रानियां सब जानती हैं
उनकी आंखों में सपने
तैरते ही नहीं
वे अधमुंदी भारी
पलकों से रियासतें देखती हैं
सत्ताओं के खेल
राजा की चौसर
वे इंतजार करती हैं
अपने चीर हरण का
या फिर आहुति देने का
वे जानती हैं
दीवार के उस पार से
होने वाला हमला
उन्हें ही लीलेगा
पहले
पर वे यह भी जानती
हैं
गुलाब जल से चमकती
काया
मालिशें
खुशबुएं
ये सब चक्रव्यूह हैं
वे जानती हैं
पत्थर की इन दीवारों
में कोई रोशनदान नहीं
और पायल में दम नहीं
मकबरे यहीं बनेगें
तारीखें यहीं बदलेगीं
पर उनकी किस्मत नहीं
रानियां बुदबुदाती
हैं
गर्म दिनों में सर्द
आहें भरतीं हैं
सुराही सी दिखकर
सूखी रहती हैं –
अंदर, बहुत अंदर तक (( थी हूं रहूंगी से)
म्यूजिकल चेयर खेलने की घंटी बज चुकी है। दौड़ दिलचस्प होती दिख रही है। खास तौर पर इसलिए कि मामला देश की सबसे बड़ी और सबसे सुनहरी कुर्सी का है। पर इस खेल में मजे से ज्यादा किरकिराहट है और वही खेल के स्वाद को फीका भी कर रही है।
राष्ट्रपति के तौर पर अपनी अंतिम विदेश यात्रा से लौटते हुए विमान में देश की प्रथम महिला ने इस बात को साफ किया कि राष्ट्रपति की विदेश यात्रा को सरकार तय किया करती है, न कि राष्ट्रपति भवन। उन्होंने यह भी कहा कि वे पहली या अंतिम राष्ट्रपति नहीं हैं जिनके साथ उनका परिवार यात्रा पर गया हो। इससे दुखद और क्या होगा कि किसी देश की प्रथम महिला को ऐसे विवादों और सवालों का जवाब देना पड़े जो उनके कार्यकाल से पहले या उनके बाद भी उपज सकते थे। कार्यकाल का अंतिम समय, जो कि सुखद और भावुक क्षण होना चाहिए या फिर उपलब्धियों पर गरिमामय उल्लास का भी, वहां बेवजह के सवालों के जवाब देने की मजबूरी राष्ट्रपति के स्तर से ज्यादा सामाजिक जड़ की कमजोरी ही दिखती है।
देश का अगला राष्ट्रपति कौन हो- इसकी तमाम चिंताओं के बीच दरअसल इस समय एक नई राजनीति मौजूदा राष्ट्रपति की काबिलियत को लेकर शुरू हो गई है। दलित राष्ट्रपति, मुस्लिम राष्ट्रपति, सिख राष्ट्रपति, महिला राष्ट्रपति के बाद इस बार क्या हो, इस पर बहस का बाजार गर्म है। नए आगमन को लेकर चर्चाएं हैं पर जिनकी विदाई है, वे इससे कहीं ज्यादा चर्चा और विवाद का केंद्र बना दी गईं हैं।
तस्वीरें काफी तेजी से बदलती हैं। जुलाई 2007 में को मीडिया की सुर्खियां प्रतिभा सिंह पाटिल थीं – देश की पहली महिला राष्ट्रपति, सौम्य, सजग, संवेदनशील वगैरह। उनके लिए वे तमाम विश्लेषण इस्तेमाल किए गए जो किसी की गरिमा को चार चांद लगा सकें। यह बार-बार याद दिलाया गया कि वे आज तक कभी कोई चुनाव नहीं हारी हैं और बेहद प्रतिभावान है। उनके साथ उम्मीदों की एक भारी पोटली बांध दी गई। उनके जहन में भी महिला सशक्तिकरण और मजबूत भारत का सपना हमेशा रहा और उसे निभाने में यह पांच साल पंख लगाकर उड़ भी गए। अब लगा था कि यह समय उनके प्रति धन्यवाद ज्ञापन का होगा।
पर अब एक नई तस्वीर उभर रही है। यहां विवाद हैं। उन्हें क्यों चुना गया, क्या वे इस काबिल थीं, क्या वे वाकई राष्ट्रपति के तौर पर इस देश के लिए कुछ कर पाईं, उनकी यात्राओं पर 205 करोड़ रूपए का खर्च क्यों और कैसे हुआ, उनके परिवार ने उनके पद का कितना दुरूपयोग किया, उनके बेटे और पति ने कैसे अपने लिए कई सुविधाएं जुटा लीं, उन्हें पुणे की जमीन किस आधार पर मिली, उन्होंने महिलाओं के लिए कुछ किया या नहीं और क्या वे महज एक रबर स्टांप राष्ट्रपति थीं वगैरह। सवालों की झड़ी लंबी है। इन सवालों पर सोचने की जरूरत भी महसूस की जा सकती है पर साथ ही यह भी लगता है कि यह तमाम सवाल एक गलत समय पर उठे हैं और इसलिए इनका औचित्य भी कमजोर दिखाई देता है क्योंकि इन्हें शायद किसी विमर्श के लिए उठाया ही नहीं गया है। यह सब सवाल न तो चिंता की वजह से उठाए गए हैं और न ही किसी तरह के चिंतन के लिए। यह सवाल सिर्फ सवालों की भीड़ को खड़ा करने के लिए उठाए गए हैं। वैसे भी अगर वे एक रबर स्टांप राष्ट्रपति थीं तो फिर ज्ञानी जैल सिंह या फरूखीद्दिन अली अहमद क्या थे। तमाम राष्ट्रपति किसी न किसी स्तर पर रबर स्टांप रहे पर उन्हें लेकर इस तरह की तीखी टिप्पणियां नहीं हुईं।
दूसरे, बाकी बहुत से नेताओं या शीर्षस्थ पदाधिकारियों के मुकाबले प्रतिभा पाटिल ने यहां भी समझदारी ही दिखाई। वे उलझीं नहीं। पुणे की जमीन को लेकर विवाद हुआ तो उन्होंने उसे लौटा ही दिया लेकिन उनके इस कदम पर कोई प्रशंसात्मक खबर नहीं बनी। इसके अलावा उनके विद्या भारती शिक्षण प्रसारक मंडल पर कभी विस्तार से चर्चा नहीं की गई। यह मंडल अमरावती, जलगांव और मुंबई में स्कूल और कालेज चलाता है। उन्होंने श्रम साधना ट्रस्ट के तहत दिल्ली, मुंबई और पुणे में कामकाजी महिलाओं के लिए हास्टल भी बनाए पर वे भी कभी सकारात्मक खबर का केंद्र नहीं बने। इसी तरह जलगांव का इंजीनियरिंग कालेज और चीनी की फैक्टरी भी खबर से दूर रहे।
इस बार वजह साफ समझ में आती है। जिस वजह से प्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति के पद के लिए चुना गया, वही उनका विरोधी भी साबित हुआ है। उनका महिला होना, सौम्य होना और चुप्पी को साधे रखना। बेहद मुखर राजनीतिक माहौल और उद्देलित मीडिया के बीच यह काबिलियत नाकाबलियत ही ज्यादा है। अगर ऐसा न होता तो नरेगा और राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण को लेकर राष्ट्रपति जिस तरह लगातार सक्रिय और चिंतित रहीं, उन पर इस समय शायद कसीदे गढ़े जाते। पर चीजें बदलती हैं। कई बार विदाई को आभार की बजाए नकारात्मक तरीके से अंजाम दिया जाता है। इस बार भी यही हुआ है पर लगता है कि कम के एक देश की प्रथम महिला को तो कम से कम महिला होने का खामियाजा भुगतने से बचाया जाता और कम से कम यहां तो मीडिया महिला के प्रति भेदभावी रिपोर्टिंग से उबर पाता। यह गैर-जिम्मेदाराना, एक-पक्षीय और महिला के विपक्ष में की जाने वाली रिपोर्टिंग की एक ऐसी मिसाल है जिसे सालों याद किया जाएगा। वैसे भी वे रानियां ही क्या जिन्हें अंजाम भुगतने न पड़ें।
One response
Dear mem IN CONTEXT to your above blog "sansad se sadak tak hum dhanyavad nhee kartein" i would like to comment that their has to be sense of urgency whenever something wrong heppened, it is wrong to say that on the basis of post and gender we should'nt bring the truth in front of comman people, if there were nothing than why the first lady of INDIA HANDED OVER HER LAND