछ दिनों तक हाथी के दांतों से गुस्सा दिखाने के बाद मीडिया सहमत हो गया कि कीटनाशकों के चक्कर में मोटे लालाओं और आकाओं से नाराजगी मोल लेने से जन हित सुखाय पत्रकारिता भले ही हो जाएगी लेकिन मीडिया मालिक सुखाय नहीं। वैसे भी यह दौर 1940 का नहीं है जब महात्मा गांधी सरीखे व्यक्तितत्व सोचते थे कि मीडिया और विज्ञापन एक-दूसरे से जितना दूर रहें, उतना ही भला है।  

 

तो फिर किया क्या जाए। पूरा सच कहीं भी नहीं है और पसरे हुए पूरे झूठ को ढूंढना मुश्किल नहीं। ऐसे में जरूरी हो जाती है मीडिया शिक्षा जो किसी को भी दी जा सकती है। सूचना क्रांति के इस विस्फोटक दौर में मीडिया के चरित्र और उसकी मजबूरियों को समझाने के लिए कुछ प्रयास किए ही जाने चाहिए। जब तक ऐसा हो पाता है, तब तक एक आम दर्शक और पाठक को इतना तो जान ही लेना चाहिए कि वह जो देखे-पढ़े, उस पर विश्वास करने से पहले अपनी समझ को भी इस्तेमाल में लाए। सीधा मतलब यह कि अगर वह खुद भी थोड़ा पत्रकार बन सके तो कोई हर्ज नहीं। यह किसने कहा कि हथियार की समझ तभी बढ़ानी चाहिए जब खुद के पास हथियार हो।
 

(यह लेख 3 फरवरी, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)    

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4 Responses

  1. मैं तो गुजर चुका हूँ, गंदी गली से।
    अब खुशबू नहीं आती इस कली से।

  2. वर्तिका जी काफी सटीक लिखा है। ये काफी हद तक सही है। मेरे करियर को तो शुरुआत है लेकिन अभी से इन सच्चाईयों से रुबरु हो रहा हूं तो लगता है क्यों आ गया यहां पर। सोचा था पत्राकरिता के ज़रिए कुछ बदलाव कर सकुंगा लेकिन यहां तो मुझे बदलने की व्यापके कोशिशे जारी है

  3. sb jgh bajar vad hai
    midiya bhi to usi ka
    hk dar hai
    vh bda hushiyar hai
    khud poochhta hai khud hee btata hai
    or apni peeth bhi khud hi thpthpata hai
    midiya mhan hai
    us ki bhut shan hai
    kyonki raj niti ka or us ka
    ab ek hi mkam hai
    dono sge ho gye hain
    ek doosre ke dukhde me kho gya hain
    dr.vedvyathit@gmail.com

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