सीबीआई ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी डाल कर यह दरख्वास्त की कि जो मामले लंबित हों, उन पर मीडिया अपनी गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणियों से बाज आए तो तफ्तीश के लिए बेहतर होगा। इस अर्जी में यह भी कहा गया है कि जांचकर्ताओं को वही खबर या बिखरे सूत्र मीडिया के साथ सांझे करने चाहिए जो कि जनहित में हों।
सीबीआई ने यह याचना भरी अपील खास तौर से आरूषि हत्याकांड में हुई अपनी किरकिरी के मद्देनजर की है। आरूषि तलवार की हत्या 16 मई, 2008 को नोएडा में उसके घर पर हुई थी और डेढ़ साल होने पर भी आज तक इस मामले के सिरे पर नहीं पहुंचा जा सका है। उधर मीडिया के लिए आरूषि किसी हिट फिल्म के फार्मूले से कम कभी नहीं रही। मीडिया ने इस मामले को बार-बार तवे पर सेका और उसके पिता से लेकर नौकर तक सभी को ऐसे जांचा जैसे कि असली जांच एजेंसी वह खुद ही हो।
बहरहाल, लौटते हैं सीबीआई की दलील पर। सीबीआई ने यह भी सलाह दी है कि जिन अधिकारियों ने इस घटना से जुड़े सच (या आधे सच)मीडिया से बांटे हैं, उन सबके खिलाफ सिविल और आपराधिक मामला चलाया जाना चाहिए ताकि बाकी अधिकारियों को भी सबक मिले। सीबीआई ने माना कि बिना सोचे-समझे खबरों को लीक किए जाने की वजह से कई लोगों की छवि पर दाग लगा है और इसके लिए यही अधिकारी दोषी हैं। इस मामले की तफ्तीश कर रहे पुलिस अधीक्षक  नीलाभ किशोर ने दलील दी कि अनाधिकारिक लीकेजसे मामले पेचीदा हो जाते हैं। सीबीआई के पास एक सुनियोजित व्यवस्था है जिसके जरिए ही खबर को मीडिया तक पहुंचाया जाता है लेकिन कुछ अधिकारी खबर को पहले और अधकच्चे ढंग से पहुंचाने के लिए कुछ ज्यादा ही लालायित रहते हैं।
यानी मामला पुलिसिया पत्रकारों का है। ऐसे पुलिस वाले जिनकी वर्दी के पीछे सीना पत्रकार का है और वे मामलों को सुलझाने से पहले मीडिया की छांव में जाकर बतियाना ज्यादा पसंद करते हैं।
सीबीआई ने अपील तो कर दी लेकिन वह भूल गई कि मीडिया को जनहित के बारे में समझाना ठीक वैसे ही है जैसे कि भैंस के आगे बीन बजाना। मीडियावाले तो फिर भी इस दलील को समझ लेगें और दबे जुबान इस पर हामी भी भरने लगें लेकिन वे हैं तो मुलाजिम ही। मालिक को समझाने-ऐंठने की हिम्मत सीबीआई में है नहीं। इसलिए ढाक के तीन पात ही रहे हैं, रहेंगें।
यहां एक मामले का जिक्र जरूरी लगता है। घटना जून, 2007 की है। चार साल की मैडेलिन मैक्कन नामक एक ब्रितानी लड़की अपने माता-पिता के साथ घूमने पुर्तगाल जाती है और वहीं से वह गुम जाती है। मैडेलिन के अभिभावक उसकी तलाश के लिए मीडिया से मदद मांगते हैं लेकिन मैडेलिन का कोई सुराग नहीं मिलता। कुछ दिनों बाद स्टोरी के लिए भूखा मीडिया यह खबर चलाने लगता है कि मैडेलिन की हत्या में उसके मां-बाप का भी हाथ हो सकता है। यह खबर हफ्तों ब्रिटिश मीडिया में हेडलाइन बनी रही। ज्यादातर रिपोर्टिंग गॉसिप और तुक्कों पर आधारित ही दिखी। बड़े पैमाने पर यह लिखा गया कि हो सकता है कि मैडेलिन के मां-बाप की गलती से ही मैडेलिन कीमौत हो गई हो और उसके बाद उन्होंने ही मौडलिन के अगवा होने की कहानी पकाईहो। रिपोर्टिंग के इस अंदाज पर कुछ दिनों बाद खुद मैडेलिन के पिता ने कहा कि अपने अखबारों की बिक्री बढ़ाने के लिए प्रिंट मीडिया ने उनका इस्तेमाल एककोमोडिटीके रूप में किया। बेशक उन्हें खबरों की थोड़ी गिट्टियां थमाने का काम कुछ पुलिसवालों ने भी किया होगा।
घटना के करीब एक साल बाद, मार्च 2008 में मैक्केन दंपत्ति ने पुर्तगाल के एक अखबार के खिलाफ मानहानि का केस चलाया और वे इसे जीते भी। इसके तुरंत बाद ब्रिटेन की 4 अखबारों ने मुख पृष्ठ पर अमर्यादित रिपोर्टिंग के लिए माफीनामा छापा।
रिपोर्ट के मुताबिक इस घटना की रिपोर्टिंग विवादास्पद होने के साथ ही बेहद आपत्तिजनक भी थी। इस घटना का असर इतना गहरा रहा कि 2008 में ब्रिटेन की एक स्वायत्त संस्था, मीडिया स्टैंडरर्ड्स ट्रस्ट ने जारी अपनी एक रिपोर्ट में खुलकर कहा कि ब्रिटेन में पत्रकारिता का स्तर गिरावट पर है और यहां अखबारों की विश्वसनीयता दिनोंदिन घटती जा रही है। फाइनेंशियल टाइम्स ग्रुप के चेयरमैन सर डेविड बैल इसके चेयरमैन हैं।
इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाते हुए मीडिया स्टैंडरर्ड्स ट्रस्ट ने कहा कि रिपोर्टरों ने इस तरह की गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग इसलिए की क्योंकि वे खुद संपादकों के दबाव में थे।वेस्टमिनस्टर यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर ऑफ कम्यूनिकेशंस प्रोफेसर स्टीवन बारनेट भी इस शोध का हिस्सा थे। उन्होंने समूचे प्रकरण के अध्ययन के बाद टिप्पणी की कि जो पत्रकार इस घटना की रिपोर्टिंग के लिए पुर्तगाल भेजे गए थे, उन्हें संपादकों की तरफ से साफ निर्देश दिए गए थे कि उन्हें हर रोज एक एक्सक्लूजिव स्टोरी फाइल करनी होगीचाहे जो भी हो जाए।
कहना न होगा कि ज्यादातर पत्रकारों ने कड़वे सच को दिखाती इस रिपोर्ट का स्वागत किया। इसी आधार पर नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट ने अपनी बरसों पुरानी मांग को दोहराया कि पत्रकार को किसी स्टोरी को इंकार करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। एनयूजे का कहना है कि हर पत्रकार के कांट्रेक्ट में कान्शियस क्लाजजरूर शामिल किया जाना चाहिए जो कि उन्हें किसी भी ऐसी स्टोरी को करने से इंकार करने का अधिकार दे जिसे उनकी आत्मा स्वीकार नहीं करती। इसके मायने यह भी लगाए जा सकते हैं कि पत्रकार को अपनी आत्मा की अभिव्यक्ति का अधिकार देने का समय अब आ गया है। स्वाभाविक है कि मीडिया जगत, खास तौर से प्रिंट मीडिया, इस रिपोर्ट से न तो खुश हुआ और न ही सहमत।
लेकिन इस बार भी सीबीआई ने जो आह भरी है, उससे कोई नतीजा निकलने की उम्मीद नहीं क्योंकि सीबीआई ने न तो किसी पर सीधे टिप्पणी की है और न ही ठोस सबूत दिए हैं। खबर को महाखबर या फिर एकदम चूहाखबर बना देने के कई किस्से हो चुके है। उनके बाद पुलिस और जांच एजेंसियों का खिसियानी बिल्ली की तरह खंभा नोचना भी पुराना खेल हो चुका। असल में ये तमाम बातें सिर्फ हवा में कही जाती  हैं और अगर इस बार भी हवा में कही बात को अगर हवा में ही उछाल दिया जाता है तो कोई हैरानी नहीं होगी। लगता यही है कि सीबीआई की मंशा कागज पर रिकार्ड भर देने की ही थी, असली घोड़े को दौड़ाने की नहीं।
(यह लेख 10 दिसंबर, 2009 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Categories:

Tags:

No responses yet

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *