इस बार का कॉलम जेलों में रहकर या जेल को महसूस कर लिखने वाले तीन ऐसे किरदारों पर है, जिनकी कहीं बहुत बात नहीं हुई. मीडिया, फिल्म और जनता- तीनों की ही नजरों से यह अछूते रहे, लेकिन इससे इनकी अहमियत को कम नहीं आंका जा सकता.
पहली किताब एक ऐसी महिला ने लिखी जो खुद जेल में बंद थी और जेल के हर अनुभव को गंभीरता से टटोल रही थी. यह महिला थी- मेरी टेलर. बिहार की हजारीबाग जेल में अपने अनुभवों पर आधारित किताब ‘माई ईयर्स इन एन इंडियन प्रिजन’ के जरिए मेरी टेलर ने भारतीय जेलों का खाका ही खींच कर रख दिया. इसे भारतीय जेलों पर अब तक की सबसे खास किताबों में से एक माना जाता है. इस ब्रितानी महिला को 70 के दशक नक्सली होने के संदेह में भारत में गिरफ्तार किया गया था. 5 साल के जेल प्रवास पर लिखी उनकी यह किताब उस समय की भारतीय जेलों की जीवंत कहानी कहती है. इसमें उन्होंने जेलों में महिलाओं की स्थिति, मानसिक और शारीरिक आघात, अमानवीय रवैये और बेहद मुश्किल हालात को अपनी नजर से काफी महीनता से पिरोया है.
दूसरी किताब है- रूजबेह नारी भरूचा की लिखी– ‘सलाखों के पीछे’. इस किताब का न तो इंटरनेट पर कहीं कोई जिक्र मिलता है और न ही यह किसी लाइब्रेरी में आसानी से मिलती है. इसके लेखक के बारे में भी कोई खास जानकारी उपलब्ध नहीं है. यह किताब खासतौर से हरियाणा और महाराष्ट्र की जेलों का सच्चा खाका खींचती है और पूरी तरह से जमीनी हकीकत बयान करती है. पेशे से पत्रकार और लेखक रूजबेह नारी भरूचा ने इस किताब को लिखने के दौरान खुद अलग-अलग जेलों में जाकर बंदियों से बात की और उन्हें अपने शब्दों मे पिरोया. किताब में जेलों की अंदरूनी स्थिति और खास तौर से अपने बच्चों से मिलने के लिए बेताब महिलाओं की बेबसी का बहुत मार्मिक चित्रण किया गया है. इस किताब में ऑस्कर वाइल्ड की शामिल की गई इस कविता का उल्लेख यहां जरूरी लगता है –
यह भी मैं जानता हूं और समझदारी इसमें हैं
कि प्रत्येक इसको जानता–
कि हर जेल जो आदमी बनाते हैं
वह लज्जा की ईंटों से बना है
और इस पर सलाखों से चारदीवारी कर देते हैं
ताकि ऐसा न हो कि ईसा मसीह देख लें
कि आदमी कैसे अपने भाइयों का अंग-भंग करते हैं.
अति चालाकी के काम
जहरीले पौधों की तरह
जेल की हवा में खिलते हैं.
और मनुष्य के अंदर जो कुछ भी अच्छा है
वह वहां नष्ट हो जाता है और सूख जाता है.
गहरी वेदना भारी दरवाजे की प्रहरी बन जाती है
और नैराश्य वार्डर.
कि प्रत्येक इसको जानता–
कि हर जेल जो आदमी बनाते हैं
वह लज्जा की ईंटों से बना है
और इस पर सलाखों से चारदीवारी कर देते हैं
ताकि ऐसा न हो कि ईसा मसीह देख लें
कि आदमी कैसे अपने भाइयों का अंग-भंग करते हैं.
अति चालाकी के काम
जहरीले पौधों की तरह
जेल की हवा में खिलते हैं.
और मनुष्य के अंदर जो कुछ भी अच्छा है
वह वहां नष्ट हो जाता है और सूख जाता है.
गहरी वेदना भारी दरवाजे की प्रहरी बन जाती है
और नैराश्य वार्डर.
इस किताब का प्राक्कथन किरण बेदी ने लिखा है, लेकिन प्रकाशक ने उनका नाम कुछ इस तरह से छापा है कि लगता है कि मानो किताब की लेखिका वही हों. मेहनत से लिखी गई एक खालिस किताब मीडिया की आंखों से परे कहीं भीड़ में ही खो गई.
तीसरा लेखक इन दोनों से अलग है. यह लेखक है- सुधीर कुमार. लगभग डेढ़ दशक पहले गोवा केंद्रीय कारागार में एक कैदी थे सुधीर कुमार. देश की तमाम ख्यात पत्रिकाओं में उसकी चिट्ठियां बतौर पाठकीय प्रतिक्रियाएं छपती रहीं थीं. तमाम नए पुराने लेखकों के पास उनके आलोचकीय पत्र बाकायदा पहुंचते रहे. उन पर नशीली पदार्थों की तस्करी करने का आरोप था. पर सुधीर लगातार पढ़ते और गढ़ते रहे और उन्होंने बहुत से दूसरे कैदियों को भी लिखने-पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया. उऩ्होंने जेल को अपनी लेखकीय कर्मभूमि बना डाला. उनकी चिट्ठियां और बाद में उनकी आत्मकथा भी ‘हंस’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छपी थी. बहुत पहले सुधीर जेल से आजाद हो गए, पर हैरत की बात यह कि खुली दुनिया में दाखिल होते ही उनकी वह पहचान, उनका वह हस्तक्षेप साहित्यिक दुनिया से लगभग खत्म होता चला गया, लेकिन यह जरूर पता लगा कि जेल से रिहाई के बाद उन्हें एक पुस्तकालय में लाइब्रेरियन की नौकरी मिल गई.
यह सच है कि जेल जाने वालों में कुछ तो पहले से ही लेखक थे, लेकिन यह भी हुआ कि बहुत-से लोगों को जेल ने लेखक बना दिया. दोनों ही दृष्टियों से इन लेखकों ने जेल साहित्य को समृद्ध ही किया. कमाल की बात यह है कि जेलों के नाम पर होने वाले शोध में भी अक्सर जेल का वही सच और वही साहित्य चर्चा में आता है जिसे मीडिया लपकती है. बाकी जेल की दुनिया की ही तरह कहीं गुमनामी में खो जाता है.
यह एक कड़वा सच है…
3 Responses
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अरे हुजूर वाह ताज बोलिए : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है…. आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी….. आभार…
जी। अभी देखा। आपका आभार।
Prison has been a platform in which many great works have produced, and today we learn about them under the title of prison literature. Prison has been successful in turning many of its inmates into writers. But none of us have ever heard about these books nor about these writers. These people have been forgotten by most people. Thanks to Vartika Mam for informing the readers about these people, and I hope we get the chance to read these books also. #tinkatinka #prisonreforms #humanrights