अनार के दाने ही थे
वो पल
गिलहरी की तरह गुदगुदाते आए
फिर बह गए
वो शहतूत की बेरियां
कच्चे आमों की नटखट अटखेलियां
आसमान के जितने टुकड़े दिखते
अपनेपन से भरे लगते
घर का फाटक और
फाटक के पास से गुजरते लोग
उनके चेहरे के भाव
जो घर आते, वो भी भले लगते
न आने वाले भी किसी सुख के साये में जीते ही लगते
असल में तब परिभाषा शायद सुख की ही थी
कहां जाना कौन थे बुद्धा, राम या रहीम
किसी का फलसफा पढ़ा ही कहां था
लेकिन मन में शांति की चादर ऐसी लंबी थी
कि तमाम सरहदें पार कर लेती
उन गुनगुने दिनों में रिश्ते जितने थे
अपने थे
शहरों –गांवों-कस्बों की सीमाओं से परे
वो शहतूत अब दिखते नहीं
रिक्शे की ऊबड़-खाबर सवारी
कचनार के खिले से रंग
पेट में उठती उल्लास की हूक
हर शब्द से झरता प्यार
सब कुछ इतिहास क्या इतनी जल्दी हो जाता है?
5 Responses
बहुत ही खूबसूरत कविता है. दिल को छू गई, बहुत खूब!
गुनगुने दिन, शहतूत, अनार,गिलहरी… क्या बात है। इतने सारे मीठे शब्द एक साथ…
आपकी कविता बहुत ही प्यारी है। ईश्वर करें आप हमेशा ही इसी तरह बेहतर लिखे।
ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी लेलो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की कस्ती वो बारिस का पानी
रत्नेश त्रिपाठी
सब कुछ इतिहास क्या इतनी जल्दी हो जाता है?
बिलकुल जी जैसे आपकी लिखी ये पोस्ट भी जल्द्दी ही इतिहास हो जायेगी
बढ़िया , अच्छी कविता
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