रसोई में
रोज पकते रहें पकवान
नियत समय पर टिक जाएं मेज पर
इसकी मशक्कत में
चढ़ानी पड़ती है
अपनी डिग्रियों की बलि
जूते पॉलिश हों
आंगन धुल जाए
बादशाह और नवाबजादों के घर लौटने से पहले
सब कुछ सरक जाए अपनी जगह पर
मुस्कुराते, इतराते, कुछ ऐसे कि जैसे
न हुआ हो कुछ भी
जैसे बटन के दबाते
सब सिमट आएं हों
आहिस्ता से अपनी-अपनी जगह
इसके लिए देनी पड़ती है
अपनी खुशियों की आहुति
सर्दी आने से पहले
दुरूस्त हो जाएं हीटर
बाहर उछल आएं कबंल-रजाई
बनने लगें गोभी-शलगम के अचार
गाजर के हलवे
इसके लिए मांग के सिंदूर की रेखा
खींच लेनी पड़ती है थोड़ी और
बारिश में टपकती छत से
गीले न हों फर्श
रख दी जाए बालटी, टपकन से पहले ही
शाम ढलने से पहले ही आलू के पकौड़ों की खुशबू
पड़ोसी अफसरों के घर पहुंच जाए
इसके लिए ठप्प करना पड़ता है अपने सपनों का ब्लाग
इस पर भी मौसमों के बीच
बिस्तरों पर चढ़े
क्षितिज के पार की
औरतों के अधिकार की बात करते
न तो शहंशाह मुस्कुराते हैं, न नवाबजादे
इसके लिए
आंखों के नीचे
रखना पड़ता है
एक अदद तकिया भी


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2 Responses

  1. गज़ब की कविता… अद्भुत… मैं कहूँगा आज की बेस्ट कविता… सर्वकालीन भी… बहुत खूबसूरती से कही गयी बात… तीखा और सुन्दर कटाक्ष… मर्दों की दुनिया में… निर्दयता से औरतों के दर्द को उभारना … बादशाह और नवाबजादों का सुन्दर प्रयोग… खुबसूरत व्यंग… प्रतिभाशाली महिलाओं का वास्तविक हश्र … आये दिन ऐसा देखता हूँ… और कविता मैं उदहारण एक से बढ़कर एक दिए गए हैं.. घरेलु, और रोज़मर्रा के… मैं किस पैरे को लूँ असमंजस में हूँ… फिर भी अंतिम बात को लेता हूँ

    " इस पर भी मौसमों के बीच
    बिस्तरों पर चढ़े क्षितिज के पार की औरतों के अधिकार
    की बात करते न तो
    शहंशाह मुस्कुराते हैं, न नवाबजादे
    इसके लिए आंखों के नीचे रखना पड़ता है
    एक अदद तकिया भी"

    यह तो लगभग हर घर का किस्सा बयां कर दिया आपने…

    बहुत दिनों तक याद रहेगी यह कविता रुपी सत्य..

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