लोकाट को वो पेड़
पठानकोट के बंगले के सामने वाले हिस्से में
एक महिला चौकीदार की तरह तैनात रहता था।

फल रसीला
मोटे पत्तों से ढका।

तब घर के बाहर गोलियां चला करती थीं
पंजाब सुलग रहा था
कर्फ्यू की खबर सुबह के नाश्ते के साथ आती थी
कर्फ्यू अभी चार दिन और चलेगा
ये रात के खाने का पहला कौर होता था।

बचपन के तमाम दिन
उसी आतंक की कंपन में गुजरे
नहीं जानते थे कि कल अपनी मुट्ठी में आएगा भी या नहीं
मालूम सिर्फ ये था कि
बस यही पल, जो अभी सांसों के साथ सरक रहा है,
अपना है।

लेकिन लोकाट के उस पेड़ को कोई डर नहीं था
गिलहरी उस पर खरगोश की तरह अठखेलियां करती
चिड़िया अपनी बात कहती
मैं स्कूल से आती तो
लोकाट के उस पेड़ के साथ छोटा सा संवाद भी हो जाता।

पंजाब में अब गोलियों की आवाज चुप है
तब जबकि बचपन के दिन भी गुजर गए
लेकिन आज भी जब-तब याद आते हैं
कर्फ्यू के वे अनचाहे बिन-बुलाए डरे दिन
और लोकाट का वह मीठा पेड़।

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4 Responses

  1. वर्तिका जी महिला चौकीदार की तरह क्यों? सिर्फ़ चौकीदार की तरह क्यों नहीं?

  2. महिला चौकीदार लिखने का मतलब ज़रा अतिरिक्त सतर्कता से है लेकिन आप इसे महिलावादी दृष्टिकोण से न देखें। यह सिर्फ एक छोटा सा ख्याल था जो आया और कविता लिखने के बाद मैने इसमें ..महिला..शब्द को हौले से जोड़ दिया।

  3. पंजाब के आतंकवाद को आपने अपनी कविता में बहुत ही सधे रूप में लिखा है…..वो बचपन आज भी आपकी .ादों में तरोताजा है…..

    -प्रवीण कुमार प्रभात

  4. वर्तिका जी खुलासे के लिए शुक्रिया। वैसे आतङ्कवाद के दिनों मैं भी पञ्जाब में ही था, आज के समय वह समय याद करके कुछ अजीब सा लगता है। आपकी कविता वह सब याद न दिलाती तो शायद वह पूरी याद और जल्दी धुँधली हो जाती। आपको तहेदिल से शुक्रिया।

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