एकला कोई नहीं चलता
साथ चलते हैं अपने हिस्से के पत्थर
किसी और के दिए पठार
नमक के टीले
जिम्मेदारी से लदे जिद्दी पहाड़
दुखों के गट्ठर
कभी कभी होता ऐसा भी है
साथ चल पड़ते हैं मीठे कुछ ख्याल
किसी के होंठों से फूटती महकती हंसी
सरकती युवा हवा
बारीक लकीर सी कोई खुशी
ये सब आते हैं, कभी भी चले जाते हैं
ठिकाना कभी तय नहीं
खानाबदोशी, बदहवासी, उखड़े कदम
लेकिन इन सबमें टिके रहती है
पैरों के नीचे की जमीन
सर का टुकड़ा आसमान
उखड़ी-संभली सांसें
और एक अदद दिल
एकला कहां, कौन, कैसे
सुर (जनसत्ता 13 नवंबर, 2011)
कोई सुर अंदर ही बजता है कई बार
दीवार से टकराता है
बेसुरा नहीं होता फिर भी
कितनी ही बार छलकता है जमीन पर
पर फैलता नहीं
नदी में फेंक डालने की साजिश भी तो हुई इस सुर के साथ बार-बार
सुर बदला नहीं
सुर में सुख है
सुख में आशा
आशा में सांस का एक अंश
इतना अंश काफी है
मेरे लिए, मेरे अपनों के लिए, तुम्हारे लिए, पूरे के पूरे जमाने के लिए
पर इस सुर को
कभी सहलाया भी है ?
सुर में भी जान है
क्यों भूलते हो बार-बार
3 Responses
अच्छी लगी।
True in spirit ! Very well said .
True in spirits..a lot to take away ! All the best !