बचपन में कविता लिखी
तो ऐसा उल्लास छलका
कि कागजों के बाहर आ गया।

यौवन की कविता
बिना शब्दों के भी
सब बुदबुदाती गई ।

उम्र के आखिरी पड़ाव में
मौन शून्यता के दरम्यान
मन की चपलता
कालीन के नीचे सिमट आई।

अब उस पर कविता लिखती औरत के पांव हैं
बुवाइयों भरे।

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16 Responses

  1. वाह जी वर्तिका जी बेहतरीन बहुत खूब बहुत ही अच्‍छा लिखा है आपने पढकर दिल खुश हो गया आपकी कविता को
    धन्‍यवाद इसे पढवाने के लिए

  2. बहुत अच्छी कविता| बचपन, यौवन और उम्र के आखिरी पड़ाव को सुंदर तरीके से समेट है आपने|

  3. बहुत खूब !
    लेकिन फिर आपसे ऐसी परिपक्व अभिव्यक्ति की ही अपेक्षा रहती है…!

    ऐसी ही संवेदनाएं उकेरती अभिव्यक्तियो के लिए शुभकामनाएं !

  4. आपकी कविता स्वच्छ निर्मल चंचल है जेसे हिमालय से गंगा की धारा , पारदर्शी होने साथ साथ आपकी भी छबी इसमे दिखाई देती है
    रविकांत
    cg4bhadas.com
    http://www.cg4bhadas.blogspot.com

  5. सुंदर कविता बन पड़ी है. स्त्रीत्व की यात्रा के तीन चरण और प्रत्येक चरण से फूटती कविता के रंग अलग, रूप अलग, विम्ब अलग! आपकी तरह मुझे भी उस दिन का इंतज़ार रहेगा जब स्त्री अपने बुढापे की कविता में भी उल्लसित, मौन की तरह रहस्यमयी और आकर्षक लगे. पैरों की बिवाईयां जबतक स्त्री की नियति बनी रहेगी, तबतक हमें पूर्ण स्त्री के आगमन का इंतज़ार रहेगा.

    वीरेंद्र

  6. जीवन के विभिन्न पड़ावों और उसकी मनोदशा को बखूबी चित्रित किया है

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