क्या वो भी कविता ही थी
जो उस दिन कपड़े धोते-धोते
साबुन के साथ घुलकर बह निकली थी
एक ख्याल की तरह आई
ख्याल ही की तरह
धूप की आंच के सामने बिछ गई
पर बनी रही नर्म ही।
जो उस दिन कपड़े धोते-धोते
साबुन के साथ घुलकर बह निकली थी
एक ख्याल की तरह आई
ख्याल ही की तरह
धूप की आंच के सामने बिछ गई
पर बनी रही नर्म ही।
बाद मे सिरहाने में आकर सिमट गई
भिगोती रही
बोली नहीं कुछ भी
पर सुनती रही
बेशर्त
रात गहरा गई
वो जागती रही
बिना शिकायत के जो साथ थी
हां, शायद वो कविता ही थी।
5 Responses
सुन्दर शब्दों के साथ गहरे भाव लिये हुए एक अच्छी रचना।
बोली नहीं कुछ भी
पर सुनती रही
बेशर्त
नूतनता और ताजगी सी मिली आपकी इस रचना में.
बधाई
सुंदर एह्सास है…
कविता ही होगी!!
"दिन
साबुन
ख्याल
धूप।
हमने
सपने धो
डाल दिए
सूखने।
सूनी आँख
साथ रात
जो जगी
वह कविता थी।"
यदि आप अनुमति दें तो उपर की पंक्तियों को अपनी कविता मान लूँ। आप से अनुमति इस लिए कि शब्द तो आप ने ही उधार दिए।
मेरा ख्याल है कि मुझे अब और कुछ न कहना चाहिए।