वर्तिका नंदा
June 15, 2018
जब फिल्में जेल जैसे विषय को असंवेदनशीलता के साथ दिखाती हैं तो वे उस मकसद को तोड़ देती हैं, जिसके लिए फिल्म का निर्माण किया गया था.
राजकुमार हिरानी की नई फिल्म संजू रिलीज होने से पहले ही चर्चा में है. वैसे भी किसी भी फिल्म का प्रोमो बनाए जाने का यही मकसद होता है कि लोग उसे देखने के लिए उत्सुक हो जाएं, लेकिन कई बार प्रोमो फिल्म के प्रमोशन के बजाय विवाद की वजह भी बन जाते हैं. संजू के साथ भी यही हुआ है.
राजकुमार हिरानी और विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म ‘संजू’ संजय दत्त की जिंदगी के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती है. इसमें मुख्य किरदार में रणबीर कपूर हैं. तीन हिस्सों में बनी इस फिल्म को उनकी निजी जिंदगी के शुरूआती दिनों, ड्रग्स में लिप्त होते समय औऱ फिर टाडा के तहत जेल में भेजे जाने को केंद्र में रखा गया है.
यहां यह याद रखने वाली बात है कि संजय दत्त मुंबई की आर्थर रोड जेल और बाद में पुणे की यरवदा जेल में बंद रहे, लेकिन इस फिल्म की शूटिंग की भोपाल की उस पुरानी जेल में हुई है जो अब पूरी तरह से बंद है. इस जेल में एक जमाने में शंकरदयाल शर्मा एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में रुके थे और बाद में राष्ट्रपति बनने पर उन्होंने उस पत्थर को लोकार्पित किया था जो इनके नाम से आज भी लगा हुआ है. इस जेल में अब बंदी नहीं रखे जाते और यह पुरानी जेल प्रशिक्षण के लिए आने वाले अधिकारियों को ठहरने के काम में लाई जाती है. इसी जेल के बाहर यरवदा जेल के कटआउट लगाकर यरवदा जेल का रूप दिया गया था. (यहां यह भी जोड़ा जाना चाहिए कि फिल्म की शूटिंग के लिए जेल प्रशासन को कोई फीस नहीं दी गई थी.)
फिल्म के प्रोमो को लेकर जो विवाद हुआ है वो काफी हद तक बहस के लायक दिखाई देता है. इस प्रोमो में संजय दत्त यानी रणबीर कपूर को जेल की एक अंधेरी कोठरी में बैठे हुए दिखाया गया है, जो गंदगी से भर रही है और संजय दत्त यानी रणबीर कपूर इस पर चीखकर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं. अगर इसे मौजूदा संदर्भ में देखा जाए और मानवाधिकार और जेल अधिकारों की बात करने वाले देशों में आमतौर पर ऐसा होना बहुत सहज नहीं दिखता. हां, यह बात जरूर है कि सुप्रीम कोर्ट पिछले लंबे समय से देश की करीब 1,400 जेलों में अमानवीय स्थिति पर चर्चा कर रहा है और जेलें चर्चा के केंद्र में हैं और उन पर चिंतन का माहौल बना है, लेकिन यह भी सच है कि जिस जमाने में संजय दत्त जेल के अंदर बंद थे, तब भी एक बड़े अभिनेता को जेल की कोठरी में ऐसी परिस्थिति का सामना करना पड़ा हो, ऐसा बहुत सहज नहीं लगता.
हालांकि पूरी फिल्म को देखे बिना यह कहना मुश्किल है कि इसमें दिखाए गए दृश्य हकीकत के कितने करीब हैं, लेकिन इस बीच एक जेल सुधारक ने सेंसर बोर्ड से इस दृश्य को हटाए जाने की मांग कर दी है. जाहिर है ऐसे में फिल्मों में जेलों को जिस तरह से दिखाया जाता है, उस पर फिर से बात की जाने लगी है.
असल में जेलें फिल्मों के लिए और पूरे समाज के लिए उत्सुकता का विषय रही हैं. इस प्रोमो पर जैसे ही विवाद शुरू हुआ, कुछ फिल्म निर्माताओं ने कहा कि फिल्मों का काम सच या फिर किसी झूठ को एक बड़े स्तर पर दिखाना होता है ताकि जनता उससे आकर्षित हो. इसका मतलब यह कि एक छोटी सी घटना बड़े पर्दे पर और भी बड़ी कैसे दिखे, इस पर कई बार ज्यादा तवज्जो होती है. जो बिकेगा, वही दिखेगा- की तर्ज पर फिल्में बहुत बार सच के एक तिनके को पहाड़ भी बना देती हैं और भ्रम का एक संसार खड़ा कर देती हैं. फिल्में जब तक सामाजिक चेतना या विकास को लेकर सक्रियता दिखाती हैं, स्वीकार्य और सम्मानित रहती हैं, लेकिन जब वे सच की एक डोर पर कल्पनाओं के कई रंग पोत देती हैं तो कई खतरों को पैदा कर देती है. यह एक खतरनाक परिस्थिति है, क्योंकि उसे देखने वाला दर्शक कई बार सच के पहलू से अवगत नहीं होता. इसलिए वह जो देखता है, उसे तकरीबन पूरी उम्र अंतिम सच मानता रहता है.
फिल्मकार और लेखक अक्सर इस बात को भूल जाते हैं कि जेल एक बहुत संवेदनशील मुद्दा है. जेलों के अंदर न तो मीडिया पहुंचता और न ही कैमरा. जेलों से खबरें जो छनकर बाहर आती हैं, उसी के आधार पर सच के अलग-अलग रूप बनाए जाने की कोशिश होती है. आज भी दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में भारत में बनती हैं और फिल्मों को समाज की तस्वीर के तौर पर माना जाता है, लेकिन जब फिल्में जेल जैसे विषय को असंवेदनशीलता के साथ दिखाती हैं तो वे उस मकसद को तोड़ देती हैं, जिसके लिए फिल्म का निर्माण किया गया था.
फिल्म के इस दृश्य को लेकर अगर संजय दत्त खुद इस बात की पुष्टि करते हैं कि ऐसा उनके साथ हुआ था तब बात दूसरी है, लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो इस तरह के दृश्य को दिखाकर हम उन लोगों के मनोबल को पूरी तरह से तोड़ रहे हैं, जिनके परिवार या परिचित जेल के अंदर हैं. वे खुद जेल की बैरक में जाकर अपने रिश्तेदारों के ठहरने की जगह नहीं देख सकते. हां, इन दृश्यों को देखकर दहल जरूर सकते हैं. क्या हमें इन लोगों को नजरअंदाज करना चाहिए जो बिना किसी अपराध के जेल के बाहर वैसे भी एक अनचाही सजा झेल रहे हैं?
4 Responses
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन टोपी, कबीर, मगहर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है…. आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी….. आभार…
This information is an eye opener. Amazing facts and truth. Thanks Tinka Tinka Team and Vartika Ma'am #Vartikananda #prisoners #human_rights#humanity #prisoners #human_rights #humanity#change
The points put forward by Vartika Mam are very relevant. The idea that people form about prisons is influenced mainly by films, books and newspapers. While showing a content in a movie, the makers must remember that what they present can have a huge influence on people. It is true that there are prisons in which the condition of prisoners is not good. But before we show such a sensitive content in a movie it is important to make sure that what we show is true. #tinkatinka #prisonreforms #humanrights
This article is very relevant on how Bollywood builds the notion about jails. Prisons are a sensitive issue and not a sensational aspect and that ought to be kept in mind when depicting prisons in movies. Because movies influence the thinking of society. #vartikananda #tinkatinka #jail #prison