10 दिनों तक कवरेज कामनवेल्थ गेम्स के आस-पास घूमती रही। एतराज इस पर नहीं है। पर इस बात पर एतराज करने का हक तो बनता ही है कि इस कवरेज में मीडिया, खास तौर से इलेक्ट्रानिक मीडिया इस कदर लोटपोट रहा कि दिल्ली में हो रहे बहुत से  दूसरे जरूरी उत्सव उसने तकरीबन नजरअंदाज ही कर दिए। खेल महाउत्सव तो थे लेकिन उसके साए में लगा कि जैसे कवरेज का संसार भी सीमित हो गया। संगीत नाटक अकादेमी का देशपर्व इसका सटीक उदाहरण है। 10 दिन तक चले इस उत्सव को 5 हिस्सों में बांटा गया। कुलवर्णिका, नृत्य रूपा, देसज, नाट्य दर्शन और संगीत मार्ग। सभी का मकसद कलाकारों को राष्ट्रीय मंच मुहैया कराना और उन्हें प्रोत्साहित करना था। 10 दिनों तक चले इस उत्सव में करीब 1500 कलाकारों ने कला की कई ऐसी विधाएं ऐसे अद्भुत ढंग से प्रस्तुत कीं कि कई बार दर्शक खुशी के चरम को महसूस करते दिखे। संगीत, नृत्य और नाटक की भारत की इस राष्ट्रीय अकादेमी की स्थापना1952 में हुई थी और तब से यह भारत के सांस्कृतिक कलेवर में रंग भर रहा है।     

 

इसी तरह दिल्ली की साहित्य अकादमी ने कामनवेल्थ गेम्स देखते हुए दो दिवसीय राष्ट्रीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया। मीडिया यहां भी तकरीबन नदारद दिखा। इंडिया इंटरनेशनल और हैबिटैट सेंटर दो हफ्तों में कई किताबों के विमोचन करने में व्यस्त रहे लेकिन वहां भी कवरेज का हाल तकरीबन यही रहा। हां, श्री राम कला केंद्र की हर साल होने वाली रामलीला को ठीक-ठाक कवरेज जरूर नसीब हुआ।

 

 

दरअसल कवरेज का ताल्लुक सीधे इस बात से होता है कि उसकी कवरेज की अनुमति देने वाले का खुद का रूझान किसमें है और कवरेज के लिए कही जा रही घटना में टीआरपी बटोरने की कितनी ताकत है। आम तौर पर कवरेज का नियंत्रण अपने हाथ में रखने वाले आका कलाकार नहीं, पत्रकार ही होते हैं, इसलिए यहां खबर का पलड़ा भारी पड़ता है। लेकिन अगर आका के चाहने पर कवरेज हो जाए तो उस कवरेज को चलाने का अधिकार आउटपुट वाले के पास होता है जो इन्हीं मापदंडों के हिसाब से चयन करता  है। नतीजतन कला और कलाकार के बड़ी खबर बनने के आसार आम तौर पर पस्त ही होते हैं, बशर्ते उस दिन राजनीतिक, खेल या दूसरे बड़े हलकों से बड़ी खबर की पैदावर न हुई हो। दूसरे, यह भी कि कला की बीट को कवर करने वाले कई बार ऐसी हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं कि कांग्रेस या भाजपा कवर कर रहे रिपोर्टर की अदनी सी खबर के आगे अपनी स्टोरी को जगह दिलाने के लिए पूरी तरह जिरह नहीं कर पाते।

 

 

तो क्या इसका मतलब यह माना जाए कि नया थियेटर की नगीन तनवीर को तभी जाना जाएगा जब वे पीपली लाइव में चोला माटी के राम गाएंगी और लोग उस आवाज को बड़े परदे पर सुनेंगे। तब तक 30 साल की यात्रा के सहभागी सिर्फ वो मुट्ठी भर लोग होंगें जो साल दर साल ऐसे कलाकारों को मंच पर देख कर हैरानी और खुशी के भाव से बाहर आया करेगें। तो क्या कला की दुनिया को कवरेज के लिए किसी ऐसे फीके दिन का इंतजार करना होगा जिस दिन कोई न्यूज ब्रेक न हो और खबर का बाजार मंदा पड़ा हो।

 

इस तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि सांस्कृतिक बाजार को लेकर प्रिंट और उससे भी ज्यादा वेबमीडिया में काफी सरोकार दिखाई देता है।गेम्स को लेकर लगातार बनी अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों के बीच भी वेब मीडियाकाफी हद तक अपने संतुलन को बनाए रखने में कायम रहा है। ब्लागरों की नई उपजी फौज चहुंमुखी कवरेज में भरपूर मुस्तैद दिखती रही। हां, उनकी तुलना टीवी या प्रिंट से करना सही नहीं क्योंकि वहां पैसे की ऐसी बंदिश होती नहीं, इसलिए वो आजादी लुभावनी भी लगती है।   

 

असल में हर माध्यम की अपनी उपयोगिता और अपनी सीमाएं हैं। इसलिए समुचित कवरेज न पाने वालों को भी नए सिरे से इस बात का अवलोकन करना चाहिए कि कौन से ऐसे माध्यम ईजाद किए जाएं जिनके जरिए सूचना का संप्रेषण सटीक, तुरंत और ज्यादा कारगर हो। कला का क्षेत्र प्रयोगधर्मिता का क्षेत्र है। जब मंच के हर कोण में प्रयोगधर्मिता के नए फार्मूले ईजाद किए जा सकते हैं तो फिर कवरेज को लेकर क्या परहेज।

 

(यह लेख 24 अक्तूबर, 2010 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

 

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2 Responses

  1. ब्लॉग को कवरेज का माध्यम चुनने की आपकी राय से मैं पूरी तरह सहमत हूँ ,
    इस दिशा में प्रयास किये जाने चाहिए

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