नाग-नागिनों और आरूषि की खबरों के बीच किसे पड़ी है कि यह देखे कि श्री लाल शुक्ल का पद्मभूषण आखिर गया कहां। मामला रोचक है लेकिन चूंकि यह यह ब्रेकिंग न्यूज नहीं है, इसलिए इसे विशेष गंभीरता से पढ़ना जरूरी नहीं है। ख़बर सिर्फ इतनी है कि हिन्दी कथाकार -व्यंगकार श्रीलालशुक्ल को राष्ट्रपति के हाथों पद्मभूषण दिया जाना था।सेहत ठीक न होने के वजह से वे दिल्ली नहीं आ पाए तो तय हुआ कि पद्मभूषण उनके घर हीपहुंचा दिया जाए।लिहाजा राष्ट्रपति की एक अधिकारी पद्मभूषण समेट रेलगाड़ी में रवाना हुईं।
कहानी यहीं से शुरु होती है- पद्मभूषण दिल्ली से चलता है और रेल गाड़ी के उस डिब्बे से चोरी हो जाता है जिसमें वह महिला अधिकारी सफर कररही थीं। घटना के बाद दिल्ली से ही छपने वाले एक बड़े समाचार पत्र के हिंदी और अंग्रेजी संस्करण ने इस पर एक स्टोरी की। लेकिन इसके अलावा इस घटना का कहीं कोई जिक्र दिखाई नहीं दिया। यहां तक कि इस लेख के लिखे जाने तक इंटरनेट पर भी यह घटना नदारदही दिखाई दी। जाहिर है कि हमारी पत्रकार बिरादरी के ज्यादातर लोग पिछले एक महीने से राष्ट्रीय महत्व की खबर आरूषि के आस-पास मंडराने और अंधेरे में तीर चलाने में व्यस्त रहे हैं। टीवी चैनलों को इतने दिनों बाद ऐसी सनसनीखेज खुराक मिली कि उन्हें हफ्तों कुछ नया कर दिखाने के प्रकोप से शांति मिली। ऐसे में एक लेखक को मिलने वाला पदक रास्ते से कहीं छूमंतर हो जाता है तो भला उसकी कौन परवाह करता है। हां, अगर किसी बड़े अफसर का कुत्ता इस तरह गुम गया होता तो अच्छा-खास हंगामा खड़ा कर दिया जाता।
लेकिन क्या इसका यह मतलब निकाल लिया जाए कि श्रीलाल शुक्ल का प्रस्तावित सम्मान पदक खो जाना छोटी बात थाया राष्ट्रीय महत्व से परे की चीज था? श्री लाल शुक्ल यानि बीस किताबों के ज्यादा के लेखक और राजदरबारी के रचेयता। उन्होंने अपना जीवन एक तरह से साहित्य-सृजन में ही लगा दिया लेकिन शायद साहित्य-सृजन अब समाज की वैसी सम्मानजनक पदवी नहीं रहा जो कभी रहा करता था। यही कारण है कि दिल्ली जैसे तमाम महानगरों में बरसों पहले लेखकों की जो बैठकें लगा करती थीं, वे इतिहास हो गईं है। मोहन राकेश के उपन्यासों में कनाट प्लेस के जिस काफी होम का जिक्र मिलता है और रीगल सिनेमा के ऊपर वाले हिस्से में भी बरसों जो लेखकों का स्थायी पता-ठिकाना बना रहा, वह भी अब सूख चला है। अब कवि-लेखकअतीत का हिस्सा बनने के काफी करीब चले आए हैं। बाहरवाले तो दूर की बात, अपने घर में भी लेखक का जो थोड़ा-बहुत रसूख हुआ करता था,वह अब हवा होने लगा है। ऐसे में लेखक या तो अतीत के झरोखे से लगातार झांकने का काम करें यो फिर कुछ टीवी वालों से थोड़ी दोस्ती गांठ कर टीवी पर मस्खरी केनाटक करें और महफिलें सजाएं। अगर किस्मत अच्छी रहे तो चुनावी माहौल में भी थोड़ी फसल काटी जा सकती है। लेकिन अगर यह भी बस का नहीं तो फिर लेखक होने की डफली खुद अकेले बजानी भी होगी और सुननी भी।
सवाल गहरे हैं और इन पर गंभीरता से विचार करने के लिए जिस ईमानदारी की जरूरत हो सकती है, वह शायद हमारी बिरादरी में अब थोड़ी कम ही हुई है। मामला सिर्फ ये नहीं है कि इतना सम्मानित पदक गाड़ी से किसने, क्यों, कब और कैसे चुराया,मामला यह है कि तमाम सरकारी टोटकों और नाटकों के बावजूद आज भी इस देश के हिंदी वालों की स्थिति काफी हद तक वही है जो पहले थी। अपवाद हिंदी टीवी चैनल हैं जिनकी वजह से ठेठ अंग्रेजीदां भी हिंदी बोलने और सीखने के लिए मजबूर हो गए हैं । लेकिन इसके बावजूद कवि-लेखकों की दुनिया में आज भी कोई खास बदलाव नहीं आ पाया है।खुद को बेहद आदर्शवादी मानने वाले युवा भी खुद को कवि या लेखक कहलाए जाने से परहेज करने लगे हैं। सच यही है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया की छवि खासतौर से लेखनी की दुनिया के आस-पास नहीं हैं।
इस मामले ने सरकारी नजरिए की भी काफी हद तक मार्मिक पोल खोल दी है।हाल ही में नेहरू युवा केंद्र ने दिल्ली स्थित तीन मूर्ति में युवा कवियों का काव्य पाठ और पुरस्कार वितरण समारोह करवाया। तमाम अखबारों केरोजाना की गतिविधियों के कालम में इस आयोजन की सूचना भी छपी लेकिन इसे कवर करने पहुंचे सिर्फ मुट्ठी भर चैनल।इस पर हैरानी जताई सकती है कि जिस जमाने में एक सरकारी चैनल हुआ करता था, तब टीवी पर ऐसे आयोजन खूब दिखते थे। अब चैनल बढे़ हैं, चौबीसों घंटे चलाने की आजादी और मजबूरी भी बढ़ी है फिर भी ऐसे आयोजनों की कवरेज काफी सिमट गई है।
जिन दिनों अमृता प्रीतम बीमार थीं, प्रिंट मीडिया ने आने वाली खबर को दिमाग में रखते हुए अपने लिए पेज पहले से ही सोच कर रख लिए, सामग्री जुटा ली गई और जरूरत पढ़ते ही उन पन्नों को तल्लीनता से लगा दिया गया। लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया यहां भी काफी हद तक चूक गया।हां, हरिवंश राय बच्चन के समय ऐसा नहीं हुआ।शायद इसलिए नहीं कि वे मधुशाला के रचेता थे बल्कि इसलिए कि उनका बेटा अमिताभ था और बहू जया।
बहरहाल पद्मभूषण तो मिलने से रहा। नए का इंतजाम शायद जल्द हो जाए लेकिन इससे कुछ संकेत जरूर मिलते हैं।सोचना होगा- महफिलों का दौर सूख चुका, लेखकों की पुरानी पीढ़ी का सूर्यास्त करीब है। ऐसे में जो नई सुबह हमें मिलेगी, वह क्या लेखकों और कवियों के सान्निध्य से परे होगी?
( यह लेख ७ जुलाई, २००८ को ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित हुआ)
3 Responses
ऐसे समय में जबकि ब्रेकिंग न्यूज का बुनियादी ढांचा ही ब्रेक कर दिया गया है, साहित्य और साहित्यिक विषयों को टेलीविजन पर महत्व दिया जाना कुछेक दशकों के लिए टल गया लगता है। बाजारवाद पर सवार मीडिया का सार्थक मुद्दों से विचलन अब धीरे-धीरे हम दर्शकों के मनों में भी Seep करता जा रहा है और जब आज के टीन-एजर्स जवान होंगे तब शायद वे टेलीविजन के इसी स्वरूप को स्वाभाविक मान रहे होंगे। मैं स्वयं भी कई बार यह सोचकर सहम जाता हूं कि क्या हिंदी में स्तरीय साहित्य सृजन की स्थिति वैसी ही हो जाएगी जैसी कि आज हिंदी की कुछ बोलियों में हो गई है, जैसे कि बृजभाषा, अवधी और राजस्थानी? इन सबका सदियों पुराना साहित्य कितना समृद्ध था। लेकिन आज उनमें उत्तम साहित्य लिखने वाले चिराग लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलते। हिंदी भी कमोबेश उसी दिशा में जा रही दिखती है जिसमें लिखा जाने वाला अधिकांश साहित्य मात्र अभिरुचिगत रह गया है।
यदि मैं गलत हूं तो कृपया मुझे सुधार दें किंतु पिछले तीन-चार दशकों में हम कितने ऐसे हिंदी साहित्यकार और लेखक तैयार कर पाए हैं जो विश्व की अन्य भाषाओं को तो छोड़िए स्वयं हिंदी के साहित्यिक दिग्गजों के स्तर के आसपास भी आते दिखाई दें? क्या हिंदी में अब कोई अज्ञेय, कोई दिनकर, कोई प्रसाद, कोई निराला, कोई प्रेमचंद, कोई पंत, कोई महादेवी, कोई धर्मवीर भारती, कोई भवानी बाबू, कोई रामचंद्र शुक्ल, कोई रांगेय राघव, कोई गुप्त, कोई शमशेर, कोई नागार्जुन, कोई त्रिलोचन… नहीं होगा? क्या हिंदी साहित्य की पाठ्यपुस्तकों को दशकों पुरानी अवस्था में फ्रीज कर दिया जाए? हिंदी साहित्य की वह ऊर्जा, रचनात्मक बेचैनी, उर्वरा-शक्ति, स्तरीयता कहां खो गई है? क्यों अब कहीं कोई तार-सप्तक नहीं आते और हम उनमें शामिल होने जैसी विभूतियां पैदा कर पाते? जो चंद बड़े, स्तरीय और वास्तविक साहित्यकार हैं, उनके साथ भी हम और हमारा समाज न्याय नहीं कर पा रहा। भले ही हिंदी अन्य सभी क्षेत्रों में तरक्की के प्रकाशवर्ष तय कर रही हो, जहां उसकी बुनियाद है (भाषा, साहित्य) और जो उसके निरंतर विकासमान होने की गारंटी हो सकते हैं उनमें तो सन्नाटा छाया हुआ है। छोड़िए वर्तिकाजी, इस बारे में सोचना बड़ा दुःख देता है।
एकदम सही फरमाया आपने….कुछ समय पहले दिल्ली के एक कमिश्नर साहब का कुत्ता गुम हो गया था…उस समय ये ब्रेकिंग न्यूज थी
आज भांड,गवैयों और मसखरों के अलावा और क्या चीज है जो महत्व रखती है
कम से कम साहित्य तो बिलकुल नहीं….शाहरुख या सैफरीना ही चलेंगे
वर्तिका जी
बहुत सच्ची बात लिखी है आपने. ये ख़बर मैं भी आप के ब्लॉग पर ही पढ़ रहा हूँ और हैरान हूँ की श्री लाल शुक्ल जी का घनघोर प्रशंकाक होने के बावजूद मुझे इस चोरी की कोई जानकारी नहीं मिली. देश का दुर्भाग्य है की रागदरबारी जैसे कालजयी रचना के रचेता को उसके जीवन काल में ही हम भूल बैठे हैं. बहुत कम ऐसा होता है की व्यक्ति उसको दिए जाने वाले सम्मान से बड़ा होता है श्री लाल शुक्ल जी के ऐसे ही व्यक्ति हैं उनको देने से सम्मान ही सम्मानित होता है .
नीरज