(मुकेश कुमार)

ये किसी चमत्कार से कम नहीं था। निर्मल जीत सिंह नरूला नामक जो धोखेबाज़ बाबा तमाम न्यूज़ चैनलों पर काबिज़ होकर जनमानस पर छा गया था और एक संक्रामक रोग की तरह फैलते हुए जनता को दिग्भ्रमित करने में लगा हुआ था, वह महीने भर के अंदर ध्वस्त हो गया। देश के सर्वाधिक टीआरपी रेटिंग वाले दस कार्यक्रमों की सूची में आठ स्थानों पर बिराजने वाला ये फ्रॉड एक पखवाड़े के अंदर ही पचास कार्यक्रमों की सूची में भी जगह पाने के लिए तरसने लगा। वह मज़ाक और लतीफ़ों का पात्र बन गया। जगह-जगह उसके ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज़ हो गईं। लोग खुले आम उसे धोखेबाज़, चार सौ बीस, पाखंडी और जाने क्या-क्या कहने लगे। उसकी निंदा करने वालों की लाइन लग गई। देश भर में अंध श्रद्धा के विरुद्ध आंदोलन चलाने वालों को नई ऊर्जा मिल गई और वे सड़कों पर उतर आए। निर्मल बाबा के पुतले फूँकने लगे, उसकी अर्थियाँ सजाई जाने लगीं और उसे गिरफ़्तार करने की माँगें की जाने लगीं। यही नहीं, उसके भक्तों की फौज भी गायब होने लगी और करोड़ों रुपए का उसका दैनिक संग्रह चंद लाख तक पहुँच गया। और ये चमत्कार हुआ मीडिया की ही बदौलत। जी हाँ उसी मीडिया की बदौलत जिसने उसे बनाया था, प्रतिष्ठित किया था। मनोरंजन के नहीं न्यूज़ के चैनलों ने ये काम किया। हालाँकि ये मूर्तिभंजन स्वेच्छा से नहीं किया गया। उनकी इच्छा तो इस नए बनते अरबपति बाबा से माल लूटने की थी, उसकी काली कमाई में हिस्सेदारी करने की थी। मगर वे फँस गए और जाल से निकलने के लिए उन्हें खुद को बाबा विरोधी दिखाने की ज़रूरत आन पड़ी। अचानक वे अंध विश्वास विरोधी दिखने को मजबूर हो गए। एकदम से प्रगतिशीलता का लबादा उन्होंने ओढ़ लिया और क्रांति की मशाल लेकर निकल पड़े समाज को बदलने के लिए। इस क्रम में उनका दोहरा रवैया भी बेनकाब हो गया। उनकी भूमिका को लेकर भी सवाल उठे, मगर वे निर्लज्जता से उन्हें पचा गए। कुछ चैनलों ने तो फिर भी बेशर्मी नहीं छोड़ी, बल्कि आज भी निर्मल बाबा के पेड कार्यक्रम वैसे ही दिखा रहे हैं, बिना ये बताए कि ये प्रोग्राम नहीं विज्ञापन हैं। लेकिन क्या करें बेचारे। धंधे में मुनाफ़े के लिए कुछ छल-प्रपंच तो करने ही पड़ते हैं।

दरअसल, निर्मल बाबा का चमत्कार किसी अलौकिक शक्ति या सिद्धि ( जो कि होती भी नहीं है) का नहीं पैसे का चमत्कार था। बड़ी ही चतुराई से उसने अपने बिज़नेस मॉडल में चैनलों को खासी अहमियत देते हुए उसे मार्केटिंग-ब्रांडिंग यानी प्रचार का आधार बना लिया। समागम के ज़रिए उसने जो धन उगाही की थी उसके बल पर उसने पैंतीस चैनलों में स्लॉट खरीद लिए और सुबह से शाम तक खुद को दिखाने का बंदोबस्त कर लिया। चैनलों की आत्मा तो कबकी बाज़ार में गिरवी रखी हुई है इसलिए उन्होंने सामाजिक सरोकारों को मारी एक और लात और बाबा से मोटी रकम लेकर उसके फ्रॉड को महिमामंडित करने के अभियान में शामिल हो गए। भारी भीड़ वाले सुनियोजित ढंग से शूट किए गए समागम जब चैनलों पर दिखने लगे तो लोगों को लगा कि निर्मल बाबा सचमुच में चमत्कारी पुरूष है, उसके पास हर समस्या का समाधान है। बस समागम की फीस जमा करो और काम हो गया। बाबा के समाधान भी आसान। गोलगप्पे खाने से लेकर काला पर्स रखने तक हल्के-फुल्के उपायों से किसी पर भी कृपा आनी शुरू हो सकती है। अगर काम हो जाए तो अपनी कमाई का दसवाँ हिस्सा भी बाबा के खाते में जमा करवाओ। यानी लूट ही लूट और उस पर मीडिया की ओर से पूरी छूट। लेकिन बाबा के साथ मुश्किल ये थी कि वे सबको नहीं खरीद सकते थे। सोशल मीडिया में सक्रिय लोगों ने मोर्चा खोल दिया। न्यूज़ चैनलों में न्यूज़ एक्सप्रेस ने सबसे पहले झंडा उठा लिया और फिर शुरू हो गया बाबा का भंडाफोड़। राँची से निकलने वाला प्रभात ख़बर भी तथ्यात्मक रिपोर्ट के साथ इस अभियान का हिस्सा बना तो उसे नई धार मिल गई। इसके बाद कुछ चैनलों को अपनी करतूत पर लाज आने लगी और वे भी बाबा के विरोध में उतरने लगे। स्टार न्यूज़ उतरा और जब उसे टीआरपी मिलती दिखी तो आज तक, इंडिया टीवी, जी न्यूज़ और भी कूद पड़े। ये गिर पड़े तो हर हर गंगे वाली स्थिति थी, इसीलिए निर्मल बाबा के विरोध के बावजूद तमाम चैनल थर्ड आई ऑफ निर्मल बाबा भी दिखाते रहे और दिखा रहे हैं। न्यूज़ एक्सप्रेस न इसे पहले दिखा रहा था और न ही बाद में प्रलोभनों के बावजूद दिखाने की सोची। स्टार न्यूज़ ने ज़रूर ऐलान किया कि बारह मई के बाद वह भी नहीं दिखाएगा।

निर्मल बाबा के खिलाफ़ चले इस अभियान ने जहाँ एक ढोंगी बाबा को बेपर्दा कर दिया वहीं न्यूज़ चैनलों के ढोंग से भी नकाब उठा दी। फिर एक बार ये साबित हो गया कि वे पैसे और टीआरपी के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं। अव्वल तो निर्मल बाबा का प्रोग्राम न्यूज़ चैनलों की सामग्री हो ही नहीं सकता था, क्योंकि उसमें न्यूज़ जैसा कुछ भी नहीं है। होने को तो ये धार्मिक या आध्यात्मिक कहे जाने वाले चैनलों की भी सामग्री नहीं थी, क्योंकि ये विशुद्ध अंध विश्वास को बढ़ावा देने वाली, आम लोगों को ठगने वाली और अवैज्ञानिक सोच को फैलाने वाली थी। मगर न्यूज़ चैनलों की परिभाषा में तो ये कतई नहीं आती। दूसरे, ये एक पेड प्रोग्राम था, जिसे न्यूज़ चैनल इस तरह दिखा रहे थे और आज भी दिखा रहे हैं मानो इसका निर्माण वे खुद कर रहे हों और इसमें किसी व्यक्ति या संस्था के प्रचार जैसा कुछ नहीं हो। तीसरे, दो-एक चैनलों को छोड़कर बाक़ी ने या तो बाबा का विरोध नहीं किया या फिर नकली विरोध किया। कुछ ने तो उसे सही ठहराने वाली सामग्री भी जमकर दिखाई। यानी पाखंडी बाबा को दिखाने वाले ज़्यादातर चैनल भी पाखंडी थे। उन्हें देश और समाज से कुछ भी सरोकार नहीं था, उनके लिए तो सबसे बड़ा रूपैया रहा।

इस सबके बावज़ूद निर्मल बाबा प्रकरण में एक बार फिर ये साबित हुआ कि दर्शक अच्छी चीज़ें देखना चाहते हैं बशर्ते अच्छे विकल्प उन्हें दिए जाएं। ये धारणा सरासर ग़लत है कि उन्हें मनोहर कहानियाँ ही चाहिए। अगर अंध विश्वास से भरी सामग्री वे देख रहे थे तो इसीलिए कि उन्हें अंध विश्वास विरोधी चीज़ें दिखलाई ही नहीं जा रही थीं। अगर ऐसा न होता तो जैसे ही बाबा की पोल खोलने का अभियान चैनलों पर चलना शुरू हुआ, दर्शकों की भीड़ न लग गई होती। यही नहीं, निर्मल बाबा के बाद चैनलों ने दूसरे बाबाओं की तरफ भी रुख़ करना शुरू कर दिया है और इससे ये बात और पुष्ट होती है कि लोगों को बाबाओं की पोल खुलते देखने में भी मज़ा आ रहा है। अगर ये सिलसिला जारी रहा तो अंध विश्वास के ख़िलाफ़ एक नई मुहिम छिड़ सकती है। इसमें भी संदेह नहीं कि टेलीविज़न बहुत ही शक्तिशाली माध्यम है और अगर ये सकारात्मक दिशा में काम करना शुरू कर दे तो बहुत ही अच्छे नतीजे निकल सकते हैं। लेकिन मौजूदा हालात को देखकर अफसोस के साथ यही कहना पड़ता है कि ऐसा होता नहीं दिखता।

और अंत में-

फिल्म अभिनेता आमिर ख़ान के सात टीवी चैनलों पर एक साथ प्रसारित होने वाले शो सत्यमेव जयते ने कई न्यूज़ चैनलों को उन्मादग्रस्त कर दिया है। उन्हें लग रहा है कि सामाजिक समस्याओं में उनके जैसे स्टार का हस्तक्षेप क्रांतिकारी साबित होगा। वे यहाँ तक उम्मीद करने लगे हैं कि इससे देश ही बदल जाएगा। ज़ाहिर है ये उनकी नासमझी और अपरिपक्वता है जो गंभीर मसलों के सरलीकृत समाधानों के प्रति उनमें उतावलापन और अंधविश्वास पैदा कर देता है। ये बाज़ार के बारे में उनकी अधकचरी समझ को भी ज़ाहिर करता है। वे इस तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं कि इस शो की मार्केटिंग में ही छह करोड़ खर्च किए गए हैं और प्रायोजकों से नब्बे करोड़ की रकम पहले से ही इकट्ठी कर ली गई है। विज्ञापनों की दर दस लाख प्रति दस सेकेंड रखी गई है जो कि अब तक की सबसे ज़्यादा है। साफ है कि सरोकार की आड़ में कारोबार हो रहा है। ये सही है कि आमिर ख़ान की पहचान एक संवेदनशील अभिनेता के तौर पर बन गई है मगर चैनल भूल जाते हैं या भूल जाना बेहतर समझते हैं कि आमिर ख़ान एक एक्टिविस्ट के रूप में अपनी इमेज बिल्डिंग में ज़्यादा दिलचस्पी रखते हैं और समस्याओं के समाधान में कम। भ्रूण हत्याओं पर उनका पहला एपिसोड भावनात्मक उभार पैदा करके सक्रियतावाद का आभास ज़रूर पैदा करता है मगर असलियत में समस्या के समाधान की दिशा में एक क़दम भी आगे नहीं ले जाता। इससे फिर यही साबित होता है कि आमिर ऐसे कार्यक्रम करके अपनी एक्टिविस्ट वाली छवि को और पुख़्ता करना चाहते हैं जो कि इसके पहले भी वे एक नहीं कई बार वे ज़ाहिर कर चुके हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन के सवाल पर उनके रवैये से सब वाकिफ़ हैं ही। ब्रांडिंग के लिए वे तरह-तरह के फंडे आज़माते रहे हैं और इनमें आम आदमी से कनेक्ट होना एक बड़ा मार्केटिंग हथकंडा रहा है। ये भी नहीं भूलना चाहिए कि खुद टीवी चैनल भी उनके ज़रिए इंटरटेनमेंट का एक नया मसाला-फार्मूला गढ़ रहे हैं और उनका मुख्य मक़सद भी टीआरपी और रेवेन्यू है न कि जनचेतना को जागृत करना। ये प्रवृत्ति टेलीविज़न में हावी सेलेब्रिटीवाद की भी मिसाल है। टीवी चैनल किसी सेलेब्रिटी को देखते ही दीवाने हो जाते हैं, लार टपकाने लगते हैं। वे बिकाऊ माल समझे जाते हैं इसलिए उन पर और उनकी गतिविधियों पर केंद्रित कार्यक्रम बनाए जाने लगते हैं। इस तरह के ज़्यादातर कार्यक्रम तारीफ़ों से भरे होते हैं, उनमें आलोचना का तत्व न के बराबर ही होता है। ऐसी सेलेब्रिटी भक्ति भ्रमों को बढ़ाने में मददगार ही साबित होती है। ज़्यादा नहीं कुछ हफ्ते इस कार्यक्रम को चलने दीजिए, सबको समझ में आने लगेगा कि ये सत्यमेव जयते नहीं बाज़ारमेव जयते है।

(लेखक अरसे से टीवी पत्रकारिता कर रहे हैं। फिलहाल वे राष्ट्रीय हिंदी न्यूज़ चैनल न्यूज़ एक्सप्रेस के प्रमुख हैं। उनसे mukeshkumar@deshkaal.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

Categories:

Tags:

One response

  1. इन पाखंडी बबवोकी दुकान अब तक चालू है ? इसके बारेमे कोई क्यों नहीं सोचता ?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *