तीन महीने पहले तक सहारनपुर के उस मोहल्ले के लोग भी शायद आशुतोष कौशिक को नहीं जानते थे जहां वह पले-बढ़े और जो जानते थे, उनके लिए आशु एक ढाबे मालिक से ज्यादा शायद कुछ नहीं था। आज वही आशुतोष एक बड़ा आदमी बन गया है क्योंकि उसने बिग बास में जीत हासिल कर ली है। अब वह पेज तीन का छोरा बन गया है और बहुतों की आंखों का तारा।

पर आशुतोष की यह जीत सिर्फ ढोल-नगाड़ों की धमाधम से कहीं आगे भी सोचने को मजबूर जरूर करती है। ऐसा क्या था इस लड़के में कि वह बहुत से मामलों में अपने से आगे दिख रहे प्रतियोगियों को भी हरा कर एक करोड़ का सेहरा अपने सिर पर बंधा गया ? बेशक यह सिर्फ किस्मत का खेल नहीं बल्कि दर्शक के स्वाद और आम इंसान की रूचियों की भी एक बढ़िया मिसाल है।

दरअसल कलर ने जब बिग बास की शुरूआत की तो कई मीडिया विश्लेषकों के माथे पर बल दिखाई दिए। वजह यह कि 90 दिन तक एक इमारत में बंद इन कलाकारों के जरिए चैनल क्या दिखाना-कहना चाहता है, यह बहुत साफ नहीं था। यह भी लगा कि इसमें कई ऐसे कलाकारों को जुटा दिया गया जो कि नाम-पैसे की मीडिया की दुनिया में तकरीबन गुमनाम होने लगे हैं। दूसरे, बिग बास खाली लोगों को जमावड़ा ज्यादा दिखा और सृजनशीलता का बेहद कम। सही कहें तो यह सास-बहू की किच-किच का लाइव टेलीकास्ट ही था जहां कलाकरों का काम था-एक दूसरे की बुराई करना और बात-बेबात झगड़ा करना। खाली दिमाग के शैतानों के इस घर में खाते-पीते, एक पोटली-सा पर्स लटकाए, चुगली करते कलाकार कई बार टीवी के बेहद कीमती माने जाने वाले एयरटाइम की खिल्ली उड़ाते ही दिखे।

लेकिन इस कार्यक्रम की अवधारणा भी शायद यही सोच कर रची गई। देखना यह था कि ऐसी लाइव किच-पिच दर्शकों को कितना लुभाती है। मजे की बात यह रही कि बिग बास की आलोचना करने वाले कई लोग इसे गौर से देखने भी लगे और जीतने वाले को लेकर तुक्कों की बरसात भी शुरू हो गई। बेशक ज्यादातर तुक्के राहुल महाजन की जीत के आस-पास बुने गए लेकिन आखिर में जीते आशुतोष ही।

आशुतोष की इस जीत ने कई बातें साबित कीं। एक छोटे-से शहर के इस छोरे ने बिना दुराव-छिपाव के शो में कहा कि वह ढाबे वाला है। इसने एक बार फिर साबित किया कि ग्लैमर की चकाचौंध में भी ऐसे लोग जीतने लगे हैं जो अपने छोटे से कुनबे को भूले बिना आगे बढ़ रहे हैं। जो कैमरे के आगे शरमा कर यह नहीं कह रहे कि वे ढाबा नहीं बल्कि एक रेस्त्रां चलाते हैं। जो इसे कहने में हिचक नहीं रहे कि उन्हें अंग्रेजी बोलनी नहीं आती। वे तो ठेठ हिंदी वाले हैं। यह कहने में भी उनकी जुबान तलवे से नहीं चिपकती कि दरअसल इतनी विविधता वाला खाना उन्हें अपने घर पर खाने को नहीं मिलता। वे सहज हैं। शायद इसीलिए वे आसानी से स्वीकार्य भी है। भले ही आशुतोष को बिग बास के शुरूआती चरण में किसी ने कोई तवज्जो नहीं दी लेकिन वह मायूस नहीं हुआ। वह बेफिक्र रहा और बिंदास भी और अपनी इसी मीठी सहजता के चलते डायना हेडन का चहेता भी बन गया।

वैसे लगता यह भी है कि इस तरह की किच-किच वाला कार्यक्रम इस बार भले ही सफल रहा लेकिन यह प्रयोग अगर बार-बार इसी खाली दिमागधर्मिता के बीच रिपीट होता रहा तो दर्शक इससे भी ऊब सकता है। दर्शक को खींचने के लिए नएपन को चमकीली तश्तरी में सजाना जरूरी है। दूसरे, यह भी कि न्यूज के तनावों के बीच जनता जब इस तरह के चंचल कार्यक्रमों से जुड़ती है तो संदेश यह भी जाता है कि जनमानस को सपनों के सौदागर जितनी आसानी से लुभाते-रिझाते हैं, उतनी आसानी से दिमागी कसरतें नहीं। वैसे भी बरसों पहले ही एक समाज शास्त्री ने यह कह दिया था कि टेलीविजन का काम विशुद्ध रूप से मनोरंजन की खुराक देना ही होना चाहिए( दिमागी मैदान पर बड़ी-बड़ी बातें करने की कोशिश करते ही इलेक्ट्रानिक मीडिया जरा हकलाने तो लगता ही है)।

बहरहाल आशुतोष को एक करोड़ की ईनामी राशि मिली है। छोटे शहर के छोरे की झोली में पैसे झमाझम बरसने का मौसम शुरू हो गया है। वह तय ही नहीं कर रहा कि जीवन में पहली बार मिली इस बड़ी राशि से वो करेगा क्या? लेकिन राशि से बड़ी बात यह है कि इस जीत ने उन करोड़ों के दिलों में सपनों की दीवाली सजा दी है जिनकी धूलभरी पलकों पर आज भी कुछ सपने सजे हैं।

वैसे ताजा खबर यह है कि वे अब चुनाव प्रचार के मैदान पर उतर आए हैं।

(यह लेख 27 नवंबर, 2008 को जनसत्ता में प्रकाशित हु्आ)

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2 Responses

  1. बिग बॉस, आशुतोष और दशॆकों पर केंद्रित आपका यह आलेख बहुत कुछ समझने में मदद करता है। वाकई छल-छद्म और मक्कारी से भरे बिग बॉस शो में आशुतोष की सहजता ध्यान खींचती थी। हालांकि उसकी सहजता और देसी अंदाज ही वो वजहें थीं, जिनके चलते उसे हल्के में लिया जाता था। शो के दौरान यह अंदाजा लगाना बड़ा कठिन था कि आशुतोष का यह अंदाज ही परिणाम तय करेगा। आपके आलेख से दशॆक और टीवी दुनिया को समझने में मदद मिलती है। धन्यवाद।

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