एक जानी-मानी साप्ताहिक पत्रिका ने हाल ही में असगर वजाहत और रविंद्र कालिया के साथ की गई बातचीत छापी। बातचीत का एक मुद्दा था- हिंदी लेखकों की बिगड़ती आर्थिक स्थिति। बातचीत में निराशा भरी थी जैसे कि कुछ भी किया ही नहीं जा सकता। इस निराशा में भारतीय समाज की पूर्वाग्रहों की अपनी-अपनी खोलियों में जीए जाने की नियति थी और अपने पेशे को लेकर जातिवादी सोच भी।
भारत में अलग-अलग पेशों के पूर्वाग्रहों की अपनी-अपनी खोलियां हैं। हर पेशे के पूर्वाग्रहों का अपना व्याकरण है और अपना गणित। पेशे के प्रति प्रतिबद्ध उसी को माना जाता है जो इस व्याकरण और गणित में निपुण हो। साहित्य जैसा सर्वविषय समाय क्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं। इसके मठाधीशों में व्याप्त पूर्वग्रहों में एक यह है कि सब नौकरशाह निज सुविधा के लिए काम करते हैं और सब राजनेता निजहित में – तो साहित्य जैसे जनहित सुखाय विषय के प्रति इनकी प्रतिबद्धता कहां से आए?
साहित्यकारों की आर्थिक सुरक्षा जैसे विषय पर बातचीत में भी यही पूर्वाग्रह दिखता है। जमीनी सच्चाई भले ही अलग हो। कौन नहीं जानता कि साहित्य और कला को राज्य के स्तर पर आर्थिक प्रश्रय दिलाने की जरूरत पर सबसे पहले जोर मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने दिया। मध्यप्रदेश के सूचना एवं प्रचार निदेशालय में उन्होंने उस काडर के संवेदनशील आईएएस अफसरों को समय-समय पर नियुक्त करवाया। अशोक वाजपेयी से लेकर सुदिप बनर्जी इसी श्रृंखला के सर्वचर्चित नाम रहे। परंपरा चलती रही। सरकार बदलने के बावजूद आज विरोधी विचारधारा वाली साहित्यिक पत्रिकाओं को भी विज्ञापन दिया जाता है। छत्तीसगढ़ ने भी इसी परंपरा का निर्वाह किया अलग होकर। हां, एक चूक इस परंपरा में हो गई- यह दोनों सरकारें आज भी अपनी मन-मर्ज़ी से साहित्यिक पत्रिकाओं को तभी विज्ञापन देती हैं जब कोई विज्ञापन- अर्ज़ी लेकर बतौर याचक सामने आए।
इस चूक से वाकिफ दिल्ली सरकार की मुख्यमंत्री ने देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं को बिना मांगे विज्ञापन देने का फैसला किया। उनकी सोच थी कि साहित्य को आर्थिक मदद देने का राज्य सरकार का दायित्व आज इसलिए बढ़ गया है कि बाजार ने साहित्य को हाशिए पर धकेल दिया है। दीर्घकालिकता प्रदान करने के खयाल से उन्होंने इन पत्रिकाओं को पांच साल के अवधि के लिए सूचीबद्ध करने की ठानी। इरादा था कि मदद बदस्तूर जारी रहे, सरकार किसी की भी हो। उनके आशय को सूचना-प्रचार निदेशालय के वेबसाइट पर डाला गया। दिल्ली स्थित तमाम पत्रिकाओं के प्रतिनिधियों को बुलाकर समझाया गया कि किस तरह आवेदन डाला जाए और साथ ही उनसे अनुरोध किया गया कि यह बात मुंह जुबानी चारों तरफ फैलायी जाए। जब आवेदन पत्र आए तो पाया गया कि विज्ञापन देने की वर्तमान शर्तों में जबरदस्त छूट दिए बिना मुश्किल से तीन या चार पत्रिकाएं ही सूचीबद्ध की जा सकेंगी। कई पत्रिकाओं के पास आरएनआई सर्टिफिकेट तक नहीं था। सूचीबद्धता की मुख्य शर्तों में खुलकर छूट देने का फैसला लिया गया। 22 आवेदन में से 16 पत्रिकाए सूचीबद्ध करने लायक बनीं। इन पत्रिकाओं को साल में अधिक से अधिक आठ विज्ञापन देने का फैसला किया गया। श्वेत-श्याम पेज के लिए 20 हजार और रंगीन पेज के लिए 25 हजार दर तय हुई।
जैसे यह सब घोषित हुआ, दिल्ली और कुछ बाहर की साहित्यिक पत्रिकाएं सामने आ खड़ी हुईं कि उन्हें क्यों छोड़ा गया ? उन्हें बताया गया कि ऐसा या तो उनके आवेदन पत्र न मिलने के कारण हुआ या फिर उन्हें मिलने वाले किसी संस्थागत आर्थिक आधार के कारण। बहरहाल दोनों वर्गों की छूटी हुई पत्रिकाओं से दोबारा आवेदन करने के लिए कहा गया।
आप चाहें तो इस फैसले में राजनीति भी ढूंढ सकते हैं। खासकर तब जब चुनाव बहुत दूर नहीं हैं। बावजूद इसके हमारे पूर्वाग्रहों के विपरीत कुछ राजनेता या नौकरशाह भी साहित्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता अपने फैसलों से साबित करते रहे हैं, भले ही इनकी संख्या कम हो। जरूरी है कि यह मुहिम जोर पकड़े। अगर समूचे हिंदी भाषी प्रदेशों के मुख्यमंत्री इस बीड़े को उठाने में प्रतिबद्ध हो जाएं तो साहित्यकारों की चर्चा का विषय ही बदल जाएगा। चर्चा यह होना लगेगी कि आर्थिक संपन्नता के बावजूद साहित्यिक पत्रिकाओं के मालिक बनाम संपादक अपने रचनाकारों को समुचित पारिश्रमिक क्यों नहीं देते ? अभी तो वे कहते हैं कि पैसे हों तो दूं ।
पर बारी अब साहित्यकारों की है। खासतौर पर साहित्यक पत्रिकाओं के मालिकों की। दिल्ली का हवाला देकर उन्हें अन्य हिंदी प्रदेशों की मुख्यमंत्री और सूचना और प्रचार निदेशालय पर दार्घकालिक सूचीबद्ध करने का सकारात्मक दबाव बनाना होगा। साथ ही उन्हें हिंदी अखबारों का सहारा लेकर ऐसे दबाव की जरूरत की जागृति पैदा करनी होगी। मेरे विचार से हिंदी भाषी प्रदेश के किसी भी पार्टी का कोई मुख्यमंत्री ऐसा तंगदिल नहीं होगा जो उस राज्य के सूचना-प्रचार निदेशालय द्वारा ऐसा प्रस्ताव प्रस्तुत किए जाने पर अपनी स्वीकृति देने में हिचकिचाए। लेकिन इस रास्ते को समतल बनाने के लिए मीडिया को भी अपनी आवाज को बुलंद करना होगा।
(यह लेख १० अगस्त, २००८ को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)
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अच्छी पहल है, यदि योजना ढंग से लागू हुई तो साहित्य के दिन बहुरने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। हम लाख कह लें कि साहित्य मे पैसे को लाना ठीक नहीं लेकिन सच्चाई यह है कि बिन पैसे सब सून। पहले के लेखकों ने भले ही बडे धैर्य से फाकामस्ती के दिन बिताये हों (आज भी कुछ बिता रहे हैं), लेकिन वर्तमान पीढी में धैर्य, गांभीर्य आदि की क्या हालत है वो हम सब जानते हैं, युवा अंग्रेजी लेखकों (चेतन भगत, अरूंधती राय़) आदि की तरह सफल सब होना चाहते हैं लेकिन यह भी जानते हैं कि हिंदी के मुकाबले अंग्रेजी साहित्य में ज्यादा मार्केट है….ईसे आप वातावरण का प्रभाव कह लें या कुछ और पर सच्चाई यही है।
एक अच्छी पहल के बारे में अच्छी जानकारी दी।