गाती हूं अपने लिखे गीत
अपने कानों के लिए
तो लगाने लगती हूं जाने-अनजाने अपने नाखूनों पर नेलपालिश।
एक-एक नाखून पर लाल रंग की पालिश
जब झर-झर थिरकने लगती है
मैं और मेरा मन-दोनों
रंगों से लहलहा उठते हैं।
इसलिए मुझसे
मेरे होठों की अठखेलियों का हक
भले ही लूटने की कोशिश कर लो
लेकिन नेलपालिश चिपकाने का
निजी हक
मुझसे मत छीनना।
नाखूनों पर चिपके ये रंग
मेरे अश्कों को
जरा इंद्रधनुषी बना देते हैं और
मुझे भी लगने लगती है
जिंदगी जीने लायक।
तुम नहीं समझोगे
ये नाखून मुझे चट्टानी होना सिखाते हैं।
इनके अंदर की गुलाबी त्वचा
मन की रूई को जैसे समेटे रखती है।
ये लाल-गुलाबी नेलपालिश की शीशियां
मेरे बचपन की सखी थीं
अब छूटते यौवन का प्रमाण।
ड्रैसिंग टेबल पर करीने से लगी ये शीशियां
मुझे सपनों के ब्रश को
अपने सीने के कैनवास पर फिराने में मदद करती हैं।
ये मेरा उड़नखटोला हैं।
मुझे इनसे खेलने दो।
पत्रकार होने से क्या होता है?
मन को भाती तो
नेलपालिश की महक ही है,
माइक की खुरदराहट नहीं।
(यह कविता जनवरी 2009 के नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुई)
4 Responses
पत्रकार होने से क्या होता है?
मन को भाती तो
नेलपालिश की महक ही है,
माइक की खुरदराहट नहीं।
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अच्छा कहा ।
ohh…so depth…and sooo realistic!!!!
ब्लॉग में
वास्तव में
विचारों की आग
ही तो धधक रही है।
Maim main apka blog padha bahut hin achha laga.Aapki Kalam,Aapki awaj or Aapki sonch na jane kis khubshuri se banai gai hai.
Thanks God and You.
PRANAM.
AMRENDRA KUMAR.ETV-NEWS,JAIPUR.