‘वैलेंटाइन डे ’ पर भारत और दुनियाभर में प्रेम को विविध रूपों में अभिव्यक्त किया जाता है. इसमें से ज्यादातर जिक्र ‘इस पार’ के संसार का है. लेकिन उस पार के संसार का क्या ? उस प्रेम, संवेदना का क्या जिसे हर इजहार के लिए कानूनी अनुमति चाहिए? उस पार, यानी वह दुनिया जिसे हम ‘जेल’ के नाम से जानते हैं. यह एक शब्द मनुष्य और समाज की चिंता से बहिष्कृत है. इसलिए मैंने आज प्रेम के इजहार के लिए जेल और उस संसार को चुना है.. जिसके बारे में हम कभी बात नहीं करते…
यहां फूलों की क्यारी नहीं है, खुला आसमान नहीं, पेड़ की छांव की छुअन नहीं, तारों का दूर तक फैला आंचल नहीं. एक खिड़की है, छोटे-से सुराख हैं, उसमें दरवाजा नहीं है. लोहे का गेट है, उस पर एक बड़ा ताला जड़ा है. रात का एलान शाम 5 बजे हो जाता है. तब बचे-खुचे ख्वाब भी उसी बड़े कमरे में बंद हो जाते हैं जिसमें एक साथ कम से कम 70 लोग सोते हैं और करवट बदलने तक की इजाजत लेते हैं. यहां सिर के नीचे कोई तकिया नहीं, एक छोटा-सा कपड़ा है, उसके नीचे एक कागज है. किसी का कोई खत, एक याद, कोई सूखा पत्ता. याद सहेजने के नाम पर इतनेभर की इजाजत है यहां. बाकी तमाम तस्वीरें जहन में हैं. उसी डोर के आसरे जिंदगी के इन सालों को काटना है.
यह जेल है. सब बंद है. उम्मीदों के झरोखे भी और विश्वास के खलियान भी. लेकिन तब भी यहां बसता है – प्यार और मन में कहीं बचे रहते हैं- सरसों के फूल.
जेल – जिसे प्यार, उत्सव या खुशी के मौके पर कोई गलती से भी याद नहीं करता. जेलें एक अलग टापू हैं, जेलें तकलीफ हैं, जेलें सजा हैं, जेलें अपराधियों की शरणस्थली हैं. जेलें अस्पृश्य हैं लेकिन तब भी जेलें इसी समाज में बसा एक बड़ा सच हैं. लेकिन इंतजार की अंतहीन खराश के बीच यहां कुछ और भी पनपता है, वह है- प्रेम. आसमान के थोड़े-से हिस्से के नीचे धुकधुक करता डर और उसमें झिलमिल करता प्रेम. यहां उम्मीदें कम हैं, इसलिए इस दुनिया में प्रेम का कोई दायरा नहीं.
तिनका-तिनका तिहाड़ – जेल पर मेरे काम की शुरुआत 1993 में हुई लेकिन इस काम ने आकार लेना शुरू किया 2013 के वसंत में. दक्षिण एशिया की इस सबसे बड़ी जेल तिहाड़ का एक जरूरी अंग है -जेल नंबर 6. इस जेल में महिला कैदियों को रखा जाता है. जब काम शुरू किया था, तब इस बात का आभास नहीं था कि महिला कैदियों के साथ मेरा संवाद और संपर्क खुद मुझे कितने सबक दे जाएगा और मैं वसंत, होली, दीवाली की नई परिभाषाओं को समझने लगूंगी और मेरे खुद के लिए प्रेम के नए अध्याय खुलने लगेंगे. समय, समाज, कानून और रिश्तों से थकी इन औरतों को देखकर पहली नजर में यही लगता है कि अब इनके लिए न उत्सव कोई मायने रखते होंगे और न ही साज-श्रृंगार. लेकिन ऐसा नहीं है. कठोरतम परिस्थितियों में भी औरत अपने लिए उम्मीदों के दीये को जलाए रखने का सामर्थ्य रखती है. मन में गहराई तक अपने दुख और चुप्पी को दाबे एक आम औरत अपनी अंतिम सांस तक किसी बेहतरी की आशा के दामन को छोड़ती नहीं और उसका प्रेम कभी मरता नहीं, बल्कि यही प्रेम उसे बनाए रखता है और बचाए भी.
बने और बचे रहने की एक तस्वीर मैंने दिसंबर 2013 की एक गुलाबी दोपहर को देखी. उस दिन उसने पीले ही रंग के कपड़े पहने थे. मैं 27 साल की उस युवती की बात कर रही हूं जो पिछले 6 साल से जेल में है और जिसे शायद अगले 6 साल यहीं बिताने थे. उस दिन वह पहली बार जेल से बाहर निकली थी. 18 कैदियों की इस टोली के लिए अदालत से विशेष अनुमति ली गई थी ताकि वे दुनिया के सामने अपनी प्रतिभा रख सकें. पीले कपड़ों वाली इस युवती के परिधान वसंत थे. आंखों में मानसून भरे जब वह एक कविता पर मंच पर थिरकी तो सामने बैठे दर्शक हैरानी के भाव से भर कर रह गए. हां, विचाराधीन कैदियों की यह देश की पहली ऐसी प्रस्तुति थी और वजह बनी थी – ‘तिनका-तिनका तिहाड़.’
इस किताब के आइडिया से लेकर इसके साकार होने तक की मेरी यात्रा ने मुझे लगातार खुद से और गहराई से संवाद करने के लिए झकझोरा. जेल की इन कैदियों से मेरी तमाम मुलाकातें मन को अध्यात्म की तरफ झुकाती गईं. खैर, यह चर्चा लंबी है पर हां, मूल बिंदु यही है कि वसंत के फूल और प्रेम का स्पर्श वहां भी है जिस पर हमारी नजरें अक्सर जाया नहीं करतीं.
2013 में ‘तिनका-तिनका तिहाड़’ प्रकाशित हुई. 2013 में देश के गृह मंत्री ने विज्ञान भवन में जब इस किताब का विमोचन किया तो भारत के सभ्य समाज में अचरज से कानाफूसी हुई – जेल की महिलाएं और वो भी कवयित्रियां. पर यही सच था. रमा, सीमा, रिया और आरती – इन चारों की कविताओं की जिस किताब के लिए मैंने और विमला मेहरा ने काम किया था, उनमें जिस भाव ने खुद को बार-बार उभारा, वह था- प्रेम. ‘तिनका-तिनका तिहाड़’ देश का पहला ऐसा कविता संग्रह बना जिसमें महिला कैदियों की कविताओं को सहेजा गया. हिंदी और अंग्रेजी के अलावा इस किताब का अनुवाद चार भारतीय भाषाओं में हुआ और इटालियन में भी. यही किताब बाद में लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स में भी शामिल हुई.
सीमा की शादी उसी युवक से हो गई जिससे वो चाहती थी. वो भी जेल में बंद था. जेल में आने से पहले दोनों में प्रेम था. जेल में आने के बाद दोनों के बीच सलाखें थीं. इन सलाखों को पिघलाने में बड़ा औजार बनी- ‘तिनका-तिनका तिहाड़’. बात यहां नहीं रुकी. यह प्रेम किताब में बाहर आया पर जेल के सामने से गुजरने वाले कहां जानते थे कि अंदर कविता भी पलती है. तब जेल की चारदीवारी पर एक लंबी म्यूरल पेंटिंग बनी जो इस देश की सबसे लंबी म्यूरल पेंटिंग बनी. इसका उद्घाटन दिल्ली के तत्कालीन उपराज्यपाल ने किया. दीवार पर तस्वीरें थीं, रंग थे और थी – सीमा की कविता. चारदीवारी जो अगले 10 साल तक तिहाड़ की दीवार पर बनी रहेंगी और सड़क से गुजरने वालों को जेल के अंदर प्रेम की मौजूदगी की खबर देंगी.
चारदीवारी – सीमा रघुवंशी
सुबह लिखती हूं, शाम लिखती हूं
इस चारदीवारी में बैठी जब से, तेरा नाम लिखती हूं
इन फासलों में जो गम की जुदाई है
उसी को हर बार लिखती हूं
ये मेरे शब्द नहीं, दिल की आवाज है
ख्वाहिश जिंदा है जिसे हर रात सोचती हूं
सुबह कभी तो होगी ही
इसी आस में जीती हूं
हां, सुबह लिखती हूं, शाम लिखती हूं
इस चारदीवारी में बैठी बस, तेरा नाम लिखती हूं.
फिर जेल पर एक और प्रयोग. एक दिन और खास था. तिहाड़ की जेल नंबर 2 में उस दिन महिला और पुरुष कैदी जमा हुए. वहां कैमरा था, तकनीकी स्टाफ था. टीवी का मानिटर था और उत्सव था. इन बंदियों का समूह पहली बार देश के सबसे अलग पब्लिक सर्विस ब्राडकास्टर के सामने ‘तिनका-तिनका तिहाड़’ को प्रस्तुत करने वाला था. कपड़े पीले और चटख लाल थे. युवतियों के नाखूनों में नेल पॉलिश. सामने कुछ शीशे जिसमें वे खुद को देख सकते थे (जेल में न शीशे होते हैं, न रंगों की ऐसी गुंजाइश. इसलिए यह दिन उनके लिए खास था). आज उनका मेकअप भी हुआ, भरपूर मेकअप. उनकी मर्जी के मुताबिक औऱ मेकअप भी किया- एक बंदी ने ही जो जेल में आने से पहले मेकअप आर्टिस्ट थी. इन सबने मिलकर उस दिन भारत में एक इतिहास रचा. किसी जेल से पहली बार इस पैमाने पर एक गाना शूट हुआ.लोकसभा टीवी के पूर्व सीईओ राजीव मिश्रा का इसमें काफी सहयोग रहा. हां, यह गाना मैंने लिखा है लेकिन धुन और स्वर इन्हीं के हैं.
तिनका -तिनका तिहाड़ है, तिनके का इतिहास है
तिनके का अहसास है, तिनके में भी आस है
हां, ये तिहाड़ है
बंद दरवाजे खुलेंगे कभी, खुलेंगे कभी, खुलेंगे कभी
आंखों में न रहेगी नमी, न होगी नमी. न होगी नमी
इक दिन माथे पे अबीर,भरेगी घावों की तासीर
हां, ये तिहाड़ है, हां, ये तिहाड़ है
सबका ये तिहाड़ है, हां, सबका तिहाड़ है
गाना शूट हुआ. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने संसद भवन के अपने कक्ष में इस गाने का विमोचन किया और इस कोशिश पर मुहर लगा दी कि बंदियों के इस काम को सरकार की सराहना और रजामंदी मिल रही है.
https://www.youtube.com/watch?v=SZHlOMUnYrs#action=share
बाद में इसी प्रयोग को लेकर एनडीटीवी ने ‘हम लोग’ में इस पर चर्चा की. खास बात यह थी कि इसमें सीमा और उसका पति भी ससम्मान आमंत्रित थे (दोनों तब तक जेल से छूट चुके थे).
https://www.youtube.com/watch?v=lGrsGC2zyHk#action=share
अब एक और जेल. उत्तर प्रदेश की एक जेल है –
तिनका-तिनका डासना. यह जेल दिल्ली की तिहाड़ जेल से करीब 60-65 किलोमीटर दूर है और काफी चर्चित रही है. चर्चा की बड़ी वजह आरुषि हत्या के मामले में बंदी उसके माता-पिता राजेश और नुपूर तलवार का यहां होना है और साथ ही निठारी के आरोपी सुरिंदर कोली का होना भी. यह एक परिचय है. लेकिन इस परिचय के परे बड़ा सच यही है कि यहां भी कैद में कई जिंदगियां हैं और उनमें भी लोहे के कट्टरपन के बावजूद प्रेम की नमी मौजूद है.
प्रेम की एक छवि मां में भी है. जेल में रहने वाली मां भी कविता कर सकती है चाहे इससे पहले उसने जिंदगी में कभी कविता न लिखी हो, न पढ़ी हो. प्रेम और दर्द इंसान को कवि भी बनाता है और चिंतन भी देता है. इस बात को नुपूर और राजेश तलवार ने साबित किया. दोनों ने मेरे आग्रह को स्वीकार किया और ‘तिनका-तिनका डासना’ के लिए आरुषि पर कुछ कविताएं लिखीं. वे किताब का हिस्सा बनीं. बरसों बाद भी जब जेलों पर बात होगी, ये कविताएं सलाखों से झांकती एक मां की मौजूदगी को बनाए रखेंगी.
https://www.youtube.com/watch?v=qGLG2dkCLcY#action=share
लेकिन प्रेम सिर्फ इंसान का इंसान से ही नहीं बल्कि दीवार से भी हो सकता है, दीवार में भी हो सकता है. इस कड़ी को इस जेल में जोड़ने का समय आ गया था.
विवेक स्वामी, किशन, संजय और दीपक. उम्र – 25 से 35 के बीच. इन चारों में चार बातों की समानता है – चारों चित्रकार हैं, हत्या के आरोपी थे, विचाराधीन कैदी थे और डासना जेल में बंद थे. विवेक स्वामी जब पहली बार मुझे मिला तो उसने कहा कि वह कुछ बड़ा काम करना चाहता है. उस दिन मैं, जेल के अधिकारी शिवाजी और आनंद पांडे जेल भर में घूमते रहे. आखिर में एक दीवार चुनी और फिर कुछ महीनों में उसे ऐतिहासिक बना डाला. यह दीवार किसी भी जेल की एक साधारण दीवार की तरह थी. पीली और उदास लेकिन जब वह बनकर तैयार हुई तो जैसे पूरी जेल से संवाद करने लगी. अब वह जेल का सबसे बड़ा आकर्षण है. 10 बिंबों को लेकर बनी इस दीवार में 10 स्मृतियां उकेरी गईं. ऐसी स्मृतियां जो हर कैदी की जिंदगी की कहानी होती हैं. मां-बाप की याद, पत्नी या पति, बहन या बेटी और उसमें एक टुकड़ा उम्मीद. जिस दिन दीवार पूरी हुई, उसी दिन विवेक की रिहाई आ गई. वह शायद पहला ऐसा कैदी था जिसका एक-एक कदम उस समय भारी पड़ रहा था. वह बार-बार मुड़कर पीछे देख रहा था क्योंकि वहां एक ऐसी दीवार थी जिस पर पूरी जेल का प्यार था. हां, दीवार का नाम है – ‘तिनका-तिनका डासना.’
इस दीवार पर मेरे लिखे गाने के उस हिस्से को भी उकेरा गया जो उम्मीद जगाता है…
दिन बदलेंगे यहां भी, पिघलेंगी यह सलाखें भी
ढह जाएंगी यह दीवारें, होंगी अपनी कुछ मीनारें
टूटे फिर भी आस ना, ये है अपना डासना
अब बारी जेल के थीम सांग की थी. फिर गाना मैंने लिखा लेकिन उसे गाया जेल के 13 बंदियों ने जिनमें से 10 आजीवन कारावास पर हैं. शिव प्रकाश यादव, आनंद पांडे, आरएस यादव, शिवाजी यादव, डॉ सुनील त्यागी और मोनिका सक्सेना के सहयोग की वजह से यह यज्ञ पूरा हो सका.
https://www.youtube.com/watch?v=5s84QyAoEBM#action=share
तिनका-तिनका आगरा
और अब आगरा का केंद्रीय कारागार. प्रेम से यह भी अछूता नहीं. इस जेल के सभी कैदी आजीवन कारावास पर हैं. सबका अपना एकाकीपन है, सबकी अपनी कहानी. लेकिन फिर भी कोई एक सूत्र है जो जिंदगी को किसी लय से जोड़े रखता है.
मैं कैद हूं तो क्या हुआ, मन मेरा आजाद है
कल्पनाओं के सहारे उड़ रहा आकाश में
कोई बताए कैसा ये बंधन हैं और पाबंदियां
हर तरह से आस पुलकित है मेरे विश्वास में
यह कविता केंद्रीय कारागार, आगरा में बंदी दिनेश कुमार गौड़ ने लिखी है और उन्हें 2016 में ‘तिनका-तिनका इंडिया अवार्ड’ भी दिया गया. दिनेश आगरा जेल के उन 16 कैदियों में से हैं जिन्होंने ‘तिनका-तिनका आगरा’ के गाने को अंतिम रूप दिया. प्रेम के इसी महीने में इस गाने को आगरा जेल का थीम सांग घोषित किया गया है. शरद कुलश्रेष्ठ, रिजवी और लाल रत्नाकर सरीखे अधिकारियों के सहयोग से जेल में संगीत गूंजने लगा है. सीमित साधनों के बीच एक गाने को थीम सांग के तौर पर बनाना एक मुश्किल काम था.
प्रेम सिर्फ बाहर की दुनिया में ही नहीं होता या सिर्फ वहीं वो पोटली नहीं छूटती. कई बार दुखों में भी प्रेम होता है जो लंबा निभता है, टिकता है. यह सुंदरा है. उम्र करीब 60 साल. ठिकाना आगरा का नारी बंदी निकेतन. पिछले 25 साल से जेल में हैं, अपनी बड़ी बहन के साथ. शुरू के साल आंसुओं और इंतजार के नाम रहे. फिर एक दिन सुंदरा ने जेल की कोठरी में ही अपने लिए प्यार ढूंढ लिया. जेल की सुपरिटेंडेंट हर्षिता मिश्रा ने उसे जेल में ही अपना आशियाना बनाने और संबंधों को जीने की सलाह दी. हर्षिता ने जेल के कैदियों के साथ अनुशासन और आत्मीयता का एक सुंदर रिश्ता कायम रखा है. इसलिए उनकी दी यह सलाह धीरे-धीरे हकीकत में तब्दील होती गई और आज एक बड़े स्वरूप में सामने है.
तिनका-तिनका लखनऊ
कुछ वक्त पहले मैं लखनऊ जेल गई. मुझे सुंदरा से मिलना था. यह संभव हुआ. जब मैं उससे मिली तो वह अपने सारे दर्द के बीच बार-बार मुझे उन सब्जियों को दिखा रही थी जो उसने उगाई हैं. हालांकि मानवाधिकार आयोग को अभी इस जेल में आने का समय नहीं मिला है और न ही सुंदरा की पीठ को किसी ने आकर थपथपाया है लेकिन उसका काम जारी है. आज पूरी जेल सुंदरा की उगाई सब्जियों पर निर्भर है. यकीन नहीं होता कि एक महिला अपने अंतस से लड़कर, सब कुछ हारकर, सींखचों में थककर एक बार फिर इस कदर उठ सकती है कि पूरी जेल के लिए वह अन्नदाता ही बन जाए. सुंदरा अब इस जेल से प्रेम करती है और हर उस महिला से जो किसी परिस्थिति में यहां पर है. 2015 में इसी सुंदरा को मैंने तिनका-तिनका बंदिनी अवार्ड से सम्मानित किया था.
मेरे आत्मविश्वास को सबसे बल राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से 2014 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर राष्ट्रपति भवन में स्त्री शक्ति पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद मिला. जेलों में सुधार और कैदियों के जीवन में सजनात्मक योगदान के लिए तमाम प्रयासों के बीच मैंने दो सम्मान देने की भी शुरुआत की. ‘तिनका-तिनका इंडिया अवार्ड’ और ‘तिनका-तिनका बंदिनी अवार्ड’. इनके माध्यम से कैदियों के जीवन में सकारात्मक योगदान देने वालों का हौसला बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है.
जेलों में साहित्य भरपूर लिखा जाता रहा है. भगत सिंह से लेकर आस्कर वाइल्ड, महात्मा गांधी से लेकर जवाहर लाल नेहरू तक. जेलें आजादी के दौर की गवाह भी बनीं लेकिन जेल की सलाखों से चिपके प्रेम की बात कम ही हुई. बाहर की दुनिया के मानस से यह बात भी दूर रहती है कि जेलों में भी रिश्ते धड़कते हैं और यहां प्रेम अपने खालिस रूप में होता है क्योंकि प्रेम वही है जो समय और तारीखों की कसौटियों से ऊपर उठ जाए. प्रेम बुद्ध है, आध्यात्म है, शांत प्रार्थना है. जेल का प्रेम शुद्ध है क्योंकि जो रिश्ते कच्चे थे, वे जेल की ढ्योढ़ी को पार कर कभी सुध लेने नहीं आए. जेल के एकांत ने इन सबको संबंधों के घालमेल को समझने के लिए अपनी खुद ही बनाई पाठशाला में बैठकर मंथन करने का मौका दिया है. यहां रिश्तों की मोटी धुंध छंट जाती है. जो बचता है, वह मिलावट रहित है. सच्चा. सुच्चा. पक्का. स्थायी. प्रायश्चित के दरिया से गुजरने के बाद मिला यह एक ऐसा टापू है जहां प्रेम को बसाया जा सकता है…
प्रेम का एक टीका आज जेल के प्रेम के नाम. तिनका-तिनका उम्मीद, तिनका-तिनका प्रेम.
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