एक थी भंवरी देवी, एक थी प्रिदर्शिनी मट्टू, एक थी नैना साहनी। इनका नाम हम जानते थे। लेकिन एक थी
वो, एक थी यह। देश में एक मिनट में होने वाले कम से कम तीन अपराध। किसी जघन्य अपराध की बलि
चढ़तीं औरतें जिन पर एक कॉलम की खबर आई या कई बार वो भी नहीं। खबर में उम्र का जिक्र, 5 डबल्यू,1
एच। जांच और अदालती कार्यवाही के बीच जनता की स्मृति से असली और नकली नाम अक्सर कहीं खो जाता
है और उनके मानस से अपराध का दर्द भी।
लेकिन एक थी निर्भया। उसके साथ जो हुआ, उसने देश के अवचेतन को हिलाया, भिगोया, सहमाया और
हिम्मत दी कि वह एकजुट हो जाए। जनता के सब्र का बांध आखिर में टूट गया। सत्ता पर कांच की चूड़ियां
और बेजान सिक्के फेंक कर उसने वह संदेश दिया जो संचार की एक नई परिभाषा है। 16 दिसंबर के बाद इस
देश से अपराध, खास तौर पर महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध पर एक नई बहस का पौधा उगा था
लेकिन वो फिर कहीं गुम हो गया लगता है।
यहां सवाल का बवाल भी याद आता है। शशि थरूर सबसे पहले कहते हैं कि पीड़ित का नाम क्यों न बताया
जाए। भारत जैसे देश में खास तौर पर पीड़ित और उसका परिवार डर और सदमे में रहता है। वह चुप्पी साध
लेता है। हमारी परिपाटी ऐसी है कि पीड़िता बरसों यह कहने से बचती है कि वह बलात्कार या घरेलू हिंसा की
शिकार है क्योंकि नाम सार्वजनिक होने के बाद जो नई यात्रा शुरू होती है, वह सिवाए एक पीड़ित के कोई भी
समझ नहीं सकता। यही वजह है कि तमाम चमकदार कानूनों और धमाकेदार बहसों के माहौल के बीच भी
भारत के पीड़ित के साथ अक्सर बनी रहती है – एक भीगी चुप्पी।
लेकिन इस बार चुप्पी टूटी थी। हालांकि इस बार मीडिया ने पूरी सतर्कता बरती कि उसकी वजह से पीड़ित की
पहचान न खुले पर पीड़ित के परिवार ने चुप्पी तोड़ दी। यह हिम्मत थी और समाज के प्रति गूढ़ विश्वास भी।
बलात्कार की रिपोर्टिंग का एक नया चेहरा उभर कर सामने आया। पर बात नाम की है। शेक्सपीयर ने कहा था
– नाम में क्या रखा है। पर 16 दिसंबर के बाद से नाम की जरूरत का आकार इतना बड़ा हो गया कि बाकी
चीजें बेनाम लगने लगीं। देश की शीर्ष नेता खुद उसके घर गईं और अब एक राजनीतिक दल के सौजन्य से
ज्योति के नाम पर रख दिया गया है एक साइंस सेंटर। इसके अपने खतरे हैं।
पीड़ित पहले भी थे, आज भी हैं, कल भी होंगे। तो क्या जिन पीड़ितों का नाम सार्वजनिक न हुआ, वे कम हो
गए। क्या सार्वजनिक होने के बाद पीड़ित के सम्मान का यही एक इकलौता रास्ता है, क्या जनता और मीडिया
सारी ताकत के साथ एकजुट होकर एक आंदोलन न बनाती तो यह मामला इस परिप्रक्ष्य में सामने आता, जैसे
आया है और क्या नाम के इस नए पन्ने के खुलने के बाद आने वाले समय में पीड़ितों के सामने अपने नाम
को बेपरदा करने का मानसिक दबाव बनेगा और जो अपना नाम न बताना चाहेंगें, उनके लिए राजनीति लैंस
किसी और कोण से काम करेगा।
और इससे बड़ा सवाल। क्या पीड़ित के सम्मान के और विकल्प हैं। असल में भारत जैसे देश में नाम की
अपनी एक कहानी है। कुछ नामों पर इतनी सड़कें हैं कि पूरी दुनिया की सड़कें सकुचा जाएं। चौराहे, मूर्तियां,
पुल, डाकटिकट वगैरह किसी विशेष के नाम पर करने की लंबी कवायद चलती है। कुछ नाम हमें वाकई योग्य
दिखते हैं जबकि कई योग्यता के पैमाने पर अ-मान्य। हमारे यहां नामों की कहानी राजनीतिक पहिए से चिपकी
मानी जाती रही है और नामों को लेकर तीखी टिप्पणियों का इतिहास भी रहा है।
इन सारी कवायदों के बीच कोशिश होती है कि नाम जिंदा रहे। काम भी जिंदा रहे और आने वाली पीड़ियां उस
नाम को आगे ले जा सकें। लेकिन जहां तक सवाल पीड़ित का है, तो उसका असल सम्मान शायद कार्यवाई से
होता है। उन कामों से कि वे घटनाएं दोबारा न हों और उन कामों से भी कि पीड़ित को यह विश्वास जगे कि
सत्ता, समाज और पुलिस सच में उसके साथ है।
पर तमाम कोशिशों के बाद भी ऐसा होता लगता नहीं। अब भी यह बात कठोरता और एकमने के साथ सामने
नहीं आई है कि किसी भी दल में ऐसे उम्मीदवार को जगह नहीं मिलेगी जो ऐसी वारदातों के आरोप में घिरा
पाया जाएगा। महिला अधिकारों और उसकी सुरक्षा का जिम्मा लिए संस्थाओं की तरफ से भी कोई ऐसा ठोस
काम नहीं हुआ है कि रौशनी दिखे। निर्भया जिंदगी और मौत से लड़ती रही और बाहर औरत के खिलाफ
जमकर बयानबाजी भी होती रही। जिन्होंने बयान दिया, उनका किसी राजनीतिक दल ने बहिष्कार नहीं किया।
हेल्पलाइन शुरू हुई पर साथ ही लड़खड़ा गई।
पीड़ित के दर्द को सबसे ज्यादा आत्मसात इस देश की जनता और मीडिया ने किया। लगातार कटाक्ष और
अपमान का सामना करता भारत का अपरिपक्व कहलाने वाला मीडिया निर्भया मामले में बेहज संजीदा दिखा।
कई चैनलों ने नए साल के विशेष कार्यक्रम तक रद्द कर दिए। वे निर्भया को भूले नहीं। उन्होंने भूलने दिया भी
नहीं। लेकिन सत्ता शायद फिर भूल गई। 1000 करोड़ के निर्भया फंड का क्या हुआ, कोई नहीं जानता (हां, मार्च
2015 में एक अंग्रेजी अखबार ने यह खुलासा जरूर किया कि कम से कम 800 करोड़ अब तक खर्च नहीं हुए
हैं और जो बाकी खर्च हुए, उनका भगवान मालिक)
जिसका काम उसी को साजे। सम्मान करने का काम जनता पर छोड़ा जा सकता है। वह कीजिए जिसकी जनता
को आपसे दरकार है – और वह है – एक सशक्त सुशासन, सतर्क विपक्ष, सक्रिय आयोग, मानवीय पुलिस,
समय पर न्याय और शालीन व्यवहार।
श्रद्धांजलि यहीं से शुरू होती है और ऐसी श्रद्धांजलियां जीती भी हैं।
(यह लेख 2014 में छपी किताब – ख़बर यहां भी – का एक हिस्सा है। इसे सामयिक प्रकाशन ने छापा है)
One response
Stree Shakti awardee Dr Vartika Nanda has penned the pain of women victims. This is painful that these types of molestation and violation is not taken seriously by the government. Strict punishmentwill definately reduce the crimes.#vartikananda#tinkatinka#jail