रंग-बिरंगे पैकेज में
हाट में सजाए जाएंगे- बेहतर रोटी,कपड़ा,मकान,पढ़ाई के सपने।
सपनों की हांक होगी मनभावन
नाचेंगें ट्रकों पर मदमस्त हुए
कुछ फिल्मी सितारे भी
रटेंगे डायलाग और कभी भूल भी जाएंगे
किस पार्टी का करना है महिमा गान।
जनता भी डोलेगी
कभी इस पंडाल कभी उस
माइक पकड़े दिखेगें उनमें कई जोकर से
जो झूठ बोलेगें सच की तरह
और जब होगा चुनाव
अंग्रेजदां भारतीय उस दिन
देख रहे होंगे फिल्म
या कर रहे होंगे लंदन में शापिंग
युवा खेलेंगे क्रिकेट
और हाशिए वाले लगेंगे लाइनों में
हाथी, लालटेन, पंजे या कमल
लंबी भीड़ में से किसी एक को चुनने।
वो दिन होगा मन्नत का
जन्नत जाने के सपनों का
दल वालों को मिलेंगे पाप-पुण्य के फल।
उस दिन मंदिर-मस्जिद की तमाम दीवारें ढह जाएंगी
चश्मे की धूल हो जाएगी खुद साफ
झुकेगा सिर इबादत में
दिल में उठेगी आस
कि एक बार – बस एक बार और
कुर्सी किसी तरह आ जाए पास।
सच तो है।
अगली पीढ़ियों के लिए आरामतलबी का सर्टिफिकेट
इतनी आसानी से तो नहीं मिल सकता।
(यह कविता जनवरी 2009 के नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुई)
4 Responses
सच। बहुत खूब।
एक बेहतरीन कविता है जी बधाई के काबिल
बहुत ही बढ़िया रचना . लिखती रहिये . बढ़िया लिख रही है आप वर्तिका जी . बधाई.
badhiya…dil khush ho gaya..