बात अरूण जेटली के सौजन्य से निकली है। हाल ही में अरूण जेटली ने इस बात का खुलासा किया कि लेह में बादल फटने से हुई तबाही के बाद सरकार ने 115 करोड़ रूपए की राहत दी जबकि इससे कहीं ज्यादा खर्च कांग्रेस पार्टी के अपने नेताओं के सरकारी विज्ञापनों पर खर्च होता है। इसके लिए उन्होंने मिसाल दी है 20 अगस्त को राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर दिए गए विज्ञापनों की। उनके मुताबिक इस मौके पर देश भर के अखबारों में जारी विज्ञापनों पर कम से कम 150 करोड़ रूपए खर्च किए गए जो कि लेह पर किए गए खर्च से ज्यादा तो है ही, देश के कई राज्यों में मूलभूत जरूरतों को बेहतर करने के लिए होने वाले खर्च से भी ज्यादा है।

 

यहां पर सबसे पहले यह जान लेना चाहिए कि सरकारी प्रचार और विज्ञापन को लेकर दिशा-निर्देश आखिर कहते क्या हैं। इसमें चार केंद्रीय बिंदु हैं यह सरकार की जिम्मेदारियों से जुड़े हुए हों, सीधे-सपाट तरीके से उद्देश्य की पूर्ति करते हों, वस्तुनिष्ठ हों और उन्हें प्रचारित किए जाने की वजह साफ हो, वे पक्षपातपूर्ण या विवादात्मक न हों, किसी पार्टी के राजनीतिक प्रचार का औजार न हों और ऐसी समझदारी से किए जाएं कि वे जनता के पैसों के इस खर्च की न्यायसंगत वजह पेश करते हों।

 

 

इस में कोई शक नहीं है कि चाहे राजीव गांधी हों, इंदिरा गांधी या फिर नेहरू इन सभी का देश के विकास और निर्माण में अविस्मरणीय योगदान रहा है लेकिन क्या सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्री, बाल गंगाधर तिलक, अरूणा आसफ अली, सुरेंद्र नाथ बनर्जी आदि को इस तराजू में कमतर आंका जा सकता है। तो फिर ऐसा क्या है कि एक साल में कांग्रेस परिवार के भरपूर विज्ञापन दिखाई दे जाते हैं जबकि कांग्रेस परिवार की परिधि से बाहर के नेताओं का नंबर उनके जन्म दिवस या पुण्यतिथि पर लगना भी मुश्किल हो जाता है।

 

असल में यहां खेल सत्ताओं के आस-पास ही घूमता है। जिसकी सत्ता होती है, उसके दायरे के तमाम नेता एकाएक एक बड़े कैनवास पर दिखाई देने लगते हैं। जैसे कि मीरा कुमार के लोकसभा अध्यक्ष बनने के बाद इस बार बाबू जगजीवन राम के जन्मदिवस पर एक विस्तृत डाक्यूमेंट्री ही बना दी गई। ऐसा नहीं है कि इससे पहले बाबू जी का योगदान कम समझा गया था लेकिन चूंकि इस बार मीरा कुमार का कद काफी ऊंचा हो आया था, तो ऐसा संभव हो सका।

 

दरअसल सरकारी स्तर पर चमचागिरी की परंपरा हमेशा से रही है लेकिन यह अखरता तब है जब इसके लिए पैसा जनता की जेब से उगाहा जाता है। तमाम नेताओं की यादों में जारी होने वाली सरकारी विज्ञापन उस स्रोत से निकलते हैं जिसका इस्तेमाल जनता की बेहतरी के लिए किया जा सकता है। यहां यादों को जिंदा रखने की जिम्मेदारी का खामियाजा आखिर जनता क्यों भुगते।

 

अब आज अगर भाजपा सत्ता पर आसीन हो जाए तो वीर सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी सरीखे कई नेताओं की लाइन अखबारों में लग जाएगी। मीडिया हाउस उनसे जुड़ी अहम तारीखों को अपनी फारवर्ड प्लानिंग लिस्ट में डाल लेंगे ताकि उनकी यादों के साथ न्याय हो सके। सत्ता बदलते ही सत्तारूढ़ दिवंगत नेताओं की यादों के समारोहों का जैसे उत्सव चल निकलता है।

 

लेकिन इसमें एक फायदा जरूर होता है। छोटे और मझोले अखबार इन्हीं विज्ञापनों के भरोसे फलते-फूलते हैं। प्रेस काउंसिल आफ इंडिया का दिशा-निर्दश यह कहता है कि आरएनआई में जो छोटे और मझोले अखबार पंजीकृत हैं, उन्हें हर साल एक नियत संख्या में सरकारी विज्ञापन जरूर दिए जाने चाहिए ताकि वे अपनी गुजर कर सकें और बड़े अखबारों के दबाव तले यूं ही मर न जाएं। इन अखबारों के लिए जन्मतिथि और पुण्यतिथि वाले ये विज्ञापन किसी रामबाण से कम नहीं। एक सर्वे के मुताबिक भारत में इस समय 300 बड़े अखबार हैं, जबकि 1000 से ज्यादा मझोले और 1100 से ज्यादा छोटे अखबार हर रोज छपते हैं। इनके लिए ये विज्ञापन ताकत के कैप्सूल हैं लेकिन इन्हें ये कैप्सूल यूं ही नहीं मिल जाया करते। यहां गलियारों में कई दिनों तक जूते घिसने पड़ते हैं औऱ कई राज्य सरकारों में तो क्लर्कों से लेकर ऊपरी स्तर तक इन यादों वाले विज्ञापन पाने के लिए सेवा भी करनी पड़ती है। 

 

वैसे सवाल यह भी है कि जिस भाजपा ने कांग्रेस के सरकारी विज्ञापनों पर आपत्ति जताई है, क्या वह यह संकल्प ले सकती है कि अगर वह कभी सत्ता में आई तो वह इस तरह सरकारी फंड को पानी में नहीं बहाएगी। जवाब में चुप्पी के मिलने के आसार ज्यादा हैं।

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4 Responses

  1. बहुत सही बात. पार्टियां जब अपोजिशन में होती हैं, तब जिन कामों का विरोध करती हैं, सत्तासीन होने पर वही काम दुहराती दिखाई देती हैं.

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