2024

2023

21 December: Prabhat Khabar: Tinka Tinka Jail Radio: Stories of reformation in jails: तिनका तिनका जेलों में इंद्रधनुष बनाने की कोशिश कर रहा है।
4 November: Hindustan Times: This Delhi University prof is a big support to the tinkas in Tihar and beyond.
14 May: ABP News: Tinka Tinka Tihar: 10 Years: Prison Reforms
2023,13 मईके राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में पूरे पन्ने पर एक जरूरी आलेख

2022

गंगूबाई के बहाने जीबी रोड और तिनका तिनका जेल की बात

एक बार रमणीक मिल जाता तो उससे पूछती। इस बात को गंगूबाई जब फिल्म के एक दूसरे प्रमुख किरदार और पत्रकार के आगे कहती है तो उसका जवाब होता है कि उसका न मिलना ही बेहतर है। जब तक रमणीक नही मिलेगा, मन की आग बनी रहेगी।

शायद यही इस फिल्म का सार है और जिंदगी का एक बड़ा फलसफा भी। जिस इंसान की वजह से दुख मिला हो, वो दोबारा न मिले तो अच्छा है।

गंगुबाई काठियावाड़ी मुंबई के रेड लाइट एरिया में काम करने वाली गंगुबाई पर संजय लीला भंसाली की फिल्म है। इस फिल्म को देखते हुए मैं जीबी रोड की उन गलियों की तरफ बरबस खींची चली गई जिन्हें मैंने 1998 के आसपास बहुत करीब से देखा था। एक दिन मैं और दिल्ली पुलिस की एक महिला अधिकारी रिक्शे में वहां पर गए थे। हम दोनों ने तकरीबन पूरा दिन जीबी रोड में गुजारा था। दूसरी बार मैं टेलीविजन की एक कैमरा टीम के साथ वहां गई थी। उसके बाद मैंने इसी टीवी चैनल के दफ्तर में रहते हुए कई महीनों तक एक उपन्यास को लिखा जो काफी हद तक पूरा हो गया था लेकिन उसे कुछ वजहों से मैंने वहीं रोक दिया लेकिन जीबी रोड की वो तंग गलियां मेरे दिमाग पर हावी रहीं। बाद में भी अपराध बीट की प्रमुख के तौर पर स्याह-सफेद कई पगडॉडियां दिखती रहीं।

अपराध पर ही पीएचडी करने और फिर जेलों पर उपजे- तिनका तिनका- में जीबी रोड के अंश बने रहे। कई ऐसी महिलाएं भी मेरे संपर्क में रहीं जो जेल से छूटने के बाद इन कोठों पर पहुंच गईं क्योंकि समाज ने उन्हें स्वीकार नहीं किया था। वे एक जेल से निकलीं और दूसरी जेल में पहुंच गईं। बहुत ही कम लोगों को इस बात का अहसास था कि जेल पर मेरे काम को एक बड़ा हिस्सा जीबी रोड को देखने और महसूस करने के उस अनुभव से निकला था। बहरहाल, फिल्म की बात।

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गंगूबाई के बहाने जीबी रोड और तिनका तिनका जेल की बात

एक बार रमणीक मिल जाता तो उससे पूछती। इस बात को गंगूबाई जब फिल्म के एक दूसरे प्रमुख किरदार और पत्रकार के आगे कहती है तो उसका जवाब होता है कि उसका न मिलना ही बेहतर है। जब तक रमणीक नही मिलेगा, मन की आग बनी रहेगी।

शायद यही इस फिल्म का सार है और जिंदगी का एक बड़ा फलसफा भी। जिस इंसान की वजह से दुख मिला हो, वो दोबारा न मिले तो अच्छा है।

गंगुबाई काठियावाड़ी मुंबई के रेड लाइट एरिया में काम करने वाली गंगुबाई पर संजय लीला भंसाली की फिल्म है। इस फिल्म को देखते हुए मैं जीबी रोड की उन गलियों की तरफ बरबस खींची चली गई जिन्हें मैंने 1998 के आसपास बहुत करीब से देखा था। एक दिन मैं और दिल्ली पुलिस की एक महिला अधिकारी रिक्शे में वहां पर गए थे। हम दोनों ने तकरीबन पूरा दिन जीबी रोड में गुजारा था। दूसरी बार मैं टेलीविजन की एक कैमरा टीम के साथ वहां गई थी। उसके बाद मैंने इसी टीवी चैनल के दफ्तर में रहते हुए कई महीनों तक एक उपन्यास को लिखा जो काफी हद तक पूरा हो गया था लेकिन उसे कुछ वजहों से मैंने वहीं रोक दिया लेकिन जीबी रोड की वो तंग गलियां मेरे दिमाग पर हावी रहीं। बाद में भी अपराध बीट की प्रमुख के तौर पर स्याह-सफेद कई पगडॉडियां दिखती रहीं।

अपराध पर ही पीएचडी करने और फिर जेलों पर उपजे- तिनका तिनका- में जीबी रोड के अंश बने रहे। कई ऐसी महिलाएं भी मेरे संपर्क में रहीं जो जेल से छूटने के बाद इन कोठों पर पहुंच गईं क्योंकि समाज ने उन्हें स्वीकार नहीं किया था। वे एक जेल से निकलीं और दूसरी जेल में पहुंच गईं। बहुत ही कम लोगों को इस बात का अहसास था कि जेल पर मेरे काम को एक बड़ा हिस्सा जीबी रोड को देखने और महसूस करने के उस अनुभव से निकला था। बहरहाल, फिल्म की बात।

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गंगूबाई के बहाने जीबी रोड और तिनका तिनका जेल की बात

एक बार रमणीक मिल जाता तो उससे पूछती। इस बात को गंगूबाई जब फिल्म के एक दूसरे प्रमुख किरदार और पत्रकार के आगे कहती है तो उसका जवाब होता है कि उसका न मिलना ही बेहतर है। जब तक रमणीक नही मिलेगा, मन की आग बनी रहेगी।

शायद यही इस फिल्म का सार है और जिंदगी का एक बड़ा फलसफा भी। जिस इंसान की वजह से दुख मिला हो, वो दोबारा न मिले तो अच्छा है।

गंगुबाई काठियावाड़ी मुंबई के रेड लाइट एरिया में काम करने वाली गंगुबाई पर संजय लीला भंसाली की फिल्म है। इस फिल्म को देखते हुए मैं जीबी रोड की उन गलियों की तरफ बरबस खींची चली गई जिन्हें मैंने 1998 के आसपास बहुत करीब से देखा था। एक दिन मैं और दिल्ली पुलिस की एक महिला अधिकारी रिक्शे में वहां पर गए थे। हम दोनों ने तकरीबन पूरा दिन जीबी रोड में गुजारा था। दूसरी बार मैं टेलीविजन की एक कैमरा टीम के साथ वहां गई थी। उसके बाद मैंने इसी टीवी चैनल के दफ्तर में रहते हुए कई महीनों तक एक उपन्यास को लिखा जो काफी हद तक पूरा हो गया था लेकिन उसे कुछ वजहों से मैंने वहीं रोक दिया लेकिन जीबी रोड की वो तंग गलियां मेरे दिमाग पर हावी रहीं। बाद में भी अपराध बीट की प्रमुख के तौर पर स्याह-सफेद कई पगडॉडियां दिखती रहीं।

अपराध पर ही पीएचडी करने और फिर जेलों पर उपजे- तिनका तिनका- में जीबी रोड के अंश बने रहे। कई ऐसी महिलाएं भी मेरे संपर्क में रहीं जो जेल से छूटने के बाद इन कोठों पर पहुंच गईं क्योंकि समाज ने उन्हें स्वीकार नहीं किया था। वे एक जेल से निकलीं और दूसरी जेल में पहुंच गईं। बहुत ही कम लोगों को इस बात का अहसास था कि जेल पर मेरे काम को एक बड़ा हिस्सा जीबी रोड को देखने और महसूस करने के उस अनुभव से निकला था। बहरहाल, फिल्म की बात।

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