सुंदर झीलें, बड़े पार्क, महल, खंडहर, गलियां, मोहल्ले, हाट, इमारतें सब सच की तरह दिखा देने में माहिर टेलीविजन धारावाहिकों की जिंदगी का सेट भी अब बदलने लगा है। खबर है कि धारावाहिकों के कैमरे अब मुंबई से बाहर जाकर दूसरे ठिकानों को खोजने में जुटने लगे हैं। इन शहरों में धारावाहिक बनाने के आदी रहे निर्माताओं के लिए नए विकल्प खोजना अब एक मजबूरी हो गई है। इसकी एक वजह नएपन की तलाश कही जा सकती है लेकिन बड़ी वजह जगह का अभाव, बढ़ता हुआ खर्च और तीखी प्रतिस्पर्धा भी है।

 

दरअसल बरसों शूट के लिए पारंपरिक रूप से फिल्म सिटी का इस्तेमाल किया जाता रहा है लेकिन पिछले कुछ सालों में टेलीविजन का दायरा और धारावाहिकों का निर्माण इस कदर बढ़ा है कि मुंबई की फिल्म सिटी अब सिमटा हुआ दिखने लगी है।

 

नए चैनलों की भीड़ की वजह से फिल्म सिटी पर भी दबाव बढ़ा है और यहां किराये की कीमतें कई गुणा बढ़ गईं हैं। एक आम शूट के लिए यहां पर हर महीने का किराया करीब 18 से 20 लाख रूपए पड़ता है जबकि मुंबई से बाहर निकलते ही यह खर्च करीब 30 से 40 प्रतिशत कम हो जाता है। इसके अलावा जगह और समय के दबाव की वजह से एक्सक्लूजिविटी बनाए रखने के आसार भी काफी घट जाते हैं। वैसे भी जो धारावाहिक दर्शकों में लोकप्रिय हो जाते हैं, उनकी अवधि 2-3 साल तक की तो तय मान ही ली जाती है। ऐसे में नए धारावाहिकों के लिए उस बंधी हुई जगह में अपने लिए बुकिंग करवा पाना आसान नहीं होता। इसके अलावा क्षेत्रीय चैनलों का अपना दबाव भी लगातार बना रहता है। यही वजह है कि अब नयगाम, दहीसर, सीरा रोड, पोवाई के अलावादिल्ली,  शिमला, लखनई, आगरा और बड़ौदा को शूट के लिए चुना जाने लगा है।

 

लेकिन इनमें कई कंपनियां खुशनसीब भी हैं। जैसे कि बालाजी टेलीफिल्म्स लिमिटेड और बीएजी फिल्म्स एंड मीडिया लिमिटेड के अपने स्टूडियो हैं। माना जाता है कि एकता कपूर की बालाजी ने 10 अलग-अलग तरह के स्टूडियो बनवाने पर करीब 1200 करोड़ रूपए का खर्च किया है।

  

दरअसल फिल्म और टीवी मनोरंजन की दुनिया में जिस बड़े कलेवर के साथ उभरे हैं, उस में फिल्म सिटी की अहमियत और जरूरत और भी बढ़ जाती है। मुंबई स्थित फिल्म सिटी को महाराष्ट्र सरकार ने दादा साहब फाल्के को समर्पित करते हुए बनवाया था। दिल्ली से सटे नौएडा में 1987 में फिल्म सिटी के बनने से एक बड़ी राहत मिली। हैदराबाद का   रामोजी फिल्म सिटी यानी आरएफसी दुनिया का सबसे बङा फिल्म स्टूडियो परिसर माना जाता है लेकिन आज भी अभी भी देश भर में एक दर्जन से कम फिल्म सिटी हैं जो कि बढ़ती जरूरतों के सामने अब भी नाकाफी ही हैं।

शत्रुघ्न सिंह ने बहुत पहले बिहार की राजधानी पटना में 100 एकड़ की जमीन पर फिल्म सिटी बनाने का सपना प्रचारित कर खूब तालियां बटोरी थीं जिसे वे शायद आज खुद ही भूल गए हैं। इसी तरह 2005 में राजस्थान सरकार और जयपुर विकास प्राधिकरण ने जयपुर में फिल्म सिटी बनाने का ऐलान किया था लेकिन यह सिटी अभी फाइलों में ही दबी  है। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने 20 करोड़ रुपये की लागत से तकरीबन 1,000 एकड़ जमीन पर फिल्म सिटी बनाने का ऐलान किया था। तब बीकानेर से लोकसभा पहुंचे अभिनेता धमेंद्र ने भी खासी सरगर्मी दिखाई थी, लेकिन बाद में सारा हवा हो गया।

 

फिलहाल इस साल फरवरी में हरियाणा के शहर मोहाली में फिल्म सिटी के निर्माण को मंजूरी मिल गई है और इससे पंजाबी फिल्मों के निर्माण को खासतौर से प्रोत्साहन के आसार बनेंगें। इसी तरह मध्यप्रदेश में भी फिल्म सिटी को बनाए जाने का सपना जगा है। इसके जरिए स्थानीय बोलियों और संस्कृति पर आधारित छोटी-छोटी फिल्में बनाने में सहयोग की बात कास तौर से कही गई है।

दरअसल टेलीविजन और फिल्मों की लोकप्रियता की बात तो खूब होती है लेकिन कार्यक्रमों या फिल्मों के निर्माण से जुड़ी जरूरतों पर चर्चाओं का माहौल हमारे यहां कम ही बनता है।
एक मामूली सी दिखने वाली जगह थोड़ी सी मेहनत, दिमागी संयोजन और तकनीकी सम्मिश्रण से कमाल कर सकती है। फिल्म सिटी इसी का नाम है। सालों से फिल्म और टीवी की सफलता का मापदंड तय करने में सेट बहुत आगे रहे हैं। इनके अपने फायदे भी हैं। सबसे बड़ा तो यही कि टीवी पर एक ताजगी  का भान मिलता है, स्थानीय कलाकारों को मौका मिलने की गुंजाइश बनती है, वहां नया व्यवसाय पनपता है, आम लोगों को मुफ्त में टीवी को समझने का अवसर मिलता है और धारावाहिकों में स्थानीय पुट की छौंक लगने की संभावना बनती है।

 

बेहतर हो कि दुनिया के सबसे बड़े मनोरंजन क्षेत्र को ऊर्जा और समर्थन देने में राज्य सरकारें अब पहल करें।

 

(यह लेख 11 अप्रैल, 2011 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

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