बात आई-गई हो गई। इंडियन आइडल में कथित तौर पर एक बेसुरा आता है। जैसे ही वो गाने की शुरूआत करता है, कुछ ही सेकेंडों में कार्यक्रम के जज – अन्नू मलिक, सुनिधि चौहान और सलीम मर्चेंट चेहरा बनाने लगते हैं और फिर टेबल पर सिर रख कर सो जाने का नाटक करते हैं- यह दिखाते हुए कि बेसुरापन बर्दाश्त से बाहर है। प्रतिभागी इस पर गौर करता है और गाना रोक कर स्टेज पर कहकर जाता है कि जजों को उसका गाना भले ही पसंद न आया हो लेकिन तब भी कलाकार की तौहीन नहीं की जानी चाहिए।
लड़का बाहर आता है तो अभिजीत सावंत उस युवक की प्रतिक्रिया लेना चाहते है। इस बार वह लड़का खुलकर अपनी बात रखता है। वह अपना विरोध जताता है कि कार्यक्रम में उसके साथ कुत्ते की तरह बर्ताव किया गया। इस बार वह सीधे अन्नू मलिक की प्रतिभा पर पलटवार करता है, यह जाने बिना भी कि वे पीछे ही खड़े हैं। खास बात यहीं पर है। जब अन्नू मलिक इस पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया देते हैं, तब भी वह लड़का विचलित नहीं होता और अपनी पूरी बात कहता है। अन्नू मलिक का आवेश में आना यहां एक अजीब सी खीझ भरता है।
यह छोटे भारत और स्मार्ट भारत के बीच का लाइव चित्रण था। लेकिन यह कहानी ज्यादा चली नहीं। बस आई और गई।
सोनी एंटरटेंमेंट पर पांच साल से चल रहे इंडियन आइडल का शुरूआती मकसद तो संगीत की छिपी प्रतिभाओं को खोज निकालना और उन्हें प्रोत्साहित करना ही था( हां, इसके बहाने पैसा कमाना और चैनल को लोकप्रियता के ऊंचे पायदान पर खड़े करने की तमन्ना तो थी ही। ) शुरूआती दौर काफी सुनहरा ही रहा। लोकप्रियता ऐसी मिलती है कि पहले साल में अभिजीत सावंत की जीत और अमित साना, राहुल वैद्या और प्रजाक्ता शुकरे की हार में जैसे पूरा भारत ही शामिल हो जाता है। इनमें अभिजीत मुंबई के एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार से आए हैं जबकि बाकी तीनों बचे हुए प्रतिभागी भिलाई, नागपुर और जबलपुर से आए थे।
यहां तक कहानी सुखद लगती है लेकिन इसके बाद के सालों में इंडियन आइडल एक फार्मूले की तलाश करने लगा जिसमें रोमांच, संगीत, हताशा, ख्वाब और बाद में अपमान का पूरा छौंक लगा दिया गया। कई चैनल सुरों की महफिल जमाने लगे। यहां जज प्रतियोगियों के गाने के स्तर के अलावा उनके कपड़ों और उनके कथित स्टाइल पर भी कमेंट करने लगे। यहां मेकओवर की बात होने लगी (मजे की बात यह कि यहां पर पढ़ाई की बात होती कभी सुनाई नहीं दी और न ही पढ़ने पर कोई तवज्जो भी देता सुनाई दिया)
खैर यहां कुछ सवाल कुनबुनाते हैं। पहला यह कि मीडिया का काम तो सूचना देना, शिक्षित करना और मनोरंजन परोसना था। उसमें आम जनता का मजाक उड़ाना कब शामिल हो गया। दूसरा यह कि क्या बेसुरा होना पाप है। क्या सुरवाला होना जिंदगी की अंतिम जरूरत है? वैसे जो सुरवाले दूसरों पर हंस रहे थे, उन्हें शायद ही यह ख्याल आया हो कि बहुत से मामलों में वे एक कथित बेसुरे से भी ज्यादा फिसड्डी हो सकते हैं और तीसरे ये कि अगर टीवी पर सुरों की ये जमातें न चलें तो कई दिग्गजों की दुकानों पर खतरे के बादल मंडराने लगें। वैसे तो एक दबा सच यह भी है कि कई डूबते सितारे ऐसे कार्यक्रमों में जज बनने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए रहते हैं ताकि किसी तरह सर्कुलेशन में बने रहें।
खैर, आम जन को टीवी के चमकीले परदे पर खींच लाने की जो कबड्डी कुछ साल पहले शुरू हुई थी, वो अब छिछोरेपन पर उतर आई है। इंडियन आइडल का वह कथित बेसुरा जब मलिक से कहता है कि वे भी कभी मामूली आदमी थे तो लगा जैसे बाबा नागार्जुन, अज्ञेय और प्रेमचंद होते तो गदगद हो उठते।
खैर, उनके गदगद होने का तो मालूम नहीं लेकिन यह जरूर लगता है कि जिस सूचना और प्रसारण मंत्रालय को चैनलों की गुणवत्ता और दशा और दिशा पर गौर फरमाना चाहिए, उसका ध्यान अब भी शायद कहीं और है। चैनलों पर आम जन के हास और फिर परिहास के तबले बजने शुरू हो गए हैं और स्थिति यह है कि मंत्रालय का मौन व्रत टूटने का नाम ही नहीं ले रहा।
(यह लेख 5 सितंबर, 2010 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)
6 Responses
शायद वह बेसुरा हो । पर था तो कोई संगीत का दिवाना हीं। मजाक उडाना तो गलत है। रही बात सरकारी नियंत्रंण की तो मुझे नही लगता की हर जगह उसकी पैठ हो। जब तक कोई अश्लीलता न हो, मीडिया में सरकारी हस्तक्षेप अनावश्यक है। दर्शक और पाठक हीं तो मालिक है। न देखेंगे , नही दिखेगा । न पढेंगे , नही छपेगा। वैसे I liked your profile and is impressed, a good use of technology. I got you through your one article published in a weekly tabloid बिहार रिपोर्टर । '' मीडिया का चरित्र और उसकी मजबूरियां "
वर्तिका जी मैं आपकी बातों से सहमत हूं—इस विषय पर मैनें भी काफ़ी पहले अपने ब्लाग पर एक पोस्ट लिखी थी– "टैलेण्ट हण्ट या पाइड पाइपर की बांसुरी"— मौका मिले तो पढ़ियेगा।
रियल्टी शो पर लिखने की पहल करना अच्छी परम्परा है। आपको बधाई।
वर्तिका जी, बात तो आपकी लाख टके की है। किसी भी व्यक्ति को इस तरह से अपमानित नहीं किया जाना चाहिए जैसे ही आमतौर पर अपने आप को जज कहलाने वाले लोग करते हैं। लेकिन कहीं न कहीं यह भी सोचा जाना चाहिए कि इतने सारे लोग इसमें भाग लेने आते ही क्यों हैं। हर व्यक्ति के अंदर एक हुनर होता है। अगर आप अच्छा लिख लेती हैं, अच्छा बोल लेती हैं इसका यह अर्थ नहीं कि आप अच्छा अभिनय भी कर लेंगी। बहुत से प्रतियोगी ऐसे भी पहुंचते हैं जो अपनी प्रतिभा को नहीं देखते कि वह क्या कर सकते हैं बस भीड़ में शामिल होने पहुंच जाते हैं।
मुझे लगता है इस पर भी विचार किया जाना चाहिए।
… saarthak abhivyakti !!!
सार्थक और विचारणीय प्रस्तुती …