दो साल पहले दिल्ली पब्लिक स्कूल के दो छात्रों का जो अश्लील एमएमएस बना, वह ब्रेकिंग न्यूज थी, देशभर ने वो तस्वीरें देखीं और जनता नैतिकता पर मीडिया की चिल्लाहट की गवाह बनी लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि इस जोरदार कुप्रचार से लड़की के पिता इस कदर आहत हुए कि उन्होंने आत्महत्या कर ली। यह खबर न तो फोनो या ओबी की वजह बनी और न ही किसी अखबार की सुर्खी। जिन चैनलों और अखबारों ने एमएमएस के बहाने टीआरपी के सेहतमंद ग्राफ से अपनी झोली भरी, वे भी आत्महत्या के मामले पर चुप्पी साध गए।
इसी तरह अभी कुछ समय पहले दिल्ली के ही एक पुरुष ने आत्महत्या कर ली क्योंकि मीडिया ने आरोप लगाया कि उसके अपनी साली से अवैध संबंध थे। मीडिया ने फैसला दिया तो अपने अंदर के सच के टूटने पर पुरुष ने अपनी जान देना ही सही समझा। मीडिया के इस झूठे तमाशे से जिन्दगी गई तो मीडिया चुप। अपनी गलती को उसने कालीन के नीचे ढक दिया और वह किसी और खबर के पीछे भागने लगा। लेकिन अब पत्रकार खुद खबर बन रहे हैं। उन्हीं वजहों से जिन पर खबर बनाने में उन्हें खूब मजा आता है। लाइव इंडिया चैनल का एक पत्रकार हाल में खबर कैसे बना, सब जानते हैं, लेकिन दूसरा पत्रकार, जिस वजह से खबर बना, वह अभी सिर्फ पत्रकारों के दायरे तक ही है। किसी ने न उस पर लिखा है, न ही उस पर कोई न्यूज ब्रेक की गई है।
दरअसल इन दिनों एक बड़े टीवी चैनल की महिला एंकर का एमएमएस बाजार में है। देखने वाले भरपूर चस्का लेकर इसे देख रहे हैं। यह एमएमएस भी दो पत्रकारों के बीच ही का है। सारी मीडिया बिरादरी दोनों पत्रकारों को जानती है या जान गई है। लेकिन खबर किसी ने नहीं लिखी और न ही किसी ने एमएमएस के जरिए व्यक्तिगत जीवन पर किए गए इस आक्षेप पर आपत्ति जताई है लेकिन यही मामला अगर अपनी बिरादरी के बाहर हुआ होता तो मीडिया जनता को तमाम जानकारियां रटा चुका होता।
महिला पत्रकार को लेकर बने एमएमएस का शायद यह तीसरा मामला है और मीडिया के अंदर आत्महत्या और हताशा की कहानी भी नई नहीं है। इसमें दो मुद्दे हैं- पहला, मीडिया का खुद खबर बनना- वह भी ऐसे मसले पर, जिस पर वह दूसरे पर कीचड़ उछालने में पल भर न लगाए। दूसरा- मीडिया- खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में टूटती वर्जनाओं का और अपने पेशे में उग रही फूंफूदी को झाड़ने की इच्छा न होने का। पहले मुद्दे पर तो मीडिया चुप है। वह जनता से अपने घर में दीमक लगे होने की बात छिपाने की अदाकारी जानता है लेकिन घर के बैठकर बिरादरी के किस्सों का रस भी ले रहा है। कुछ युवतियों ने एकाध वाक्य में इसे बचकानी हरकत बताया है जबकि कुछ के लिए यह मानिसक झंझावात से कम नहीं क्योंकि वे तरक्की के लिए न तो समझौता करना चाहती हैं न इस पेशे को छोड़ना। कुछ पुरुष पत्रकारों के लिए यह मामला बीयर के साथ स्नैक्स का काम कर रहा है तो कुछ के लिए अपनी कुंठा को निकालने का। वे अपने छोटे से सताए कुनबे में ऐसी कहानियां सुन-सुना रहे हैं जब किसी महिला विशेष की वजह से उन्हें प्रोमोशन नहीं मिल पाई या फिर मनचाही बीट झोली में नहीं आई।
बेशक मीडिया के अंदर छोटे-बड़े कई कैक्टस उगने लगे हैं। पत्रकारिता के कई नर्सरी स्कूल ककहरा पूरी तरह से पढ़ाए बिना ही अधखुले पैराशुट के साथ इन अर्ध-साक्षरों को मीडिया के मैदान में उतार देते हैं। यहां पुराने खिलाड़ी पहले से मौजूद हैं। इनसे खैर बड़ा खतरा नहीं है, न ही खतरा उनसे है जो समझौता करने की बजाए पथरीले रास्ते पर चलने को आमादा हैं। खतरा सिर्फ उनसे है जो यवा तैराक होने के साथ ही सीमाओं के बंधन से परे हैं और चिकने रास्ते के हिमायती।
दरअसल हम एक ऐसे देश की मीडिया का हिस्सा हैं जो जरा-सी पहरेदारी की बात सुनते ही बिदक जाता है। वह आजाद रहना चाहता है लेकिन एक सच यह भी है कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का घर शीशे का है। दूसरों के घरों पर पत्थर फेंकने की लत अब छूटे नहीं छूटती। चारित्रिक शब्दकोष के खुद के बिखरे मानदंडों के बीच दूसरों के चरित्र का अवलोकन करने का हथियार मीडिया कब और कैसे पा गया, यह पता ही नहीं चला।
(यह लेख 23 सितंबर, 2007 के दैनिक हिंदु्स्तान में प्रकाशित हुआ)
12 Responses
ek sal pahele chape lekh ko ab blog per kyo dia ja raha hai.mudda theek hai per purane lekh ki bajai fori tippani karni chahie thi,aisa mujhe lagata hai.
ambrish kumar
कालेज में देखता था कि कैसे किसी एम एम एस आने पर पूरा होस्टल उसे पाने की जुगाड़ में लग जाता था.. उसे देख कर ठहाके लगाये जाते थे.. और मैं चुप चाप उस मंडली से निकल जाता था..
वर्तिका जी,
आप सही कह रही हैं, एक वक्त था जब पत्रकारिता को समाजसेवा मानते थे, लेकिन आज लोग कहते हैं की पत्रकारिता का मतलब है: झूठ को सच बनाना…
क्या करे टीआरपी का कीडा भी जो लगा हुआ है…
बहरहाल उम्दा लेख है…
जारी रहे…
आपने सही और अच्छा लिखा हैं पहले सुना था कि जिनके घर शीशे के होते है वो पत्थर नही फैंका करते। पर आजकल वही लोग ज्यादा पत्थर फैंकते है जिनके घर शीशे के होते हैं। अभी कुछ दिन पहले अपने पत्रकार दोस्तों की बातें सुनकर एक तुकबंदी लिखी थी 10 सितम्बर को। आप चाहे तो पढ सकती हैं। ऐसे पढवाना ठीक नही पर खैर बात से बात निकली तो ….।
सही सवाल उठाया है…अब तो समझ नहीं आ रहा कि मीडिया की कोई सीमा होती भी है या नहीं।
बेहतरीन लेख!
ऐसे प्रकरण प्रेस परिषद में नहीं जाते ?
वर्तिका, ब्लॉग की दुनिया में तुम भी आ गई। स्वागत है।
मेरे भी दो ब्लॉग हैं। मौका लगे तो यहां भी घूम आना – http://www.mediamimansa.blogspot.com
http://www.balliabole.blogspot.com
चटकारे ले कर छपने और दिखायी जाने वाली ऎसी खबरों से टी आर पी बढाने की एक अंधी दौड आज जारी है। अभी हाल ही में प्रेम पत्रों की पूरी खेप के साथ उदघाटित हुई खबर ऎसी प्रव`त्ति का अक्श है। लेकिन यहां जिस खबर का जिक्र आपने किया, यदि वह बिकाउ तरह से उदघाटित नहीं हो पायी है तो ठीक ही हुआ। पर मुझे लगता है बाजारू प्रव`त्ति संवेदनाओं, भावनाओं और किसी भी तरह के रिश्तों को ताक पर रख देती है। इसलिए जरूरी नहीं कि अभी तक हल्लातारू तरह से प्रचारित न हुई खबर आगे भी इतने चुपके से ही दब छुप जाए।
“लेकिन एक सच यह भी है कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का घर शीशे का है।….यही कटु यथार्थ है वर्तिका जी।
‘आपके सरोकार’ से गुज़रना, मौजूदा वक़्त और उसके ठीक पीछे आ रहे समय की आहट सुनना है. अपना ही एक शे’र याद आ रहा है-
‘हम तो ये बात जान के हैरान हैं बहुत,
ख़ामोशियों में शोर के सामान हैं बहुत।’
‘आपके सरोकार’ से गुज़रना, मौजूदा वक़्त और उसके ठीक बाद आने वाले वक़्त की आहट सुनना है… अपना ही शे’र याद आ रहा है-
हम तो ये बात जान के हैरान हैं बहुत,
शामोशियों में शोर के सामान हैं बहुत।