ओढ़नी में रंग थे,रस थे, बहक थी

ओढ़नी सरकी

जिस्म को छूती

जिस्म को लगा कोई अपना छूकर पार गया है

 

ओढ़नी का राग, वाद्य, संस्कार, अनुराग

सब युवती का श्रृंगार

 

ओढ़नी की लचक सहलाती सी

भरती भ्रमों पर भ्रम

देती युवती को अपरिमित संसार।

 

दोनों का मौन

आने वाले मौसम

जाते झूलों के बीच का पुल है।

                        

ओढ़नी दुनिया से आगे की किताब है

कौन पढ़े इसकी इबारत

ओढ़नी की रौशनाई

उसकी चुप्पी में छुपी शहनाई

उसकी सच्चाई

युवती के बचे चंद दिनों की

हौले से की भरपाई

ओढ़नी की सरकन युवती ही समझती है

उसकी सरहदें, उसके इशारे

पर ओढ़नी का भ्रम टूटने में भला कहां लगती है कोई देरी

 

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3 Responses

  1. वर्तिका जी, पहले तो नमस्कार स्वीकार करें। आज मुझे पता पड़ा कि आपके भीतर एक कवि भी छिपा है। बहुत सुंदर वर्णन किया है आपने ओढऩी और एक युवती के बीच के परस्पर संबंध का। क्या कहा जाए। ओढऩी की सरकन वाकई युवती ही समझती। क्या कहने। बहुत सुंंदर। मेरी बधाई स्वीकार कीजिए।

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