ज़ुबां बंद है
पलकें भीगीं
सच मुट्ठी में
पढ़ा आसमान ने
मैं अपने पंख खुद बनूंगी
मैं अपने पंख खुद बनूंगी
हां, मैं थी. हूं..रहूंगी..
पानी-पानी
इन दिनों पानी को शर्म आने लगी है
इतना शर्मसार वो पहले कभी हुआ न था
अब समझा वो पानी-पानी होना होता क्या है
और घाट-घाट का पानी पीना भी
वो तो समझ गया
समझ के सिमट गया
उसकी आंखों में पानी भी उतर गया
जो न समझे अब भी
तो उसमें क्या करे
बेचारा पानी
निर्भया
औरत होना मुश्किल है या चुप रहना
जीना या किसी तरह बस, जी लेना
शब्दों के टीलों के नीचे
छिपा देना उस बस पर चिपकी चीखें, कराहें, बेबसी, क्ररता, छीलता अट्टाहास
उन पोस्टरों को भींच लेना मुट्ठी में
जिन पर लिखा था – हम सब बराबर हैं
पानी के उफान में
छिपा लेना आंसू
फिर भरपूर मुस्कुरा लेना
और सूरज से कह देना –
मेरे उजास से कम है वो
कैलास की यात्रा में
कुरान की आयतें पढ़ लेना
इतने सामान के साथ
साल दर साल कैलेंडर के पन्ने बदलते रहना
कागजों के पुलिंदे में
भावनाओं की रद्दी
थैले में भरी तमाम भद्दी गालियां
और सीने पर चिपकी वो लाल बिंदी
और सामने खड़ा – मीडिया
इस सारी बेरंगी में
दीवार में चिनवाई पिघली मेहंदी
रिसता हुआ पुराना मानचित्र
बस के पहिए के नीचे दबे मन के मनके और उसके मंजीरे
ये सब दुबक कर खुद को लगते हैं देखने…
इतना सब होता रहे
और तब भी कह ही देना कि
वो एक खुशी थी
किसी का काजल, गजरा और खुशबू
नाम था – निर्भया
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