नौकरानी और मालकिन
दोनों छिपाती हैं एक-दूसरे से
अपनी चोटों के निशान
और दोनों ही लेती हैं
एक-दूसरे की सुध भी
दोनों छिपाती हैं एक-दूसरे से
अपनी चोटों के निशान
और दोनों ही लेती हैं
एक-दूसरे की सुध भी
मर्द रिक्शा चलाता हो
या हो बड़ा अफसर
इंसानियत उसके बूते की बात नहीं।
7 Responses
वर्तिका जी.
दुनिया में सभी इंसान एक से नही होते है . सबके विचार अलग अलग होते है . दुनिया में आज भी इंसानियत जिन्दा है .
इंसानियत
जहां जिंदा है
वहां नजर नहीं आती
जहां नजर जाती है
वहां नजर नहीं आती
यही तो विरोधाभास है
सभी को तलाश है
तलाश में छिपी आस है
पूरी कब होगी
या होगी ही नहीं।
तमाम कटु सच्चाइयों के वावजूद “औरत” किसी न किसी “मर्द” के साथ रहती है और अपनी को “सुरक्षित” समझती है.
वर्तिका जी,
फिक्शन में कुछ भी मुमकिन है। फिक्शन यानि गल्प, गप या फिर गद्य। और गद्य की तरह ही पद्य भी फिक्शन का एक हिस्सा है। आपने जो पद्य यानि कविता लिखी है, उसे अगर सिर्फ़ एक फिक्शन मान लिया जाए तो ठीक है… और अगर इसे एक यथार्थपरक कविता के तौर पर लिया जाए, तो मेरी इससे सिरे से नाइत्तेफ़ाकी है। इंसानियत मर्दों के बूते की बात नहीं, ये सही नहीं। सादर…
insaaniyat har insaan me hoti h chahe mard ho ya aurat par jinda usi ki rahti h jo use marne nahi deta
इंसानियत वाकई सबके बूते का नहीं है
दर्द – दर्द में रिश्ता तो होता ही है.
bahut hi sundar – hridaysparshi ….