सर्वेक्षण के बाद जारी किए गए ताजा आंकड़े बताते हैं कि सात साल से दस साल के बीच देश के महज 2.7 फीसदी बच्चे पिछले साल स्कूल नहीं गए जबकि 11 से 14 साल के सिर्फ 6.3 फीसदी। रिपोर्ट साफ तौर पर दिखाती है कि प्राथमिक शिक्षा की यह अलख खास तौर पर उन राज्यों में दिख रही है जिनका नामकरण एक अरसे से पिछड़े और बीमारू क्षेत्रों के रूप में कर दिया गया था।
रिपोर्ट ने विस्तार से साबित किया है कि मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़ और बिहार के गांवों में अब क्रांति आने लगी है।हालत यह है कि मध्य प्रदेश के बच्चे तो शिक्षा की गुणवत्ता में भी काफी आगे की चहलकदमी कर गए हैं। अंक गणित के परीक्षण में उनका प्रदर्शन गोवा और केरल के बच्चों से भी बेहतर रहा है।
यह रिपोर्ट इस बात का संकेत है कि भारत जाग रहा है और हरित और श्वेत क्रांति के बाद अब वाकई शिक्षा क्रांति की तरफ अपने कदम बढ़ा रहा है।
वैसे इस कामयाबी का एक बड़ा श्रेय सरकार ले सकती है। इसका उसे हक भी बनता है। सर्व शिक्षा अभियान ने देखते ही देखते भारत भर के गांवों में शिक्षा को एक आंदोलन की तरह जिंदा और सक्रिय रखा है। फिर तमाम खामियों और आलोचनाओं का शिकार होने के बावजूद मिड डे मील भी उस वर्ग के बच्चों के लिए एक लौ का काम करता रहा है जिन्हें न तो अपने परिवारों में पढ़ने का माहौल मिल पाता है और न ही दो वक्त का भरपेट खाना।
लेकिन यहां कुछ पहलू ऐसे भी हैं जिन पर गौर जरूर किया जाना चाहिए। दरअसल इस तरह की योजनाएं सरकारी फाइलों के इधर-उधर भागने से कहीं ज्यादा बाबुओं की व्यक्तिगत दिलचस्पी पर काफी हद तक निर्भर रहती है। मानव संसाधन मंत्रालय में ऐसे अफसरों की कमी नहीं जिन्होंने अपने स्तर पर इस अभियान की ताकत को बनाए रखा। लेकिन कामयाबी की इस कहानी को लिखने वालों का जिक्र करना न तो सरकार को याद रहता है औऱ न ही मीडिया को। मजे की बात तो यह है कि सरकारी महकमों में जो गिने-चुने अधिकारी ऐसी योजनाओं के साथ मानसिक एकरूपता महसूस करते भी हैं, उन्हें भी एक पद विशेष में बहुत दिनों तक टिके रहने नहीं दिया जाता।
दूसरे सरकारी स्कूलों की मिड डे योजना आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों को तो खींच लेती है लेकिन जरा बेहतर स्तर के परिवार के अपने बच्चों यहां भेजना पसंद नहीं करते। यही वजह है कि पिछले तीन साल में गांवों के पब्लिक स्कूलों में करीब 37 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है जबकि गांवों के सरकारी स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की तादाद लगातार घट रही है। अंग्रेजी रटाने के नाम पर इन पब्लिक स्कूलों में जिस अधकचरे ज्ञान का महिमामंडन होता है, उस पर जागने का माहौल अभी बनता नहीं दिख रहा।
तीसरे यह कि सफलता को लगातार बनाए रखने के लिए हमेशा नए फार्मूलों की जरूरत पड़ती है। मिड डे योजना के बाद अब अच्छा होगा कि बदलते समय के अनुरूप नए फार्मूले और प्रोत्साहन देती योजनाएं लागू की जाएं ताकि सर्व शिक्षा अभियान की ताजगी बरकरार रहे।
साथ ही इस तरह का माहौल बनाना होगा कि इन स्कूलों में पढने और बाहरी जिंदगी में कुछ सफल होने के बाद इन्हीं में से कुछ बच्चे इनमें आकर पढ़ाएं भी। गांव में रहकर पढ़ना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी उसी गांव में वापिस लौटक कर कुछ देने का भाव रखना भी है। बच्चों को अपने ही भीतर से रोल मॉडल मिलें, इसकी नींव अभी से रखनी होगी। इससे गांव तो सक्षम होंगे ही, तो शहरों पर बढ़ता जनसंख्या का दबाव भी घटेगा। वैसे भी आर्थिक मंदी ने अर्थव्यव्स्था को खेतों का रास्ता फिर से दिखाया है। इस बार भी सबक लेने में चीन बाजी मार गया है। अगर स्कूल सही दिशा में ज्ञान देने में सफल रहते हैं तो इस बात की गारंटी रहेगी कि भारत आकाश की ऊंचाइयों को छूने के बावजूद जमीन से कटेगा नहीं।
वैसे इस सारे अभियान में मीडिया की भूमिका कई बार सकारात्मक रही है। रिएलिटी शोज ने सपने जगाए हैं। मामूली चेहरों और निम्न घरों के बच्चों के हाथों में जीत का गुलदस्ता थमाया है और साथ ही बड़े शहरों के उच्च मध्यम वर्गीय परिवारों के बच्चों के अपराध ऐसे जोर-शोर से दिखाए हैं कि कई बार गांववालों को महसूस हुआ है कि वे इनसे बेहतर हैं।
लेकिन शिक्षा के प्रसार को पुरजोर कोशिश के साथ स्थापित करने की आदत मीडिया को नहीं पड़ी है। वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में शिक्षा का एक बेहद आकर्षक सरकारी विज्ञापन बना, वह भाजपा सरकार जाने के बाद भी कई दिनों तक मामूली फेरबदल के बाद वैसे ही चलता रहा। निजी चैनल आज भी जनमानस से जुड़े मुद्दों को दिखाने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेता क्योंकि उसे लगता है कि यह काम दूरदर्शन के जिम्मे है। वही करे समाज का भला।
फिलहाल यह बच्चे स्कूल जा रहे हैं लेकिन इनके बस्ते किन सपनों की पनघट के पार जा रहे हैं,यह सोच शायद अभी सरकार के पास नहीं। अगले दस साल में जब ऐसे कई बच्चे अपनी बढ़ाई पूरी कर रहे होंगे या कर चुके होगें तो इनका कब्जा उन तमाम सपनों पर हो जाएगा जो अब तक चांदी की प्लेटों में खाना खा रहे बच्चों के पास ही कैद थे। ये बच्चे जब डिग्रियां पाएंगें तो इनके पास एक जादुई उड़नतश्तरी खुद-ब-खुद आ जाएगी और यही नए भारत को एक सुपर शक्ति बनाने का विचारशील फार्मूला तय करेगें। इसलिए समय आ गया है कि इन बच्चों को अब सिर्फ ककहरा ही न पढ़ाया जाए बल्कि सपनों की घुट्टी भी पिलाई जाए। तब वाकई लगेगा कि अपने देश में बुद्धा इज लाफिंग।
3 Responses
वाकई हालत में सुधार तो हुआ है लेकिन अभी बहुत कुछ और करने की जरुरत है। हाल ही में दशकों से बदनाम बिहार को भी प्राथमिक शिक्षा के लिए तारीफ मिली है जो निश्चय ही खुशी की बात है। हां,इसमें सरकार का योगदान जरुर है लेकिन सरकार जितना चिंतित प्राथमिक शिक्षा के लिए है वो उतनी उच्च शिक्षा के लिए नजर नहीं आ रही। प्राथमिक शिक्षा में उसकी चिंता सिर्फ सिगनेचर लिटरेटों की तादाद बढ़ाने की दिख रही है, न कि आधुनिक शिक्षा देने की। स्कूलों में कंम्प्यूटर शिक्षा, लड़कियों के लिए उचित माहौल(जैसे शौचालय, घर के नजदीक हाई स्कूल,कॉलेज आदि) अभी भी दूर की कौड़ी है। बीमारु सूबों में स्कूल स्तर पर अंग्रेजी को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है और सबसे बड़ी बात तो ये कि भारत सरकार के पास स्कूलों में पुस्तकालय की अभी तक कोई योजना नहीं है।
बात करें उच्च शिक्षा की तो आरक्षण पर काफी हंगामें के बाद आईआईटी की तादात बढ़ी है-हंगामा न होता तो पता नहीं वो भी बढ़ता कि नहीं। यूजीसी और एआईसीटीई जैसी संस्थाएं उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने के वजाय उसमें बाधक बनने का रोल ज्यादा निभा रही है। नतीजा यह है कि हर साल देश का करीब 40,000 करोड़ रुपये उच्च शिक्षा पर खर्च होने के लिए विदेश चला जाता है। प्राइवेट क़ॉलेज खोलने की राह में सौ बाधाएं हैं, फी सरकार तय करेगी-अब आप बताईये कि कोई पूंजीपति महज 60,000 रुपये सलाना में अच्छी इंजीनियरिंग शिक्षा कैसे दे पाएगा। बेहतर है कि एक समग्र नीति बनाई जाए जिससे आनेवाले 10 या 20 सालों में बढ़ती शिक्षा की मांग को पूरा किया जा सके। वरना हम सौ फीसदी साक्षरता तो दिखा देंगे लेकिन वो रोजगारपरक नहीं होगा। फिर भी, ये कहा जा सकता है कि बढ़ती साक्षरता उम्मीद तो जगाती ही है।
आभार
बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है।
इसलिए समय आ गया है कि इन बच्चों को अब सिर्फ ककहरा ही न पढ़ाया जाए बल्कि सपनों की घुट्टी भी पिलाई जाए। तब वाकई लगेगा कि अपने देश में बुद्धा इज लाफिंग।
इतने उम्दा भावों के लिए आपको शत-शत बधाई