4 जनवरी को तकरीबन सारा दिन कई न्यूज चैनल यही बताते-समझाते रहे कि आंशिक सूर्य ग्रहण पर क्या करें, क्या न करें। कब कौन सा मंत्र पढ़ें, क्या खाएं, क्या न खाएं, आज क्या पहनें, ग्रहण के दौरान और बाद में क्या-क्या उपाय करें। दिशाओं का बोध दिया गया और धर्म –कर्म के हिसाब से लंबी विवेचनाएं की गईं।
ये कहानियां ऐसी रोचक-सरस और क्रमवार कर दी गईं, ग्रहण के दौरान स्नान के इतनी बार विजुअल दिखाए गए और कथित आस्थाओं के ऐसे कलश सजा दिए गए कि सचिन का अपने करियर का 51वां टेस्ट शतक पूरा करना भी टीवी चैनलों की इस बाबानुमा आपाधापी को रोक नहीं पाया। सचिन पर ब्रेकिंग न्यूज आई, फोनो, वीओ हुए और फिर ग्रहण की डुबकी लगने लगी। सचिन चैनलों पर ग्रहण के खत्म होने और बाबाओं की अपनी दुकान के समेटने के बाद ही चैनलों पर पूरी तरह से हावी हो सके।
इससे ठीक पहले नए साल की शुरूआत पर जब देश-दुनिया में गाजे-बाजे बज रहे थे और तमाम चैनल ठुमकने में लगे थे, तब भी न्यूज परोसने वाले चैनल मुफ्त में यह ज्ञान देने से खुद को रोक नहीं पा रहे थे कि इस साल के पहले दिन क्या करना शुभ या अशुभ होगा। किस राशि के लिए यह साल खुशियां बरसाएगा, किसके लिए मातम आने की आशंका है। फिर उपायों की झड़ी भी लगी कि क्या करने या न करने से दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है। कौन से रत्न कैसा कायापलट कर सकते हैं और किन रंगों से जिंदगी की कहानी ही बदल सकती है।
यह एक अजीब कहानी है। जिन चैनलों को खबर देने के लिए 24 घंटे का बने रहने की अनुमति दी गई थी, वे कई बार विशुद्ध खबर कम और कर्मकांड ज्यादा बताते हैं। इस काम में वे जितनी ताकत लगाते हैं, उसे देख कर कई बार आह निकलती है कि काश इतनी ताकत चैनल अपने कंटेट को परिष्कृत करने में लगा देते या फिर इतना पैसा उन पत्रकारों के कल्याण में लगा देते जो चैनल के स्वभाव के अनुरूप खबर की तलाश में दिनभर खाक छानते फिरते हैं।
यहां एक बात बहुत खास है। यह सारा तामझाम इंसानी फितरत की उपज है। सारा मामला डर का है। सच बात तो यह है कि खबर जितना लुभाती, सुझाती, बताती, जतलाती है, ठीक उतना ही कई बार डराती भी है। धर्म का कथित धंधा भी इसी डर की जमीन पर टिका है। यह बाहरी ठोस विश्वास की तलाश, आत्मविश्वास की कमी और डर के व्यापार पर टिका है। इसे गणित साबित नहीं कर सकता। यहां गणित का चुप रहना ही बेहतर है। लेकिन जिसके पास डर है, उसके लिए यह किसी संबल से कम नहीं। यही इसकी नींव है, इसका आधार है।
लेकिन एक बात भूलनी नहीं चाहिए। धर्म के इस भव्य, मोबाइल और स्मार्ट होते बाजार ने कई बार ऐसे शानदार नुस्खे दिए हैं जिसने व्यकितगत लाभ भले ही न दिए हों लेकिन मानव-पशु जाति का कुछ उद्धार जरूर किया है, साथ ही पर्यावरण का भी। गाय,काले कुत्ते या चिड़िया को रोटी खिलाना, किसी जरूरतमंद का पेट भरना, तुलसी के पौधे या पीपल के पेड़ को पानी देना – यह सब यह सब उन पुरानी मान्यताओं की तरफ लोगों को मोड़ते हैं जो ग्लोबल दुनिया जाने कब की भूल गई होती।
इसमें एक बात और मजे की है। इन्हें देखने वाले लोग खुलकर कहते नहीं कि वे इन्हें देखते हैं या बाबाओं के फार्मूलों का अनुसरण करते हैं। वे इस बात को छिपा कर रखते हैं। यहां जैसे स्टेटस आड़े आ जाता है। जैसे लगता है कि यह आधुनिक बनती छवि को खा न ले। यही वे लोग जो न्यूज चैनलों की टीआरपी को उस वक्त बढ़ा देते हैं जब बाबाओं के प्रवचन चरम पर होते हैं।
पर इन सबके बीच यह बात जरूर सोचने की है कि क्या जरूरत से ज्यादा परोसे जाने वाला यह डर, विश्वास या अंधविश्वास न्यूज चैनलों के कर्तव्यों की परिधि में आता है। बाबा लोगों के पास धार्मिक चैनलों का प्लैटफार्म है ही और वे ब्रांड एंबैसेडर के तौर पर वहां अपना तंबू तान कर दिन भर बैठते भी हैं। ऐसे में न्यूज चैनलों को क्या अपनी खुद की गढ़ी इस मजबूरी से बाहर आने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। कभी राजू का मसखरापन तो कभी राखी की नौटंकी दिखाते इन चैनलों को क्या अब न्यूजवाला बने रहने का पाठ दोबारा याद करने की जरूरत तो नहीं। क्या अब यह सोचने का वक्त नहीं है कि उन्हें अब वही करना चाहिए जिसके लिए भारत सरकार ने उन्हें लाइसेंस दे रखा है।
(यह लेख 9 जनवरी, 2011 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)
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