Written By: Vartika Nanda
May 5, 2018

सच्चिदानन्द हीराननद वात्सयायन ‘अज्ञेय’ का लिखा यह कालजयी उपन्यास जेल की कोल-कोठरी में ही पनपा. इस उपन्यास का पहला भाग 1941 और दूसरा भाग 1944 में सरस्वती प्रेस, बनारस से प्रकाशित हुआ था. तीसरा भाग कभी नहीं आ सका, क्योंकि उसकी प्रति जेलर ने जब्त कर ली थी और फिर कभी लौटाई ही नहीं. 

दुनिया भर की शायद हर जेल में किसी मौके पर किसी न किसी के हाथ में कलम मौजूद रही और फिर लेखन भी हुआ. इऩमें से कुछ पन्ने बाहर की रोशनी देख सके, कुछ गुमनाम हो गए या मिटा दिए गए. जेल में लिखे दस्तावेजों के सिलसिले में आज बात शेखर: एक जीवनी की.
सच्चिदानन्द हीराननद वात्सयायन ‘अज्ञेय’ का लिखा यह कालजयी उपन्यास जेल की कोल-कोठरी में ही पनपा. इस उपन्यास का पहला भाग 1941 और दूसरा भाग 1944 में सरस्वती प्रेस, बनारस से प्रकाशित हुआ था. तीसरा भाग कभी नहीं आ सका, क्योंकि उसकी प्रति जेलर ने जब्त कर ली थी और फिर कभी लौटाई ही नहीं. कहते हैं कि चंद्रशेखर आजाद ने अज्ञेय को यह जिम्मेदारी दी थी कि वे भगत सिंह को जेल से भगा लाएं, लेकिन लाहौर बम कांड के दौरान भगवती चरण वर्मा की मौत की वजह से यह योजना धरी की धऱी रह गई. इसके बाद यशपाल ने उऩ्हें हिमालय की पहाड़ियों में करीब एक महीने तक छिपाए रखा, लेकिन नवंबर 1930 में वे अमृतसर में पुलिस की गिरफ्त में आ ही गए. उसके बाद अज्ञेय ने लाहौर, दिल्ली और पंजाब की जेलों में अपनी सजा काटी. 
‘शेखर: एक जीवनी’ के प्रथम भाग के लेखन की शुरुआत मुलतान जेल में नवंबर 1933 में और समाप्ति कलकत्ता में अक्टूबर 1937 में हुई. यायवरी के लिए मशहूर अज्ञेय ने शेखर की भूमिका 28 अक्तूबर 1939 को मेरठ में पूरी की, जबकि 1938 के ‘रूपाभ’ में संपादक सुमित्रानंदन पंत ने ‘शेखर: एक जीवनी’ प्रथम भाग का अंश ‘खोज’ शीर्षक से प्रकाशित किया. अज्ञेय ने खुद उपन्यास की शुरुआत में ही इस बारे में लिखा है- 
”यही उस रात के बारे में कह सकता हूं. उसके बाद महीना भर तक कुछ नहीं हुआ. एक मास बाद जब मैं लाहौर किले से अमृतसर जेल ले जाया गया, तब लेखन-सामग्री पाकर मैंने चार-पांच दिन में उस रात में समझे हुए जीवन के अर्थ और उसकी तर्क-संगति को लिख डाला. पेंसिल से लिखे हुए वे तीन-एक सौ पन्ने ‘शेखर : एक जीवनी’ की नींव हैं. उसके बाद नौ वर्ष से अधिक मैंने उस प्राण-दीप्ति को एक शरीर दे देने में लगाए हैं.”
हिंदी साहित्य का इतिहास इस बात का गवाह है कि ‘शेखर : एक जीवनी’ अज्ञेय का सबसे अधिक पढ़ा गया उपन्यास रहा है. हालांकि इस पर लगातार बहस होती रही कि उपन्यास का नायक शेखर खुद अज्ञेय ही हैं या कोई और व्यक्ति, या कल्पना से रचा गया कोई पात्र. कुछ लोग इसे पूरी तरह उनकी आत्मकथात्मक कृति मानते हैं, लेकिन खुद अज्ञेय ने इस बात को जोर देकर कहा था कि यह ‘आत्म-जीवनी’ नहीं है. 
अज्ञेय का यह उपन्यास मानो जेल की जिंदगी को सामने उधेड़ कर ही रख देता है. यहां उनके लिखे कुछ वाक्य देखिए- 
वेदना में एक शक्ति है, जो दृष्टि देती है. जो यातना में है, वह द्रष्टा हो सकता है.
फांसी का पात्र मैं अपने को नहीं समझता था, न अब समझता हूं, लेकिन उस समय की परिस्थिति और अपनी मनःस्थिति के कारण यह मुझे असंभव नहीं लगा, बल्कि मुझे दृढ़ विश्वास हो गया कि यही भवितव्य मेरे सामने है. ऊपर मैंने कहा कि घोर यातना व्यक्ति को द्रष्टा बना देती है. यहां यह भी कहूं कि घोर निराशा उसे अनासक्त बनाकर द्रष्टा होने के लिए तैयार करती है. जेल में बंद अज्ञेय अपने लेखन के जरिए खुद को बचाए रखते हैं. उनके मन में अनगिनत सवाल हैं जो महज लेखकीय नहीं हैं, बल्कि मानवाधिकार को लेकर भी जरूरी टिप्पणियां हैं. आज जब जेल सुधार को लेकर पूरी दुनिया में बहस होने लगी है, जेल के अंदर से लिखा गया अज्ञेय का यह उपन्यास जेल की जिंदगी, उसकी नकारात्मकता, खालीपन, सामाजिक कटाव और मनोवैज्ञानिक उथल-पुथल को चीर कर सामने ला देता है- 
”कहते हैं कि मानव अपने बन्धन आप बनाता है; पर जो बन्धन उत्पत्ति के समय से ही उसके पैरों में पड़े होते हैं और जिनके काटने भर में अनेकों के जीवन बीत जाते हैं, उनका उत्तरदायी कौन है?”
अज्ञेय ने जेल के अकेलेपन को बार-बार उकेरा है. वहां मौजूद मानवीय संवेदनाओं को बड़ी महीनता से पकड़ा है. उदासी के गहरे माहौल में खुशी ढूंढने में लगे बंदी उसे प्रभावित करते हैं. एक जगह पर अज्ञेय जेल में ही बंद एक साथी से मुलाकात के बाद उस पहली मुलाकात के सार को कुछ इस तरह से लिखते हैं–
”मेरा नाम मदनसिंह है. सन 19 में पकड़ा गया था. तब से जेल में हूं.’ 21 वर्ष जेल में रहकर यह आदमी ऐसे हंस सकता है. शेखर को लगा कि वह कुछ छोटा हो गया है या उसके सामने वाला व्‍यक्ति कुछ ऊंचा उठ गया है. बरसों पहले लिखा गया अज्ञेय का यह उपन्यास जेलों की मौजूदगी की ही तरह साहित्य के फलक पर हमेशा जिंदा रहेगा. तिनका-तिनका इसकी कड़ी को आगे ले जा रहा है और देश की जेलों में लिखे जा रहे साहित्य को आपस में जोड़ रहा है.

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One response

  1. For to be free is not merely to cast off one’s chains, but to live in a way that respects and enhances the freedom of others.” -Nelson Mandela

    This video showcases the journey so far, journey of how small Tinka Tinka make up a Dasna, 'Inka Dasna'.
    It takes a lot of courage, on a woman's part, to have the will and determination to not just initiate but maintain a sensitive initiative like this, single handedly, as it's just not a mere series, but a responsible action with the lives of the rest of the inmates too.

    #tinkatinka #prisonreforms #humanrights #jailstories #humanity #tinkatinkatihar #tinkatinkadasna

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