प्रियदर्शन

अण्णा हज़ारे के अनशन और आंदोलन के दौरान मीडिया की भूमिका पर कई तरह से सवाल उठे। एक बड़े तबके ने राय जताई कि मीडिया की वजह से यह आंदोलन इतना बड़ा दिखने लगा। दिल्लीया देश के दूसरे हिस्सों में कुछ हज़ार लोगों के प्रदर्शन को मीडिया ने इस तरह पेशकिया जैसे सारा देश इस आंदोलन के साथ हो। दूसरा इल्ज़ाम यह लगा कि मीडिया ने आंदोलन को सिर्फ दिखाया नहीं, बिल्कुल आंदोलन के साथ चलने लगा। वह भी टीम अण्णा का हिस्सा हो गया और अण्णा इज़ इंडिया के नारे लगाने लगा। केंद्र सरकार ने बाकायदा यह शिकायत की कि मीडिया ने इस पूरे आंदोलन के दौरान बस एक पक्ष- टीम अण्णा- की राय दिखाई, दूसरे यानी सरकारी पक्ष को बिल्कुल उपेक्षित किया। एक चौथी और अल्पमत जैसी राय यह भी थी कि आंदोलन जितना बड़ा था, वह तो मीडिया में समाया ही नहीं। मीडिया उसे कुछ शहरों और प्रदर्शनों तक सीमित करके रह गया, जबकि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो आम और व्यापक गुस्सा है, उसकी तरह-तरह की अभिव्यक्तियां दरकिनार कर दी गईं।

एक बड़ी घटना को लेकर मीडिया के बारे में ये तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं क्या बताती हैं? यही कि सिर्फ मीडिया ही चीज़ों की ख़ुर्दबीनी शिनाख्त में जुटा नहीं रहता, उसकी भी ख़ुर्दबीनी शिनाख़्त लगातार चलती रहती है। जब आप दूसरों के बारे में 24 घंटे जानकारी देते हैं तो इसका एक मतलब यह भी होता है कि आप भी 24 घंटे दूसरों की नज़र में रहते हैं। शायद यह भी वजह है कि मीडिया जितने अतिरेकी छोरों तक जाकर ख़बरों से खिलवाड़ करता है उतने ही अतिरेकी छोरों से खुद मीडिया का विश्लेषण होता रहता है। अक्सर यह बात बड़े सपाट और निष्ठुर ढंग से कह दी जाती है कि 24 घंटे के समाचार चैनलों में समाचार सबसे कम होता है, तमाशा सबसे ज़्यादा। दूसरा आरोप यह लगाया जाता है कि वह संजीदा से संजीदा मसलों का ट्रिवियलाइज़ेशन, यानी क्षुद्रीकरण कर डालता है।

निश्चय ही ये दोनों आरोप बहुत दूर तक सच हैं। 24 घंटे के समाचार चैनलों में ज्योतिष, भूत-प्रेत, सेक्स-अपराध और नकली किस्म की सनसनी इतनी ज़्यादा होती है कि इन सबको देखते हुए कोफ़्त सी होने लगती है। यह कोफ़्त इस तथ्य से कुछ और बढ़ जाती है कि ऐसे सतही और फूहड़ कार्यक्रमों को दर्शक मिल जाते हैं- कम से कम टीआरपी के मीटर यही बताते हैं। यह ठीक है कि ये टीआरपी मीटर पूरे देश की राय नहीं बताते या दर्शक संख्या के बारे में भी बिल्कुल सटीक जानकारी नहीं देते, क्योंकि ख़ुद उनकी तादाद बहुत कम है, लेकिन इसके बावजूद उनसे चलन का तो पता चलता ही है। और दूसरी बात यह कि जब तक हमारे पास दर्शक संख्या मापने के दूसरे पैमाने नहीं हैं, टीआरपी मीटर ही इकलौती कसौटी है जिस पर पहले विज्ञापनदाता और फिर साथ-साथ टीवी चैनल यकीन करने को मजबूर होते हैं। बहरहाल, मजबूरी जो भी हो, टीवी चैनल इन दिनों खबरों के अलावा काफी कुछ परोसते हैं और काफी बुरे ढंग से परोसते हैं, इस बात से किसी को इनकार नहीं हो सकता।

चैनलों पर दूसरा आरोप भी बिल्कुल वाजिब है। वे संजीदा खबर भी लेते हैं तो संजीदगी से नहीं। अक्सर खबरों में जितनी कम सूचनाएं होती हैं, उससे कम सरोकार होते हैं। यहां तक कि टीवी के प्राइम टाइम पर चलने वाली बहसों में भी पर्याप्त तैयारी का अभाव बहुत साफ दिखता है जिसका सीधा असर सूचना और विश्लेषण दोनों स्तरों पर पड़ता है। ऐंकर अक्सर किसी बहस को सपाट दो हिस्सों में बांटकर, उसके दोनों पक्षों को आमने-सामने लाकर टकराव की स्थिति पैदा कर संतुष्ट हो लेते हैं। दर्शकों को बहुत कम सूचनाएं मिलती हैं और कई बार गलतफ़हमी पैदा करने वाले नतीजे मिलते हैं।

लेकिन ये सारी आलोचनाएं जितनी वैध हैं, उतनी ही इकहरी भी। सच तो यह है कि अपने सारे सतहीपन और स्थूलता के बावजूद 24 घंटे के समाचार चैनलों ने ख़बर का पीछा करने में अपने पूर्ववर्ती माध्यमों और पत्रकारों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा रफ़्तार दिखाई है और जीवट भी। कायदे से देखें तो मीडिया के सारे तमाशे वहीं तक चलते हैं जहां तक उसके पास कोई बड़ी ख़बर नहीं होती। जैसे ख़बर पहुंचती है, वह ख़बर के पीछे लग लेता है। पुलिस अगर रात को 2 बजे रामदेव के धरने पर कार्रवाई करती है तो इसकी गवाही दर्ज करने के लिए टीवी कैमरे मौजूद रहते हैं। अगर अण्णा हजारे की गिरफ्तारी का अंदेशा होता है तो कोई रिपोर्टर पूरी रात उस फ्लैट के बाहर जागता खड़ा रह सकता है, जहां अण्णा हज़ारे टिके हुए हैं। ऐसा नहीं कि यह सिर्फ आधी रात के सनसनीखेज घटनाक्रम कवर करने का मामला हो, राजनीति और समाज से जुड़ी बाकी ख़बरों का भी मीडिया इसी रफ़्तार और जीवट के साथ पीछा करता है।

मिसाल के तौर पर चुनावी राजनीति जितनी अख़बारों में दिखाई पड़ती है, उससे कहीं ज़्यादा टीवी चैनलों पर। चुनाव के वक़्त बिल्कुल स्पॉट पर की जाने वाली रिपोर्टिंग से लेकर स्टूडियो में की जाने वाली चर्चा तक चुनाव ही केंद्रीय हुआ करते हैं। इस सक्रियता का आलम यह है कि एक दौर में लगभग सभी टीवी चैनल चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों से लेकर एग्ज़िट पोल तक किया करते थे और नौबत ये आई कि चुनाव आयोग को चुनाव ख़त्म होने तक ऐसे सर्वेक्षणों पर पाबंदी लगानी पड़ी क्योंकि इससे जनमत के प्रभावित होने का ख़तरा था। अगर संजीदा ख़बर को टीवी चैनल संजीदगी से नहीं ले रहे होते तो चुनाव आयोग को ऐसी पाबंदी क्यों लगानी पड़ती?

ऐसी मिसालें और भी हैं। अण्णा हजारे का अनशन शुरू हुआ तो बाकी सितारे पीछे छूट गए। कौन बनेगा करोड़पति का नया संस्करण लेकर आए अमिताभ बच्चन ने पाया कि उन्हें देखने वाले कम हो गए। उस दौर में फिल्मी खबरें भी कम चलीं। टीवी चैनलों पर अण्णा का अनशन सबसे बड़ी खबर बना रहा। इसके पहले बिहार की कोसी नदी में आई बाढ़ पर मीडिया की सक्रियता की वजह से कई ज़रूरतमंदों को वक़्त पर राहत पहुंच सकी।

कुल मिलाकर देखें तो इस दौर में सूचनाओं का जो लोकतांत्रिकीकरण हुआ है, उसमें 24 घंटे के समाचार चैनलों की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अब राजनीति की एक-एक ख़बर पर मीडिया की नज़र रहती है, नेता की एक-एक हरक़त को कैमरा पकड़ता चलता है। केरल से लेकर जम्मू कश्मीर तक मुख्यमंत्रियों के बयान हलचल मचाते हैं, येदियुरप्पा से लेकर नीतीश कुमार तक से जुड़े सारे विवाद मीडिया के जरिए लोगों तक पहुंच जाते हैं। सच तो यह है कि इस दौर में चले कई सामाजिक अभियानों को मीडिया के समर्थन ने एक मुकाम तक पहुंचाया है। जेसिका लाल औरप्रियदर्शनी मट्टू जैसी लड़कियों के इंसाफ़ की लड़ाई कायदे से मीडिया की मदद से जीती जा सकी। चंडीगढ़ की रुचिका के हिस्से का भी जो आधा-अधूरा इंसाफ मिल सका है, उसमें मीडिया की भूमिका नहीं भुलाई जा सकती।

हालांकि इन सारी बातों की तरफ ध्यान खींचने का मकसद यह साबित करना नहीं है कि मीडिया जो कुछ कर रहा है, वह अच्छा है और उसकी आलोचना गलत है। सच तो यह है कि सूचना के एक पेशेवर माध्यम के तौर पर मीडिया की भूमिका जितनी महत्त्वपूर्ण है, उसमें किसी सतहीपन या चूक की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। दूसरी बात यह कि इस मीडिया का सम्यक मूल्यांकन करेंगे तो कहीं ज़्यादा साफ ढंग से उस विद्रूप को समझ सकेंगे जो सूचना की इस क्रांति के दौर में सूचना के एक महत्त्वूर्ण कारोबार में घटित हो रहा है।

सच्चाई यह है कि मीडिया का असली ख़तरा वह नहीं है जो वह नासमझी में कर रहा है, असली ख़तरा वह है जो वह सयानेपन से कर रहा है। इसमें शक नहीं कि मीडिया का वर्ग चरित्र बदल गया है। अगर ऐतिहासिक संदर्भों में इस बात को समझने की कोशिश करें तो 1991 में उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद का मीडिया मूलतः बड़ी पूंजी के खेल में बदलता चला गया है। उदारीकरण के जरिए अचानक भारत में आई विशाल पूंजी ने अखबारों को उनका नया अर्थशास्त्र समझाया और अखबार रातों-रात पाठकों के लिए नहीं, विज्ञापनदाताओं के लिए निकलने लगे। देश में सबसे बड़ी हैसियत का दावा करने वाले एक अंग्रेज़ी अखबार ने बेहिचक ख़ुद को ब्रांड और प्रोडक्ट बताया। यह दरअसल धंधे की नई समझ थी, जिसमें संपादक की जगह पीछे छूटती चली गई और बाज़ार के मंत्र जपते, उसकी नई शर्तों से लैस मार्केटिंग और ऐड मैनेजर अखबार की नीतियां तय करने लगे।

ठीक यही प्रवृत्ति इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में बड़ी तेजी से विकसित हुए इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में लक्ष्य की जा सकती है- इस फर्क के साथ कि अखबार में जो फूहड़ता सिर्फ लिखित शब्दों तक सीमित थी और एक पढ़े-लिखे वर्ग तक ही पहुंचती थी, टेलीविजन में वह बिल्कुल दृश्यगत हो गई और चालू मुंबइया फिल्मों की तर्ज और उनके तर्क पर ही दर्शकों को वह परोसने लगी, जो वे चाहते और मांगते हैं।

लेकिन फिर दुहराने की ज़रूरत है कि मीडिया का असली ख़तरा इस तमाशे से नहीं, उस संजीदगी से निकलता है जो वह ख़बरों के नाम पर बेचता है। तमाशा तो फिर भी समझ में आ जाता है, आप चाहें तो रिमोट कंट्रोल से चैनल बदल कर कोई दूसरा बड़ा तमाशा देखने लग सकते हैं, लेकिन जब वह संजीदगी से ख़बर दे रहा होता है तब किन हाथों में खेल रहा होता है, यह देखने की ज़रूरत है।

इस लिहाज से कुछ बातें साफ़ लक्ष्य की जा सकती हैं। समाचार चैनलों का यह संसार मूलतः दिल्ली, मुंबई और कुछ बड़े शहरों को समर्पित है। सिर्फ इसलिए नहीं कि इन शहरों में टीआरपी मीटर ज़्यादा लगे हैं और इसीलिए उसे लगता है कि यहां उसकी दर्शक संख्या ज़्यादा गिनी जाएगी। यह छोटी सी सच्चाई है, बड़ी सच्चाई यह है कि आज का टीवी पत्रकार भले छोटे शहरों से आए, लेकिन उसके भी सरोकार और संवेदना के केंद्र में यही महानगर बनते शहर हैं- उसका एक नया वर्ग चरित्र है जिसमें उसे मॉल और मल्टीप्लेक्स भाते हैं, नए बनते क्षेत्रों और इलाकों में घर और करिअर की संभावना का सवाल छूता है, ट्रैफिक और कानून-व्यवस्था की समस्या चिंतित करती है और वह दफ्तरी भ्रष्टाचार सालता है जिसकी वजह से उसके कुछ काम देरी से होते हैं। इन सबकी ख़बर टीवी सबसे तेज़ी से लेता है। वह धीरे-धीरे दूर की ख़बरें छांटता चलता है। भट्टा-परसौल दिल्ली और नोएडा के क़रीब है और इसका वास्ता नई बनती आवासीय कॉलोनियों से है, इसलिए वहां चल रहे आंदोलन की गूंज मीडिया में ख़ूब दिखाई पड़ती है, लेकिन काशीपुर में विस्थापन के ही सवाल पर चल रहे आंदोलन की उसे ख़बर नहीं होती। नक्सली हिंसा का सवाल तब उसे घेरता है जब उस पर प्रधानमंत्री या गृह मंत्री का बयान आता है या फिर सीआरपीएफ के जवानों की हत्या की ख़बर आती है- इसके समांतर नक्सली समूहों और उनके नाम पर उत्पीड़ित किए जा रहे आम लोगों की ख़बर वह शायद ही लेता है। भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ वह अण्णा हजारे के आंदोलन के साथ हो लेता है, लेकिन मणिपुर में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून हटाने की मांग पर 11 साल से अनशन पर बैठी शर्मिला इरोम की खबर वह बस रस्म अदायगी के नाम पर लेता है।

इस चरित्र को हम ध्यान से देखें तो कुछ और नतीजे निकलते हैं। धीरे-धीरे हम पाते हैं कि एक छोटे से वर्ग के हितों और उसके नए बनते शौक को समर्पित यह मीडिया मूलतः स्मृति विरोधी और समाज विरोधी है और कई अर्थों में गरीब विरोधी भी। संस्कृति की जगह इंटरटेनमेंट, यानी मनोरंजन शब्द इस्तेमाल करता है और इस मनोरंजन में हिंदी की सबसे चालू और फूहड़ फिल्में सबसे ज़्यादा जगह घेरती हैं। वह खेलों की दुनिया में उतरता है तो क्रिकेट को किसी नशीले पदार्थ की तरह बेचने में जुट जाता है और नकली उम्मीदों का झाग पैदा करता एक नकली किस्म का रुग्ण देशप्रेम विकसित करता है। कुल मिलाकर वह एक ऐसी लंपट अपसंस्कृति का वाहक बन जाता है जिसमें सभ्यता और संस्कृति के संवेदनशील मूल्यों के लिए ज़रा भी जगह नहीं है। इस अपसंस्कृति का कुछ असावधान प्रदर्शन टीवी चैनलों पर 24 घंटे इस्तेमाल की जा रही भाषा है जो कुछ छिछली हिंदी और टूटी-फूटी अंग्रेजी के मेल से बनी है और जिससे यह भ्रम होता है कि हिंदी तो किसी सरोकार या विमर्श की भाषा ही नहीं बन सकती।

खतरनाक बात यह है कि जो लोग और तबके इस सारी फूहड़ता के लिए ज़िम्मेदार हैं, वही फैशनेबुल ढंग से इस मीडिया की सबसे तीखी आलोचना भी करते हैं। यह बौद्धिक पाखंड उस बडे सामाजिक और साम्राज्यवादी पाखंड का हिस्सा है जिसमें भारत की विशाल सामाजिकता लगातार एक उपनिवेश में बदली जा रही है।

क्या इस स्थिति के प्रतिरोध की कोई सूरत कहीं निकलती है। फिलहाल वह मुख्यधारा के मीडिया में तो दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ती। लेकिन समाचार चैनलों की इस भेड़चाल से बाहर देखें तो हिंदीभाषी समाज का एक बड़ा तबका है जिसके भीतर इन सबको लेकर बहुत गहरा उद्वेलन है। यह उद्वेलन मुख्यधारा के बाहर के मीडिया में- खासकर नए माध्यमों में बहुत साफ तौर पर दिखाई भी पड़ता है। बस उम्मीद की जा सकती है कि एक दौर में मीडिया का यह खेल अपनी व्यर्थता की वजह से ही अपना विक्रय मूल्य खो बैठेगा और तब टीवी चैनलों पर कहीं ज़्यादा बेहतर, पेशेवर और संवेदनशील पत्रकारिता दिखेगी।

(यह लेख 2011 में रचना क्रम के मीडिया विशेषांक में प्रकाशित हुआ था)

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