एक परिचय तो यह है कि ज्ञानेश्वर मुले भारतीय विदेश सेवा के 1984 बैच के अधिकारी हैं और इस समय मालदीव में भारत के उच्चायुक्त हैं। लेकिन यह एक सरकारी परिचय हुआ। इस परिचय में जो ताजा अध्याय जुड़ा है, वह इस परिचय को मानवीय बनाने में मदद करता है। इसी महीने ज्ञानेशवर मुले की आत्मकथा माटी, पंख और आकाश राजकमल प्रकाशन से छप कर आई है। 350 रूपए की सुंदर कवर डिजाइन से आई यह किताब अपनी पहली झलक में ही अपना ध्यान खींचने में सफल होती है।

 

मुले की किताब का हाल में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की एनेक्सी में विमोचन हुआ तो कई तत्व  देखने को मिले। हमेशा धीर-गंभीर चेहरा बनाकर रखने वाली निरूपमा राव का भाषण खुद अपनी यादों से सराबोर दिखा। मुले की बेहद प्रतिभावान पत्नी, लेखिका और एक सफल आईएएस अधिकारी साधना शंकर और किताब पर अध्यक्षीय टिप्पणी देते नामवर सिंह ने किताब के गांभीर्य को और बढ़ा दिया। लेकिन इसमें खास रही किताब में की गई अनगिनत सच्ची टिप्पणियां। जैसे कि लेखक कई जगह यह बात खुलकर बताते हैं कि कैसे महाराष्ट्र के एक गरीब परिवार से बाहर आकर देश की सबसे सम्मानित सेवा में आना उनके लिए बेहद दुरूह था। 1984 में चयन के बाद जब उनके बैच को राष्ट्रपति भवन ले जाना तय होता है तो कस्तूरबा गांधी मार्ग से लेकर राष्ट्रपति भवन तक का वह रास्ता उन्हें उनके कठिन दिनों की स्मृतियों से रूबरू कराता हुआ चलता है। वहां तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह सबसे पूछते हैं कि किसके पिता क्या करते हैं। सबके पिता बड़े लोग हैं, सिवाय ज्ञानेश्वर मुले के। वे फख्र से बताते हैं कि उनके पिता किसान हैं और सिलाई का काम करते हैं। इस पर जैल सिंह सबसे बात करते हुए कहते हैं

 

इस लड़के की सफलता आप सबकी सफलता से अलग तो है ही, महत्वपूर्ण भी है। यह ग्रामीण इलाके से आया है, मराठी में इसकी पढ़ाई हुई, इसके पिताजी साधारण किसान हैं, फिर भी यह लड़का यहां तक पहुंचा।

 

दरअसल बहुत दिनों बाद ऐसी किसी किताब का जिक्र होता सुनाई दिया है जहां किसी वरिष्ठ अधिकारी ने अपने संघर्ष की गाथा को ईमानदारी से कहने की कोशिश की है। मुले जब यह लिखते हैं कि उनके पास न तो कायदे का कोई जूता था और न ही टाई पहनने का सरूर तो एक छोटे भारत का विशालकाय सच जैसे उछल कर सामने खड़ा हो जाता है। वे अपनी ग्रामीण पृष्टभूमि पर शर्मिंदा नहीं हैं बल्कि गर्वित हैं। हालांकि किताब सिर्फ एक-दो पक्षों के आगे-पीछे घमूने तक ही सिमटी दिखती है लेकिन ऐसी किताबें निसंदेह उन लोगों के सपनों में उजास भरने का काम तो कर ही देती हैं जिनके रास्तों में भी कुछ इसी तरह के पठार हैं। फाइलों में लिखने और नीतियों का निर्धारण करने वाले जब अपनी यात्रा की कथा कहते हैं तो उनके मील के पत्थर युवामन के अंतर्द्वदों को साफ करने में मददगार साबित होते हैं।

 

भारत में किताबों की दुनिया मजे की उड़ान भरती दिखने लगी है। इंडिया हैबिटाट सेंटर हो या इंडिया इंटरनेशनल सेंटर , दिल्ली में कुछ ठिकाने जैसे रोजमर्रा की गतिविधि की तरह किताबों का विमोचन होते देखते हैं। अब विमोचनों से पहले कायदे की चाय का इंतजाम भी होने लगा है। विमोचन एसी कमरों में होते हैं, उनका बाकायदा आमंत्रण पत्र छपते हैं और प्रेस विज्ञप्ति भेजी जाती है। बैकड्राप बनाया जाता है और उसे कारपोरेट लुक देने के लिए आपसी जुगलबंदी भी की जाती है। लेकिन यहां एक बात बड़ी मजे की है। इन विमोचनों में कौन आएगा और कौन कतई नहीं आएगा, यह फेहरिस्त कोई भी याद कर सकता है, महज कुछ ही समारोहों को देखकर। लेखकों का एक बड़ा वर्ग अपनी किताब के विमोचन में भारी भीड़ को देखने के लिए तो आतुर रहता है लेकिन दूसरे के विमोचन में(अन्यथा कि भाषण देने की कोई संभावना हो) जाने में यथोचित परहेज करता है। किताबों के विमोचन कई बार राजनीति का मैदान बने हुए भी दिखते हैं। छोटे-छोटे विमोचन कई बार जाने-अनजाने बड़ी नाराजगियों की वजह भी बन जाते हैं। इसके अलावा यह भी सच है कि कई बार बड़े पदों पर आसीन लोगों की किताब के छपने में आम तौर पर आसानी हो जाती है क्योंकि वे एक ही धक्के में कई पुस्तकालयों में किताब के खरीदे जाने को सुनिश्चित कर देते हैं।

 

लेकिन तब भी किताबों को पंख लगाता यह नया मौसम एक मीठी आहट तो है ही।

 


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