आंसू बहुत से थे
कुछ आंखों से बाहर
कुछ पलकों के छोर पर चिपके
और कुछ दिल में ही

सालों से अंदर मन को नम कर रहे थे
आज सभी को बाहर बुला ही लिया

आंसू सहमे
उनके अपने डर थे
अपनी सीमाएं
पर आज आदेश मेरा था
गुलामी उनकी

हां, आमंत्रण था मेरा ही
जानती हूं अटपटा सा
पर आंसुओं ने मन रखा
तोड़ा न मुझे तुम्हारी तरह
वे समझते थे मुझे
और मैं उन्हें एक साथी की तरह

आज इन्हें हथेली पर रखा
बहुत देर तक देखा
लगा
एक पूरी नदी उछल कर मुझे डुबो देगी

पर मुझे डर न था
मारे जाने की सदियों का धमकियों के बीच
मन ठहरा था आज

तो देखे आंसू बहुत देर तक मैनें
फिर पी लिया
मटमैला, कसैला, उदास, चुप, हैरान स्वाद था

मेरे अपने ही आंसुओं का
आज की तारीख
इनकी मौत है
पर इनकी बरसी नहीं मनेगी
कृपया न भेजें मुझे कोई शोक संदेश।

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2 Responses

  1. मुझे "इस बार की दीवाली" कविता, दिल को छु गयी जहाँ तक बात आँसू की है तो मैं अकेले छुप के रोता हूँ ताकि मेरी वजह से किसी को तकलीफ न हो ।

    धन्यवाद

  2. बहुत खूब वर्तिका जी…एक सुन्दर कविता के लिए आपको बधाई ! ईश्वर करे आपकी कलम से ऐसे ही सुन्दर रचनाएं निकलती रहें।

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