चुनावी माहौल की रस्साकशी के बीच हाल ही में मुंबई में कुछ ऐसा भी हुआ जिसने विचलित किया। ये तस्वीरें दहशत और सामाजिक विद्रूपता की थीं। ये तस्वीरें उस परिवार की पत्नी और तीन लड़कियों की हैं जिन्हें परिवार के मुखिया ने सात साल तक कमरे में बंधक बना कर रखा। इन महिलाओं के लिए सूरज की रोशनी सपना था और भरपेट खाना भी। यह सब सात साल तक चला, वो भी एक ऐसे शहर में जिसे सपनों की माया नगरी कहा जाता है। एक ऐसा शह जहां हर साल गरीबी, दहशत, शोषण और प्यार के आस-पास घूमतीं 1000 से ज्यादा फिल्में बनाई जाती हैं जो कि दुनिया में सबसे ज्यादा हैं।
बहरहाल इन महिलाओं को कमरे की चारदीवारी में रखने वाला गोम्स अब पुलिस की गिरफ्त में है। उस पर मुकद्दमा भी चलेगा लेकिन कहानी यहां खत्म नहीं होती। यहां से कहानी शुरू होती है। यह कहानी डर, अपराध और सामाजिक अविश्वास के ताने-बाने को उधेड़ कर समझने के लिए जोर डालती है। गोम्स को डर था कि अगर उसकी पत्नी और बेटियां समाज की गलियों में निकलीं तो वे यकीनन बलात्कार की शिकार हो सकती हैं। हां, बहुत से लोग इसे महज मनोवैज्ञानिक समस्या कह कर इससे निजात पा सकते हैं और उनके लिए गोम्स की गिरफ्तारी कहानी के सुखद और त्रासद अंत की घोषणा हो सकती है लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता।
असल में समाज में सुरक्षा को लेकर विश्वास का टूटना, कानून के ढीलेपन, बलात्कार या छेड़खानी की शिकार युवतियों का तिरस्कार को भुगतना, समाज की नजरों का ढेढ़ापन – ऐसा बहुत कुछ है जो किसी को भी गोम्स बना सकता है। इससे भी आगे हैं – नपुसंक सामाजिक, प्रशासनिक और मीडियाई नीतियां और ढुलमुलापन। भारत में एक मिनट में करीब तीन युवतियां छेड़खानी या बलात्कार का सामना करती हैं। इनमें से ज्यादातर पुलिस और प्रशासन की कृपा से छूट जाते है। जो पकड़े जाते हैं, उनमें से 90 प्रतिशत गवाहों के न होने और केस में पीडित पक्ष के हिम्मत छोड़ देने से छूट जाते हैं। ऐसे में समाज पर विश्वास कौन,कैसे और क्यों करे।
जो पकड़े जाते हैं, जिन का जुर्म वाकई साबित हो जाता है, क्या मीडिया कभी भी यह दिखाता है कि बलात्कारी को अपने कुकर्म के लिए देखिए क्या पीड़ा उठानी पड़ी। क्या मीडिया कभीअपराधी को डराता है? नहीं, बल्कि मीडिया उसको डराता है जिस पर डर पहले से ही हावी है। मीडिया बलात्कार कवर करता है तो उसमें भी वो ‘क्लास ‘ को ध्यान में रखता है। उच्च वर्ग के बलात्कारी की खबर मामूली गलती के आस-पास ही घूमती दिखती है जबकि निम्न वर्ग का बलात्कारी यौन पीड़ित के तौर पर देखा जाता है लेकिन कहीं भी अपराध को अपराध की तरह ट्रीट नहीं किया जाता।
क्या मीडिया यह नहीं जानता कि उसका काम समाज को यह संदेश भी देना है कि अपराध करेगें तो सजा भी भुगतेगें। दरअसल फिल्म और टीवी – दोनों में ही खलनायक का अंत सिर्फ पल भर का होता है जबकि पूरी फिल्म उसके ऐशोआराम के आस-पास घूमती है। दर्शक को उसका यही मखमली पक्ष याद रह जाता है। वह पौने तीन घंटे तक फिल्म में देखता है कि खलनायक के पास नाम, पैसा, रूतबा-सब है। पिटाई चूंकि आखिरी 15 मिनट में सिमट जाती है और तमाम गोरखधंधे करने वाला बस एक गोली से मर कर चैन पा लेता है, इसलिए खलनायक की जिंदगी ज्यादा सुखमय और आसान दिखाई देती है। न्यूज में भी तकरीबन यही फार्मूला चलता है।
एक बात और। अपराध और आत्महत्या – दोनों ही अचानक नहीं घटते। दोनों के साफ लक्षण होते हैं। कई बार यह लक्षण बचपन से दिखने लगते हैं। लेकिन चूंकि बेटा कपूत होकर भी सपूत की श्रेणी से चिपका कर रखना हमारी फितरत है, हम इन लक्षणों को महज शरारत का नाम देकर बचते फिरते हैं। सड़कों पर बेवजह हार्न बजाने वाले, रूआब झाड़ने वाले, घर पर पत्नियों को पीटने वाले, बिगड़े बेटों के लिए दिनोंदिन और आधुनिक साज उपलब्ध करवाने और परिवारों में महिला को निचले पायदान पर रखने वाले लक्षण अपराध की तरफ ही इशारा करते हैं। चूंकि यह कथित तौर पर छोटे अपराध हैं या यूं कहिए कि स्वीकार्य अपराध हैं, इस पर भौंहें नहीं तनतीं। दूसरे यह कि आज भी भारत में अपराध पर आडियंस की रीसर्च पर ज्यादा काम नहीं हुआ है। अमरीका में ऐसे प्रयास जरूर होते रहे हैं। अमरीका में 1950 में हुए एक शोध में यह कहा गया कि अमरीकी समाज में होने वाले अपराधों में से 70 प्रतिशत सिनेमा से उपजते हैं। इसी तरह ब्रिटेन में 1984 में पीयरसन ने दर्शक पर पड़ने वाले असर की विस्तृत विवेचना की।
दरअसल अपराध हर समाज में होते हैं और हर अपराध दूसरे अपराध से किसी न किसी रूप में अलहदा होता है। अपराध पर एक मिनट की स्टोरी कर उसे समेटना टीवी न्यूज मीडिया की मजबूरी है लेकिन आपराधिक होते समाज को परत-दर-परत छीलना क्या उसका काम नहीं है। समाज में गोम्स भी मौजूद हैं और गोम्स जैसों को गोम्स बनाने वाले भी। इसलिए खबर तो उन पर होनी चाहिए जो हर बार कानून से बच निकलते हैं और मोहल्ले दर मोहल्ले में किसी गोम्स को पैदा कर जाते हैं।
अब बात निकली है तो दूर तक जानी ही चाहिए।
(यह लेख 6 अक्तूबर,2009 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)
6 Responses
हालांकि यह लेख मैंने पहले ही दैनिक भास्कर में पढ़ लिया था लेकिन वहाँ तो कमेन्ट देने से बेहतर दिल में रखना ही ज्यादा बेहतर समझा. ब्लोग्स हमारे लिए आज शायद इसलिए भी बेहतर होते जा रहे है क्योंकि ये सिर्फ कहने की आज़ादी ही नहीं देते बल्कि सुनने की सहूलियत भी मुहैया कराते है .तो सुनिए ….
आपने अपराध के बारे में, और उसे फिल्मो से जोड़कर जिस तरह देखा वो काफी कुछ नया लगता. आपकी यह सोच नयी है कि फिल्म और टी.वी. दोनों में ही खलनायक का अंत सिर्फ पल भर का होता है जबकि पूरी पटकथा उसके एशोआराम की बयानी करती है
मै फिल्मो को एक सामान्य दर्शक की तरह देखता इसलिए मै अपने दोस्तों की तरह उनमे सिनेमटोलोजी की खोज नहीं करता. शायद इसलिए उनकी मेरी काफी बहस भी होती लेकिन वो मेरे बहुत अच्छे दोस्त है. आपको याद होगा आपने 'समर २००७' पर एक लेख लिखा था और उसमे वह फिल्म महत्वपूर्ण क्यों है ये बताया था मुझे भी बहुत अच्छी लगी थी लेकिन मेरे कई दोस्तों को वह फिल्म एक बोर ढर्रे पर चलती दिखी. जबकि उस वक़्त के नज़रिए से किसानों की आत्महत्या की समकालीनता और उनकी दरिद्रता व गावों के ठेकेदार महाजन के कुकर्मो का हिसाब इस फिल्म ने बखूबी दिया . खैर आपने बहुत अच्छा लिखा है और ये भी बिलकुल सही है कि भारत में अपराध पर शोध की अपार संभावनाएं होने पर भी शोध के नाम पर यहाँ सिर्फ आंकडो की नुक्ताचीनी मिलती है या फिर कोपी-पेस्ट वाली शैली
गम्भीर बातें आपने कही हैं। इनपर खुल कर विचार विमर्श होना चाहिए।
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बोटी-बोटी जिस्म नुचवाना कैसा लगता होगा?
शहर में यह हाल है कमल है… मुझे लगता है यह मानसिकता का रोग तो है की साथ ही इसकी जड़ें निकम्मी व्यवस्था में समाहित है… वाकई बात निकली है तो दूर तक जानी चाहिए…
मीडिया की बाबत आपके विश्लेषण से सहमत हूँ। लेकिन उससे आपने गोम्स की असुरक्षा को जोड़ा तथा उसके द्वारा ढाये गये अपराध का मानो बचाव कर दिया। गोम्स ने जो अपराध किया है वह भी स्त्री के प्रति एक विकृत मानसिकता का ही परिचायक है ।
वर्तिका जी,
आपने बिल्कुल ठीक लिखा हैऽगर हमारे समाज की यही दशा रही तो कितने गोम्स पैदा हो जायेंगे इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। जब मीडिया लड़कियों,महिलाओं के साथ हुये अत्याचार को जितना महिमा मण्डित करता है—-उसकी जगह अपराधियों के होने वाले अंजाम को दिखाये तो शायद लोगों में पनप रही असुरक्षा की भावना पर कुछ तो रोक लगेगी ही ।
हेमन्त कुमार
आपकी बातें एकदम सच हैं—मीडिया को इस समस्या पर विचार करने की जरूरत है।
पूनम