कविता, वो भी हिंदी में, युवाओं के मुख से और जगह दक्षिणी दिल्ली। इस परिचय पर सहज ही यकीन करना आसान नहीं लेकिन दरअसल हुआ यही।
निराला, मैथिली शरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी और न जाने कितने ऐसे नाम जो इस हफ्ते दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित एक प्रतियोगिता में जैसे बरसों बाद सुनाई दिए तो मन कवितामय हो गया। दिल्ली के बेहतरीन कालेजों के छात्र दिल्ली के लेडी श्रीराम कालेज में जगह जमा हुए और वार्षिक प्रतियोगिता का हिस्सा बने। प्रतियोगिता के तहत कविता पाठ तो हुआ ही, साथ ही हुई साहित्यिक अंताक्षरी और प्रश्नोत्तरी।
कहने को यह महज एक प्रतियोगिता थी लेकिन इसने असल में सोच की कई बंद खिड़कियों को खोल दिया। सूचना क्रांति में उगे-फूले इस युग में हिंदी कविता कहां है, किधर है, कितनी जिंदा है, यह प्रतियोगिता उसका आइना थी। यह भी महसूस हुआ कि टीवीवालों का यह दावा भी कितना खोखला है कि कविता कोई सुनना नहीं चाहता, इसलिए टीवी पर वो दिखती नहीं। जो दिखती है, वो राजू श्रीवास्तव की शैली में है।
दरअसल मीडिया ने कभी बाजार को ठीक से समझा ही नहीं। पोपलुर परसेप्शन के झूठे छलावे के नाम पर असल में जनता की थाल में वही उठा कर डाल दिया जाता है जिसका अंदाजा लगता है, जो आसान होता है। यह ठीक है कि राजू (और एक समय में सरोजिनी प्रीतम, शैल चतुर्वेदी, के पी सक्सेना, सुरेंद्र शर्मा )सरीखों के जरिए कविता के नए मुहावरे सामने आए लेकिन क्या उसे वाकई में विशुद्ध तौर पर कविता कहा जा सकता है। 90 के शुरूआती दौर तक भी कवि सम्मेलनों के बारे में सुनने को गाहे-बिगाहे मिल जाता था। उसके बाद विश्व हिंदी सम्मेलनों में भी हिंदी कवियों को विदेश भ्रमण का बेशकीमती मौका मिला लेकिन त्रासदीपूर्ण ये रहा कि यहां आम तौर पर कवि का चयन उसकी कविता के स्तर और लोकप्रियता के आधार पर नहीं बल्कि राग दरबारी होने के स्केल के आधार पर होता रहा है। लेकिन इसे छोड़िए।
अब सफल कवि होने के औजार और हथियार दोनों ही बदल गए हैं। झोलाछाप कवि अब नहीं चलता। मौजूदा कवि वेबसाइट बनाता है, ईमेल करता है,ट्विटिंग करता है, दुनिया से पल-पल जुड़ा रहता है, फेसबुक पर अपने सेमिनारों की तस्वीरें डाउनलोड करता है और उसी पर अफनी कविता की दो-चार पंक्तियां भी चिपका देता है। कवि अब श्रोता से अपनी कविता सुनाने का इसरार नहीं करता, वह सीधे उन तमाम लोगों को ईमेल कर देता है, भले ही उनकी कविता में रूचि हो या न हो। फीडबैक के लिए उसे कवि सम्मेलनों की वाह-वाह के लिए सूखे पीड़ित की तरह तरसना नहीं पड़ता। उसे मेल पर ही सबके ईमेल नसीब हो जाते हैं।
तो सब कुछ बदला है। कवि भी, कविता भी लेकिन नहीं बदला तो मीडिया का रवैया। इलेक्ट्रानिक मीडिया से आज भी गंभीर कवि नदारद हैं। नई पीढ़ी़ के अंग्रेजी वाले यही सोच कर बड़े हो रहे हैं कि हिंदीवालों की कविता का स्तर सिर्फ छिछोरेपन तक ही है। प्रिंट में कवियों की खबर तब छपती है जब कोई खास बड़ा या विवादास्पद नेता या कवि उस किताब का विमोचन करता है या फिर कवि की मौत हो जाए तो फिर एक कालम की जगह कोने में सरक जाती है। यहां एक वर्ग उन कवियों का भी है जो विवादों को बुनने में माहिर हैं। वे बात-बेबात बिदकते हैं या कुछ ऐसी बेतर्की और सरकी हुई बातें कहते हैं कि छापने वालों को सब्जी के लिए मसाला मिल जाता है। ऐसे कवि तकरीबन पूरे साल ही खबर में बने रहते हैं। वे दिल्ली इंडिया हैबिटाट या फिर इंडिया इंटरनेशनल सेंचर में घूमते हैं और जिसे खाने के लिए बुलाते हैं, उसी की जेब से बिल का पैसा भी निकलवा लेते हैं। कवियों की यह जमात कविता की कम और कवियों के निजी जीवन के  स्वेटर उधेड़ने में ज्यादा समय खर्च करती है।
रही बात राजनेताओं की तो नए राजनेताओं को तो वैसे ही हिंदी की कविता समझ में आती नहीं। कविता में उन्हें कोई वोट बैंक भी नहीं दिखता। कविता कलावती नहीं है, न ही वह मायावती है। वह तो बस लिखने वालों की आपसी सहमति है। राजनेता के लिए कविता कब भी भूली बात हो गई। जो बचे पुराने नेता तो वो भी अपने कविता संग्रह छपा कर अब चूक चुके हैं और जो नए नेता आएंगे, वो संसद में इस बात का बिल पास करवाएंगे कि मरती हुई कविता में धड़कनें डालने के लिए कितने लाख बजट की तुरंत जरूरत है।
तो कविता के नाम पर कूटनीति, राजनीति, वाकनीति सब होती रही है, आगे भी होगी। लेकिन यहां गौर करने की बात यह है कि तमाम उपेक्षाओं, विवादों और हेराफेरियों के बावजूद कविता जिंदा है। युवा इन्हें पढ़ रहे हैं, गुनगुना रहे हैं। बहुत से घरों में आज भी कविता किसी पुरानी डायरी में गुलाब के सूखे फूल के साथ आलिंगन किए बैठी है। इस कविता की खुशबू को कोई राजनीति छीन नहीं सकती।यहां पाश की कविता की एक पंक्ति याद आती है – सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना। तो यहां सपने अभी मरे नहीं हैं। सपने जिंदा है, कविता भी जिंदा है, मीडिया कविता को सहलाए या न सहलाए। नेता को कविता का ककहरा समझ आए न आए, कविता ने अपनी राह खुद चुनी है, आगे भी चुनेगी। जय हो।

(यह लेख 5 नवंबर, 2009 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

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8 Responses

  1. वर्तिका तुम्हारे इस प्रस्तुति ने वाकई सच व झूठ का आइना सामने ला दिया, और सच्चाई कभी भुलावे में नहीं आती और हिन्दी कविता एक सच्चाई है. जिसके चेहरे पर पाउडर पोता जा रहा है लेकिन पाउडर पोतने वाले यह नहीं जानते कि चेहरा धुला भी जायेगा और सच्चाई सामने आएगी, प्रयास हमें ही करना है वह भी सच्चाई से!
    उत्कृष्ट लेख!
    रत्नेश त्रिपाठी

  2. यहां गौर करने की बात यह है कि तमाम उपेक्षाओं, विवादों और हेराफेरियों के बावजूद कविता जिंदा है। युवा इन्हें पढ़ रहे हैं, गुनगुना रहे हैं। बहुत से घरों में आज भी कविता किसी पुरानी डायरी में गुलाब के सूखे फूल के साथ आलिंगन किए बैठी है।
    sahi kaha yuva inhe gunguna rahe hain aur gungunate he rahenge 🙂

  3. जिंदगी , कविता और सपने
    एक दूसरे से जुड़े हैं
    एकसाथ जन्मे हैं एक साथ जियेंगे
    आयोजन के बारे में पढ़ कर अच्छा लगा

  4. तमाम उपेक्षाओं, विवादों और हेराफेरियों के बावजूद कविता जिंदा है।
    कविता मरती नही है क्योकि यह मूर्त है ही नही.

  5. इस तरह तो सपने ज़रूर मर जाएँगे……………………………..,
    महिना भर होने को है आपकी नयी पोस्ट नहीं आई कुछ नया लिखिए आप पत्रकार(?) लोग भी अगर इतना गैप देंगे तो फिर हम जैसो का क्या होगा खैर समय निकालिए और जल्दी से कुछ नया लिखिए

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