23 सितंबर की सुबह नई दिल्ली के एक बड़े सभागार में एक खास समारोह था. तिहाड़ जेल और पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो, गृह मंत्रालय द्वारा आयोजित इस बड़े सम्मेलन में जेल सुधारों को लेकर जरूरी चर्चाएं होनी थीं. इस सभागार में सामने बैठने की जगह को तीन हिस्सों में बांटा गया था. एकदम बाईं ओर आम जनता और समाजसेवी, बीच के हिस्से में पुलिस के अधिकारी, बंदियों के रिश्तेदार और मीडिया, वहींएकदम दाहिनी ओर पुलिस और जेलकर्मियों के बीचोंबीच बैठे बंदी. जिन लोगों को जेल के कामकाज का अंदाजा है, वे जानते हैं कि जेल से बाहर लाने पर बंदियों को पुलिस के बीचोंबीच ही बैठाया जाता है. हर बेंच पर दो से तीन पुलिसकर्मियों के बीच बंदी बैठे थे. इनमें से एक था- महमूद फारुखी.
बाहरी दुनिया के लिए महमूद के दो परिचय हैं- एक परिचय उसकी फिल्म पीपली लाइव और उसकी दास्तानगोई और दूसरा परिचय बलात्कार के मामले में उसका तिहाड़ जेल में बंद होना. लेकिन अपने दोस्तों के लिए महमूद इससे कहीं ज्यादा था और रहेगा.
शायद 2000 के आस-पास की बात है. एनडीटीवी के रात नौ बजे के बुलेटिन में एक स्टोरी का पीटूसी मुझे हैरान कर देता है. शेक्सपीयर की पंक्तियों को कहता आत्मविश्वास से भरा युवक नाटकों पर एक स्टोरी की शुरूआत कर रहा है. मैं ठिठक जाती हूं. यह कौन है. कुछ पलों बात पता चलता है. यह है – महमूद फारुखी.
शायद 2000 के आस-पास की बात है. एनडीटीवी के रात नौ बजे के बुलेटिन में एक स्टोरी का पीटूसी मुझे हैरान कर देता है. शेक्सपीयर की पंक्तियों को कहता आत्मविश्वास से भरा युवक नाटकों पर एक स्टोरी की शुरूआत कर रहा है. मैं ठिठक जाती हूं. यह कौन है. कुछ पलों बात पता चलता है. यह है – महमूद फारुखी.
महमूद और अनुषा- हम तीनों एक ही जगह काम करते थे. हम सब साथी थे. बाद के सालों में महमूद और अनुषा की फिल्म आई, तब मैनें उनसे आग्रह किया कि वे राजकमल प्रकाशन से आई मेरी नई किताब ‘टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता’ के विमोचन के कार्यक्रम के मुख्य अतिथि बनें. वह कार्यक्रम शानदार रहा. बीच के सालों में संपर्क बना रहा- कभी कम, कभी ज्यादा और इस बीच महमूद की गिरफ्तारी की खबर आई. जाहिर है दोनों की जिंदगी में बहुत कुछ बदला.
23 सितंबर के कार्यक्रम के दौरान कई बड़े जज मौजूद थे. यहां तक कि जस्टिस मदन बी लोकुर भी जिन्होंने हाल ही में जस्टिस दीपक गुप्ता के साथ जेल सुधारों के बारे में विस्तार से दिशा-निर्देश जारी किए हैं. पुलिस और एनजीओ की बातचीत के बीच महिला और पुरुष बंदियों ने दो नाटक भी प्रस्तुत किए, जिसे महमूद ने खुद संजोया था. जब बंदियों को मंच पर लाया गया, महमूद पूरी तरह से निर्देशक की भूमिका में दिखाई दिया. बंदियों की कला को देखकर यह अंदाजा लगाना जरा भी मुश्किल नहीं था कि उन दोनों नाटकों के सूत्र पिरोने में महमूद ने कितनी मेहनत की होगी. उन बंदियों को देखकर ऐसा लगता ही नहीं था कि उन्होंने पहली बार इतने बड़े स्तर पर मंच का या फिर जनता का सामना किया होगा. मैं और मेरे साथ बैठी अनुषा महमूद की इस मेहनत को देखकर बेहद खुश थे.
अब महमूद रिहा हो रहा है. हाईकोर्ट ने उसे संदेह का लाभ देते हुए बरी किया है. मीडिया की दुनिया के लिए यह एक बड़ी खबर है. फिल्मी दुनिया के लिए भी क्योंकि कोई कलाकार किसी भी परिस्थिति में जहां भी रहता है, वह सृजन ही करता है. जेल में रहते हुए महमूद ने एक नई दुनिया को गढ़ा है. इससे ठीक दो दिन पहले 21 सितंबर को जेल नंबर तीन में जब महमूद से मेरी मुलाकात हुई थी तो वह बेहद मायूस था. उसका वह चेहराजेल से लौटने के बाद भी जैसे मेरे साथ चलता रहा. मैंने प्रार्थना की कि वह जल्द मुक्त हो जाए. उस दिन मैंने एक अलग महमूद देखा. जेल में जब मेरी उससे मुलाकात हुई तो वह मुझे देखकर थोड़ा हिचका और फिर बातें होने लगीं. मैंने देखा कि उसके अंदर एक परेशानी थी. एक संकोच था. मेरे पास आकर वह जब एक बंदी की तरह स्टूल पर बैठने लगा तो मैंने थोड़ा-सा टोकते हुए उसे साथ बैठने को कहा. फिर हम पुराने साथी की ही तरह बैठकर तिनका तिनका के मेरे सपनों और उसके काम पर बात करने लगे.
जेल के उस कमरे में लैपटॉप पर मैं उसे बमुश्किल बंदियों के गाने का एक टुकड़ा सुना पाई. इस बीच कुछ और बंदी भी आ गए जो तिनका तिनका तिहाड़ की मुहिम का एक हिस्सा थे. मैं इस मुहिम के साथ महमूद को जोड़ना चाहती थी और महमूद ने भी हामी भर दी. महमूद ने उस दिन बताया कि वह जेल के अंदर क्या पढ़ रहा है. मुझे उस वक्त वह तमाम बंदी याद आए, जिन्होंने किसी अपराध की छाया में या फिर किसी और वजह से जेल के अंदर एक समय गुजारा और उस समय को एक सृजन से जोड़ा- चाहे वह रामवृक्ष बेनीपुरी हो या ऑस्कर वाइल्ड. इन सभी ने जेल के उस एकाकी पल को साधना के साथ जोड़ा और कुछ नया रचा.
महमूद, जेल में रहते हुए भी तमाम निराशाओं के बीच तुमने पलों को खोने नहीं दिया. तुमने उन पलों को संजोया और उन पलों से कुछ सीखा. उन पलों में तुमने जिंदगी के कई सबक सोख लिए. आज जब तुम वापसआ रहे हो, तब मीडिया जगत फिर से बांहे पसारकर तुम्हारा स्वागत करेगा. तुम्हारे साथी, तुम्हारे दोस्त भी स्वागत करेंगे. तुम्हारी हमसफर अनुषा और दास्तानगोई के तुम्हारे साथी और पुराने दोस्त दारेन शाहिदी के लिए यह नए सफर की शुरुआत है. लेकिन मैं जेल सुधारक के तौर पर यह भी देख सकती हूं कि तुम्हारी जेल की यात्रा बेकार नहीं जाएगी. एक शिक्षित इंसान के तौर पर तुमने देख लिया होगा कि जेलें एक टापू हैं. यहां जाना कई दरवाजे बंद करता है लेकिन बरी होने पर भी तमाम दरवाजे बहुत आसानी से नहीं खुलते. ऐसा मैंने बहुत-से बंदियों के साथ होते हुए देखा है. वे जेल से लौटकर कई बार अपना पूरा वजूद ही बदल देते हैं लेकिन तुम ऐसा नहीं कर सकते. तुम्हारी सड़क, तुम्हारा घर, तुम्हारी पहचान कैसे मिट सकती है. बेशक जेल से लौटते इंसान को फिर से पूरी तरह से स्वीकार करने में समाज समय लेता है लेकिन तब भी मैं जानती हूं कि तुम अब पहले से भी ज्यादा मंझे हुए कलाकार, पहले से भी ज्यादा सधे हुए निर्देशक बनकर लौटोगे और यह लौटना एक मामूली लौटना नहीं है बशर्ते तुम भीड़ भरी जेल में खाली बर्तनों से पड़े दिनों और अंत होने के लिए दीवारों से टकराती रातों की अनबुझी राख को याद रख सको.
जेल हमेशा अंत हो, ऐसा जरूरी नहीं है दोस्त…
One response
This article by Vartika Mam, which tells the story of Mehmood gives us the message that we may have to face tough times in our lives. But these times do not mark the end of our lives. Just like Munni Mahesh and Sundara who made the best use of their time in jails, the inmates should be able to realise that prison is not the end of their life. Hope the prison authorities are able to support and conduct more such activities for prisoners inthe future. #tinkatinka #prisonreforms #humanrights