दिल्ली के एक बड़े रेस्त्रां समूह के किसी भी रेस्त्रां में गर्मी के इन महीनों में जाना बड़ा सुखद लगता है। वजह वहां के पकवान या फिर ठंडे पेय नहीं हैं। वजह है वहां पर उन युवाओं को देखना जो इन दो महीनों में यहां इंटरन्शिप के लिए आते हैं। ये युवा रिसेप्शन पर दिखाई देते हैं, खाने का आर्डर लेते हैं, सामान देते हैं, टेबल से झूठे बर्तन उठाते हैं और ग्राहक की शिकायत को भी अदब से सुनते और तर्क से उनका जवाब देते हैं। इन युवाओं के पास किसी से बतियाने का समय नहीं है। ये अपनी धुन में तल्लीन हैं। इनक पास भरपूर काम है। अगर आप इनसे बहुत इसरार करके बात करना चाहेगें तो ये कारपोरेट मुस्कान के साथ आपको बताएंगें कि ये कुछ सीखने के लिए और पूरे साल के अपने खर्च का कुछ हिस्सा कमाने के लिए यहां पर काम कर रहे हैं। इनके लिए यह काम छोटा नहीं है बल्कि कुछ कर पाने का बेहतरीन अवसर है। ज्यादा टटोलेंगे तो आपको पता चलेगा कि इनमे से कुछेक युवा सिर्फ यहीं पर काम नहीं कर रहे बल्कि वे दूसरी पारी का काम कहीं और भी कर रहे हैं और अपने काम पर इन्हें फख्र है।
इन युवाओं के इस जज्बे को सलाम करने के लिए बार-बार इनसे मिलने जाने का मन करता है। लेकिन ठीक इसी समय दिल्ली के पाश इलाकों में रहने वाले वे युवा भी याद आ जाते हैं जिनकी गर्मी की छुट्टियां थकान उतारने में ही निकल जाती हैं। इन्हें घर से बाहर आने में लू लग जाती है, सुबह जल्दी उठने से रात की बीयर का मजा बेस्वाद हो जाता है और जिनके चेहरे पर एसी के चौबीसों घंटे के पालने के बावजूद मुर्झाहट पसरी रहती है। यह दूसरे किस्म के युवा हैं। ये जिन घरों में पलते हैं, वहां पर कुत्तों और बच्चों की जिंदगी में बहती हुई सुविधाएं होती हैं और इन्हीं में से कई बाद में दलितों की बस्ती में जाकर अपने फोटू छपवा कर बड़े नेता या फिर सरकारी बाबू का दायित्व भी निभा आते हैं। ये दो अलग तरह की जिंदगियां हैं जिनसे तकरीबन रोज ही वास्ता पड़ता है लेकिन मन निराश नहीं होता। मन बार-बार कहता है कि ऐसे रेस्त्रां में काम कर रहे युवाओं की जिंदगी के संघर्ष की कहानी बार-बार दोहराती चली जाए। इसलिए नहीं कि मन उनका शुभ नहीं चाहता,बल्कि इसलिए कि मन उनका बेहद स्थाई शुभ चाहता है। रेस्त्रां में काम करते ये बच्चे जब सिविल सर्विस पास कर जाते हैं या फिर किसी बड़ी कंपनी के कर्ता-धर्ता बन बैठते हैं तो जमीनी हकीकत की पाठशाला में पढ़े सबक भी उनके साथ चलते हैं। ये नहीं भूलते कि कैसे हर रोज इनका सामना जिंदगी के कई जालों से होता था और उनसे गुजर कर कैसे इन्होंने खुद अपने पसीने से अपनी दुनिया को बुना है।
और मजे की बात यह कि ये मेहनतकश युवा मीडिया की कवरेज के लायक तब तक नहीं बनते, जब तक इनके हाथ में कोई तमगा आ नहीं जाता। दूसरी तरफ झुनझुने वाले नवाबजादे खबर तब बनते हैं जब किसी रात शराब के नशे में वे किसी फुटपाथी को कुचल कर भाग रहे होते हैं और फिर उनके पिता उन्हें बचाने की जुगत में लगते हैं।
ये दो अलग-अलग किस्म के युवा असल में इंडिया और भारत हैं। इन दोनों से मिल कर देखिए। जिंदगी का फलसफा समझ में आने लगेगा।  
(यह लेख 21 मई, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

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2 Responses

  1. सचमुच क्‍या इस तरह की जगह अब भारत में भी होने लगी हैं,जहां आप पढ़ाई करते हुए अपनी रोटी भी इज्‍जत से कमा सकते हैं। पढ़कर अच्‍छा लगा।

  2. sahi kaha Vartika ji…har jagah yahi haal hai…bigde nawaabjaade baithe hain aaraam se…par had tab hoti hai jab ye mehnatkash unke hi neeche kaam karne lagte hain…kyunki us nawaab ka baap bhi kabhi mehnatkash tha…

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