गोवा के एक बीच पर इत्मीनान से कुछ सुस्ताती सी राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल का फोटो जिस रोज अखबार में छपता है, बहुत से पाठक उसे देख कर मुस्कुराते हैं। यह एक मानवीय तस्वीर है। देश की महामहिम का एक सामान्य इंसान की तरह छुट्टी मनाता यह चेहरा जनता को बड़ा भला लगता है।
लेकिन भलमानसहत से ली गई यह तस्वीर उनकी किलेबंदी में लगे सुरक्षा अधिकारियों को भली नहीं लगती। लिहाजा गोवा पुलिस को बीच में डाला जाता है और वह उन तीनों फोटो पत्रकारों को तलब करती है जिन्होंने यह गुस्ताखी की है। गगनदीप श्लेडेकर, अरविंद टेंग्से और सोरू कोमारपांत- इन तीनों पत्रकारों के बयान रिकार्ड किए जाते हैं और पूछा जाता है कि इतनी कड़ी सुरक्षा को देखने के बावजूद उन्होंने महामहिम की तस्वीर खींचने की गलती क्यों की। अलग-अलग पूछताछ के दौरान ये तीनों पत्रकार बताते हैं कि सुरक्षा अधिकारियों के निर्देश के मुताबिक ये तस्वीरें 200 मीटर की दूरी से ली गईं थीं और इन्हें 400 एमएम के जूम लैंस से खींचा गया था। यहां इन्होंने एक रोचक बात यह भी जोड़ी कि इतनी कड़ी सुरक्षा के बावजूद राष्ट्रपति के पास बिकनी पहने दो अनजाने विदेशियों को बैठने की अनुमति पता नहीं कैसे और क्यों दे दी गई। जिन फोटो पत्रकारों की वजह से सुरक्षा तंत्र की यह चूक उजागर हुई है, उसकी जांच की बजाय उन पत्रकारों से पूछताछ की जा रही है जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया है। उन्होंने मर्यादा में रहकर अपना काम किया है। खैर, गोवा पत्रकार संघ के अध्यक्ष प्रकाश कामत पुलिस के इस दखल को मीडिया की आजादी पर प्रहार बताते हैं और भाजपा के प्रवक्ता रजेंद्र अरलेकर भी इसे अलोकतांत्रिक ठहराते हैं। वैसे एक सवाल यह भी उठता है कि इस देश की पुलिस कब तक ऐसी बड़ी जिम्मेदारियों को निभाने में व्यस्त रहेगी।
बेशक इस मामले पर कोई केस दर्ज नहीं होता और न ही कोई केस बनता भी है, लेकिन इसके जरिए यह जतला देने की कोशिश जरूर कर दी जाती है कि ऐसा किया जाना ठीक नहीं। पत्रकारों को यूं इस तरह अपनी सीमा का उल्लंघन कतई नहीं करना चाहिए और बात-बेबात अपने पत्रकारीय गुण दिखाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।
यहां कई बातें जहन में आती हैं। सबसे जरूरी तो यह कि सत्ताओं में सहनशीलता इतनी कम क्यों होती है। वे खुद पर हल्की सी हसीं, थोड़ा कटाक्ष, थोड़ी नजरअंदाजी या ऐसे मामलों में थोड़ा सा नटखटपन क्यों बर्दाश्त नहीं कर पाते। दूसरे ये भी कि सत्ता खुद अपने लिए जो मापदंड खड़े करती है, वह उन आम लोगों के लिए भी क्यों लागू नहीं होने देती जिनकी बदौलत उन्हें प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष तौर से सत्तारूढ़ होने का तोहफा नसीब होता है। अगर बड़े नेताओं के लिए एक छोटी सी निजता एक बड़ा मसला है तो आम आदमी की बड़ी निजता इतनी छोटी कैसे आंक दी जाती है।
राष्ट्रपति ने शायद अपने सुरक्षा अधिकारियों से ऐसा करने के लिए कहा भी न हो। हो सकता है कि ये अधिकारी किसी बड़े राष्ट्रीय खतरे की आशंका से खुद ही सक्रिय हो उठे हों लेकिन इसके बावजूद सच यही है कि सारा कारनामा तो राष्ट्रपति के नाम पर ही किया गया। राष्ट्रपति को तो शायद इस बात का इल्म तक नहीं होगा कि इस एक घटना ने उनकी छवि पर एक हलका छींटा डाला है क्योंकि वे आम तौर पर एक मानवीय राष्ट्राध्यक्ष के तौर पर ही देखी जाती रही हैं और उन्हें गोवा के बीच में शांत मुद्रा में बैठे देखकर जनता में भी कहीं न कहीं एक सुख का भाव ही उमड़ा था। जनता उन्हें मान देती है और एक स्त्री के पहली बार राष्टप्रपति बनने पर उसके जीवन के हलके-फुलके क्षणों को देखने के लिए भी थोड़ी सी बेताब रहती है। लेकिन जैसा कि आम तौर पर होता ही है, सत्ताओं के आस-पास के घेरे ही घटनाओं के घूमने का चक्र तय करने लगते हैं। जहां थोड़ा सा सरकारी दांव-पेंच चला, बस वहीं सारा स्वाद भी किरकिरा हो गया।
तो राष्ट्र्पति की अगली निजी यात्रा की कवरेज के लिए अब कोई नियमावली तय करने का समय आ गया है क्या?
One response
aapki baato se purntah sahmat hoon….
jab Barak obama ke holiday ki pictures media cover kar sakti hai
to hamare mahamahim ki photo aane se itni hai-tauba kyon??