सड़क किनारे खड़ी औरत
कभी अकेले नहीं होती
उसका साया होती है मजबूरी
आंचल के दुख
मन में छिपे बहुत से रहस्य

औरत अकेली होकर भी
कहीं अकेली नहीं होती

सींचे हुए परिवार की यादें
सूखे बहुत से पत्ते
छीने गए सुख
छीली गई आत्मा

सब कुछ होता है
ठगी गई औरत के साथ

औरत के पास
अपने बहुत से सच होते हैं
उसके नमक होते शुरीर में घुले हुए

किसी से संवाद नहीं होता
समय के आगे थकी इस औरत का

सहारे की तलाश में
मरूस्थल में मटकी लिए चलती यह औरत
सांस भी डर कर लेती है
फिर भी
जरूरत के तमाम पलों में
अपनी होती है

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7 Responses

  1. "औरत के पास / अपने बहुत से सच होते हैं /
    उसके नमक होते शुरीर में घुले हुए" बहुत अच्छी अभिव्यक्ति है, वर्तिका। औरत के आत्मिक संघर्ष को आपने बेहतर शब्द दिये हैं।

  2. औरत का इतना बेचारा सा, मजबूर सा चित्रण ठीक नहीं… हमारा समाज तब तक औरत को उसकी मर्यादित जगह नहीं देगा जब तक वो ख़ुद को मजबूर समझेगी… आपकी कविता शैली अच्छी है, जैसा कि पहले की कुछ कविताओं से जान पड़ा … लिखते रहिये … आप उम्दा लिखती हैं

  3. बोले तो बिंदास
    पर इससे राह खुलें
    नए विचारों की
    माफिक बने कुछ
    अच्‍छा होने लगे
    मन प्रसन्‍न होगा
    पर आस बनी रहेगी
    विश्‍वास जुटा रहेगा
    जिसने लुटना है
    जिसने लूटना है
    वह भी जारी रहेगा
    इस पर चाहिए विराम।

  4. उसके नमक होते हैं शरीर में घुले हुए … बहुत सुन्दर है कविता… , औरत के सवालों और जवाबों दोनों के साथ … इसलिए कुछ कहना मुश्किल है.

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