हवा रोज जैसी ही थी
लेकिन उस रोज हुआ कुछ यूं
कि हथेली फैला दी और कर दी झटके से बंद
हवा के चंद अंश आएं होंगे शायद हथेली में
गुदगुदाए
फिर हो गए उड़नछू वहीं, जहां से आए थे
फूल भी क्यारी में रोज की तरह ही थे
लेकिन उस रोज जाने क्यों
एक पत्ते को उंगलियों में लिया
किताब की गोद में सुला दिया
लिख दिया उस पर तारीख, महीना, साल
पत्ता इतिहास हुआ पर दे गया कोई सुकून
कि जैसे
इतिहास को बांध लिया हो किताब की कब्र में
पल भी कई बार ऐसे ही समेटे कई बार
याद है शादी का वो अलबम
पहली किलकारी की तस्वीरें
होश में आते दिनों के ठुमकते दिन
मौसमों को भी कई बार बाहुपाश में समेटा
सर्द दोपहर की घाघरे सी फैली धूप में
बाहर बैठे
कैसे बातें लिपटती गईं थीं
इतिहास की तह में जाकर भी
वो दोपहरें आबाद थीं
जाने क्यों इस जीवन को छोड़ने का मन ही नहीं करता
6 Responses
मौसमों को भी कई बार बाहुपाश में समेटा
सर्द दोपहर की घाघरे सी फैली धूप में
बाहर बैठे
कैसे बातें लिपटती गईं थीं
इतिहास की तह में जाकर भी
वो दोपहरें आबाद थीं
जाने क्यों इस जीवन को छोड़ने का मन ही नहीं करता
वर्तिका जी, आपकी कविताओं में अभिव्यक्ति के अनेकों रंग दिखाई पड़ते हैं—-शब्दों की सरलता और खूबसूरत बिम्ब उन्हें और आकर्षक बनाते हैं। अच्छी कविता।
बेहद सुन्दरता से भावों को संजोया है। संभाल कर रखियेगा इस यादों की गुल्लक को।
दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें।
बहुत ही कमाल की रचना …गुल्लक को एक नए रूप में दिखाया आपने
आपको और आपके परिवार को दीपावली की शुभकामनाएं ….
पसंद आया यह अंदाज़ ए बयान आपका. बहुत गहरी सोंच है
जिंदगी को खुशहाल करती कविता…।
सकारात्मक सोच के साथ जीवन को एक उत्सव बनाया जा सकता है। हम तो यही संदेश लेकर जा रहे हैं।