कविता का ये दरवाजा नितांत निजी तरफ जाता है
मत आओ यहां
बाहर इनकी हवा आएगी नहीं
अंदर सुखी हैं ये अपनी गलबहियों में
ये कविताएं बुहार रहीं हैं अंदर आंगन
बतिया रही हैं आपस में
कुछ कर रहीं हैं गेहूं की छटाई
कुछ चरखे पर कात रही हैं सूत
और कोई लगाती लिपस्टिक सूरज को बनाए आईना
अंदर बहुत चेहरे हैं
शायद मायावी लगें ये तुम्हें
अंदर जंगल हैं कई, झीलें, नदियां, उपवन, शहर, गंवीली गलियां
कमल, फूल, सब्जियां और चरती-फकफकती बकरियां भी
इन संसार का नक्शा किसी देश के किसी मंत्रालय ने पास नहीं किया
यहां की लय, थरकन, स्पंदन दूसरा ही है
कहीं तुम अंदर आए
तो साथ चली आएगी बाहर की बिनबुलाई हवा
बंध जाएंगे यहां के सुखी झूले
स्त्री के अंदर की दुनिया
अंदर ही बुनी जाती है
रोज दर रोज
दस्तावेज नहीं मिलेंगें इनके कहीं
मिलेगी सिर्फ पायल की गूंज
ठकठकाते दिलों की धड़कन
खिलखिलाते चेहरे
सपनों की गठरियां
और उनके कहीं भीतर जाकर चिपके
बहुत से आंसू
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स्त्री के अंदर की दुनिया
अंदर ही बुनी जाती है
रोज दर रोज
दस्तावेज नहीं मिलेंगें इनके कहीं
सच है. स्त्री खुद एक तिलिस्म है. एक ऐसा तिलिस्म, जिसके बाहर उसके दुख नहीं जाते, जिसे तोड़ने की कोई कोशिश भी कभी नहीं की जाती. बहुत सुन्दर कविता. उन खास महिलाओं की, जिनके दुख सबसे अलग हैं.