दिल्ली के एक मॉल में लोग फिल्म देखने गए थे लेकिन वहां उनका साक्षात्कार परदे की फिल्म की बजाय असली जिंदगी की फिल्म से ही हो गया। फिल्म शुरू होने से कुछ मिनटों पहले किसी ने एक न्यूज चैनल को एक फैक्स भेजा और धमकी लिखी कि मॉल में कुछ ही मिनटों में धमाका होने वाला है।
बस, इतना करने की देर थी कि दिल्ली पुलिस अपने लाव-लश्कर के साथ वहां पहुंच गई। फिल्म की स्क्रीनिंग कुछ समय के लिए टाल दी गई और तलाशी शुरू हो गई। तलाशी कुत्ते भी आए थे जो सूंघ-सूंघ कर बेहाल होते गए। कुछ घंटों की इस कवायद में 15 लाख रूपए का नुकसान हुआ और डॉग स्कवॉड, बम स्कवॉड से लेकर पुलिस के तमाम विशेषज्ञों का जो समय खर्च हुआ, सो अलग।
इस घटना की मीडिया में कवरेज हुई और अगले दिन की अखबारों में फोटो सहित विवरण भी मिला लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती। पिछले दो दिनों में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में होक्स कॉल की यह छठी घटना है। जरा याद कीजए।। हर साल गर्मी कि शुरूआत होते ही खास तौर पर ऐसी होक्स कॉलों का सिलसिला जैसे चल निकलता है। ये फोन कौन करता है, क्यों करता है, इसके जरिए उसे हासिल क्या होता है। आम तौर पर ऐसी कॉलों के पीछे किसी आंतकी संगठन का हाथ शायद ही मिलता है। इन कॉलों को अक्सर वे युवा या छात्र करते हैं जिन्हें छुट्टी के दिन में करने को कुछ नहीं होता और जिन्हें रोमांच की तलाश होती है। ऐसे फोन करने के बाद या तो वे खुद मौके पर पहुंच कर कथित नजारे का मजा लेते हैं या फिर टीवी पर अपने कारनामे का लाइव तमाशा देखते हैं।
खैर, ऐसा करने वाले अक्सर पकड़े भी जाते हैं और मैं बात इसी मुद्दे की करना चाहती हूं। जो पकड़े जाते हैं, उनके साथ होता क्या है। क्या उन्हें कोई सजा होती है, क्या उन पर कोई मुकद्दमा चलता है या उन पर कोई बड़ा जुर्माना लगाया जाता है या फिर उनका कोई सार्वजनिक बहिष्कार होता है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इनमें से शायद कुछ भी ठोस होता ही नहीं। पुलिस की फटकार मिलती है, समाज अगले दिन ऐसा करने वालों को भुला देता है और आस-पास के युवाओं की नजर में ऐसा करने वाला एक हीरो की तरह उभर आता है। इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि हमारे यहां खाली समय के धनी लोगों की कोई कमी है ही नहीं। फिरोजपुर में इकनोमिक्स के हमारे एक टीचर होते थे- राठौर सर। वो अक्सर एक बात कहते थे। युवाओं से अगर कहा जाए कि घास उखाड़नी है तो शायद ऐसा करने में उनकी इज्जत में कमी आ जाए लेकिन अगर उन सबको मैदान में बिठा कर कोई लेक्चर सुनाने लगे तो वे अनमने भाव में शायद सारे मैदान की घास की उखाड़ डालें। यहां भी यही मामला है। हमारे यहां स्कूलों के खाली बच्चों की जमात दिखाई देती है। हां, ऐसे बच्चे भी हैं जो गर्मियों की छुट्टों में कुछ सीखने में समय लगाते हैं, रेस्त्रां में नौकरी करते हैं या किसी सामाजिक काम से जुड़ जाते हैं लेकिन शहरों में ऐसे बच्चों की तादाद काफी कम हैं। यहां के मध्यमवर्ग औऱ उच्च वर्ग के बाब लोग गर्मी की पूरी छुट्टियां थकान उतारने में ऐसे लगाते हैं मानो निराला की कविता की महिला की तरह इलाहाबाद के पथ पर पूरे साल पत्थर ही तोड़ते रहे हों। यह खाली दिमागों का शैतानी अस्तबल है। एसी रूम में बैठ कर ये अपनी बोरियत मिटाने और हीरो बनने के लिए सामाजिक-सरकारी-राष्ट्रीय पूंजियों से खेलने में इन्हें कोई परहेज नहीं होता। और विडंबना तो देखिए। ऐसी खुराफातें करने वाले जब पकड़े जाते हैं तो मीडिया में इनकी छुटकिया से खबर भी मुश्किल से आती है। ये हर बार सजा से तब तक बचते चले जाते हैं जब तक कि ये कोई ऐसा बड़ा कारनामा नहीं कर डालते जहां इनके पापा लोगों का रूतबा काम नहीं आता।
लगता यही है कि अब ऐसे तमाशे न हों इसके लिए मीडिया को होक्स कॉलों को करने वालों पर सख्ती से स्टोरीज करनी चाहिए और पुलिस और कानून को भी इन्हें किसी हाल में बख्शना नहीं चाहिए। क्योंकि अपनी बोरियत मिटाने के लिए जिस पैसे को ये उड़ा डालते हैं, वो टैक्स देने वालों के पसीने की उपज हैं। इनसे हमदर्दी करना किसी दरिंदगी से कम नहीं होगा। सोचिए कि अगर कभी ऐसा हो कि होक्स कॉल की वजह से पुलिस किसी एक कोने में सिमटी हो और असली वारदात कहीं और हो जाए तो। इसलिए अब ऐसे सिरफिरों को माफी देने का समय जा चुका है।
(यह लेख दैनिक भास्कर में 28 अप्रैल, 2010 को प्रकाशित हुआ)
3 Responses
ye kuch mansik rogiyon ka kaam hai…aur ham sabme ek mansik rogi hai…
यह खाली दिमागों का शैतानी अस्तबल है। एसी रूम में बैठ …..
A sad state indeed !
ये बहुत ज़रूरी है, कि ऐसे कॉल करने वालों के खिलाफ़ सख्त कदम उठाये जायें, वरना जब कभी सचमुच की धमकी मिलेगी तब ज़रूर लापरवाही हो जायेगी. ये " हार की जीत" जैसा खेल बन्द होना चाहिये.