आंखों के छोर से
पता भी नहीं चलता
कब आंसू टपक आता है और तुम कहते हो
मैं सपने देखूं।

तुम देख आए तारे ज़मी पे
तो तुम्हें लगा कि सपने
यूं ही संगीत की थिरकनों के साथ उग आते हैं।

नहीं, ऐसे नहीं उगते सपने।

मैं औरत हूं
अकेली हूं
पत्रकार हूं।

मैं दुनिया भर के सामने फौलादी हो सकती हूं
पर अपने कमरे के शीशे के सामने
मेरा जो सच है,
वह सिर्फ मुझे ही दिखता है
और उसी सच में, सच कहूं,
सपने कहीं नहीं होते।

तुमसे बरसों मैनें यही मांगा था
मुझे औरत बनाना, आंसू नहीं
तब मैं कहां जानती थी
दोनों एक ही हैं।

बस, अब मुझे मत कहो
कि मैं देखूं सपने
मैं अकेली ही ठीक हूं
अधूरी, हवा सी भटकती।

पर तुम यह सब नहीं समझोगे
समझ भी नहीं सकते
क्योंकि तुम औरत नहीं हो
तुमने औरत के गर्म आंसू की छलक
अपनी हथेली पर रखी ही कहां?

अब रहने दो
रहने दो कुछ भी कहना
बस मुझे खुद में छलकने दो
और अधूरा ही रहने दो।

Tags:

5 Responses

  1. i was in adpr when you taught at iimc, it is great to see your blog. aur ye kavita bahut acchi lagi, laga nahin tha ki aap itni acchi kavita bhi karti hongi.
    we never had regular classes with you isliye interaction kam tha, here i am sure will get to know a lot more.
    regards
    puja upadhyay

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *